शनिवार, 2 अप्रैल 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 8

तुम्हारी प्रक्रिया और तुम्हारी गतिविधियाँ तुम्हारे पल्ले में, लेकिन मेरे शरीर को और मेरे आदर्श को व्यथित नहीं किया जा सकता। घिसो जितना घिस सकते हो। मैंने भी घिसा। घिसते घिसते पसीना निकाल दिया। वह एक रत्ती मात्र रह गया। उसकी सारी की सारी हड्डियों को लोगों ने पीस डाला, लेकिन चंदन सुगंध फैलाता रहा। जब ऐसा महान देवत्व लकड़ी में है, यदि ऐसा ही इंसान में हो जाये तब? तब हम लकड़ी के चंदन को घिसेंगे मस्तक पर लगायेंगे और सोचेंगे कि हे चंदन! अपनी जैसी वृत्तियाँ कुछ हमारे मस्तिष्क में भी ठोंक, जिसमें कि कषाय कल्मष भरे पड़े हैं।

 ईर्ष्या और द्वेष भरे पड़े हैं। डाह और छल भरे पड़े हैं। आकांक्षाएँ, इच्छाएँ भरी हुई पड़ी हैं। हमारे सामने न कोई आदर्श है, न कोई उद्देश्य। हे चंदन! आ और घुस जा हमारे दिमाग में अपनी वृत्तियों सहित। हमने तुझे हरदम लगाया, पर भावना रहित होकर लगाया।

मित्रो! पूजा का उद्देश्य बहुत ही विशेष और महत्त्वपूर्ण है। पूजा के पीछे न जाने क्या क्या विधान और उद्देश्य भरे पड़े हैं। पर क्या कभी यह हमारे दिमाग में आया? कभी नहीं आया। केवल लक्ष्यविहीन कर्मकाण्ड, भावनारहित कर्मकाण्ड करते रहे, जिनके पीछे न कोई मत था न उद्देश्य। जिनके पीछे न कोई भावना थी न विचारणा। केवल क्रिया और क्रिया...। ऐसी क्रिया की मैं निन्दा करता हूँ और ऐसी क्रिया के प्रति आपके मन में अविश्वास पैदा करता हूँ, बाधा उत्पन्न करता हूँ।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/lectures_gurudev/44.2

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👉 मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग १)

नवरात्रि के नौ दिनों में सम्पूर्ण देश मातृमय हो रहा है। हम सभी देशवासियों का मन अपने मूल में उतरने की कोशिश में है। मनुष्य अपने जन्म और जीवन के आदि को यदि सही ढंग से पहचान सके, उससे जुड़ सके तो उसके सारे पाप-ताप अनायास ही शान्त हो जाते हैं। युगशक्ति जगन्माता गायत्री और उसके काली, दुर्गा, तारा आदि विविध रूपों की उपासना का रहस्य यही है। श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास रूपिणी माँ को सभी भूतों-प्राणियों, चर-अचर सभी में अनुभव कर मन अनायास पवित्रता से भर जाता है। माँ की उपासना से हमारी आत्मा को ढाँकने-ढाँपने वाला कुहासा कुछ-कुछ ही सही हटता है। नवरात्रि के पर्व की खासियत यही है कि समग्र भारतीय मन समेकित रूप में माँ के द्वार-दरबार पर आ खड़ा होता है।

सभी की कोशिश रहती है, अपने अनादि और आदि को देखने की, अपनी अनन्त जीवन यात्रा को आगे बढ़ाने की। जिसमें कुछ भी पुराना नहीं होता, नित्य नया-नया घटित होता रहता है। माँ की शक्ति के प्रभाव से बीज और वृक्ष का चक्र यूँ ही चलता रहता है। जीवन चक्र का कोई भी सत्य हो, सबमें बीज अवधारणा में है। बीज का अंकुरण, उसका पौधा बनना, तना बनना, फूल बनना, फल बनना और फिर बीज बन जाना। समूचा वृक्ष फिर से बीज में समा जाता है। अपनी नयी पूर्णता पाने के लिए। यही है चिर पुरातन, किन्तु नित्य नूतन सृष्टि का सनातन क्रम। इस सबका मूल, अनादि और आदि है ‘माँ’। मनुष्य के ही नहीं सृष्टि के अन्तर्बाह्य में मातृत्व का वास है।

माँ को केन्द्र में रखकर नवरात्रि के उत्सव का उल्लास छाता है। गली-गली में मेला जुड़ता है। इन मेलों का भी अपना एक खास कोमल मन होता है। मानव मन में समायी भाव संवेदना की अभिव्यक्ति होता है, मेला और मिलन। हमारे देश के मनीषियों ने चेताया है कि अलग-अलग आयु, लिंग और योग्यता के लोग मेले में मिलते हैं तो वे गिने जाने के लिए नहीं, अपनी किसी तोल, भाव के लिए नहीं, अलग से पहचान के लिए नहीं, वे भाव रूप में एक होने के लिए होते हैं। सबकी अलग-अलग मनौतियाँ होती हैं, सब अलग-अलग आए होते हैं, लेकिन माँ के द्वार पर सबका मिलन-मेला महान् माँगल्यमय होता है। विषम होते हुए भी सब एक क्षण के लिए सम हो जाते हैं।

🌹 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12


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