वासनाओं की पूर्ति क्षण भर के लिए होती है दूसरे की क्षण दूने वेग से फिर उभर आती है। उसकी पूर्ति में प्रसन्नता अनुभव करना ऐसा ही है जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाते हुए अपना ही जबड़ा घायल कर लेता है और उससे टपकने वाले खून को सूखी हड्डी का रस मानता है। चटोरपन और कामुकता की ललक को पूरी करने का प्रयत्न ठीक इस मूर्ख कुत्ते के समान है जो अपना ही जबड़ा घायल करता जाता है और लाभ कमाने की बात सोचता है। दाद खुजाकर अपने को लहू-लुहान कर लेने की तरह ही विषयासक्ति है। उससे मनुष्य अपनी ही जीवनी शक्ति को निचोड़ता और खोखला होकर बेमौत मरता है।
लोभ, मोह और अहंकार, वासना, तृष्णा और बड़प्पन यही विडम्बनाएँ आदि से अन्त तक मनुष्य के सिर पर भूत-पलीत की तरह चढ़ी रहती हैं और गहरे नशे की तरह विचारशीलता को कुँठित किये रहती हैं।
मन को समझाया जाना चाहिए कि जीवन सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है वह अमानत के रूप में किसी महान प्रयोजन के लिए मिला है। इसे इस उपहासास्पद ढंग से न गँवाया जाये, जिससे समय निकल जाने पर पश्चात्ताप ही शेष रहे। शरीर की वास्तविक आवश्यकताएँ थोड़े से श्रम व समय में पूरी की जा सकती है फिर उन्हीं को बढ़ाते रहने और न पूरी हो सकने वाली विडंबनाएं रचने से क्या लाभ?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1986 पृष्ठ 4
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1986/February/v1.4
लोभ, मोह और अहंकार, वासना, तृष्णा और बड़प्पन यही विडम्बनाएँ आदि से अन्त तक मनुष्य के सिर पर भूत-पलीत की तरह चढ़ी रहती हैं और गहरे नशे की तरह विचारशीलता को कुँठित किये रहती हैं।
मन को समझाया जाना चाहिए कि जीवन सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है वह अमानत के रूप में किसी महान प्रयोजन के लिए मिला है। इसे इस उपहासास्पद ढंग से न गँवाया जाये, जिससे समय निकल जाने पर पश्चात्ताप ही शेष रहे। शरीर की वास्तविक आवश्यकताएँ थोड़े से श्रम व समय में पूरी की जा सकती है फिर उन्हीं को बढ़ाते रहने और न पूरी हो सकने वाली विडंबनाएं रचने से क्या लाभ?
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