आध्यात्मिक साधना की सफलता के लिए सबसे पहला एवं अनिवार्य कदम “इन्द्रिय निग्रह” है। यों ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं, पर उनमें से दो ही प्रधान हैं पहली- स्वादेन्द्रिय और दूसरी कामेन्द्रिय। इनमें से स्वादेन्द्रिय प्रधान है। उसके वश में आने से कामेन्द्रिय भी वश में आ जाती है। रसना को जिसने जीता, वह विषय वासना पर भी अंकुश रख सकेगा। चटोरा आदमी ब्रह्मचर्य से नहीं रह सकता, उसे सभी इन्द्रियाँ परेशान करती हैं, विशेष रूप से काम वासना तो काबू में आता ही नहीं। इसलिए इन्द्रिय-निग्रह की तपश्चर्या संयम, साधना, स्वाद को, जिव्हा को वश में करके आरंभ की जाती है। चटोरेपन की वेदी पर न केवल आरोग्य और दीर्घ जीवन बलि चढ़ जाता है, वरन् आत्मसंयम की साधना भी मात्र मखौल बनकर रह जाती है।
संयमी और सदाचारी ही प्राणवान, शक्तिवान, स्वस्थ एवं संस्कारी बनते तथा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी एवं मनस्वी होने का अर्थ है मन, वचन तथा कर्म से सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना। ब्रह्मचर्य इसे ही कहा जाता है। इसका पालन न तो कठिन है न असंभव। आवश्यकता मात्र ऊर्ध्वरेता बनने और ऊंचा उठने की आकाँक्षा की है। इस संबंध में महात्मा गाँधी का कहना है कि आत्म संयम की साधना करने वाले को सर्वप्रथम अपनी रसना को वश में रखना अनिवार्य है। इसके लिए स्वाद नियंत्रण परमावश्यक है।
अपनी वासनाओं पर काबू रखना, उन्हें कुमार्ग पर न जाने देना मनुष्य के शौर्य, पराक्रम एवं पुरुषार्थ का प्रधान चिन्ह है। मनः क्षेत्र में कुहराम मचाने वाली उत्तेजनाएँ, आवेश, असंतुलन एवं विकार इन्द्रियों के असंयम के ही परिणाम होते हैं। जब तक स्वाद या चटोरेपन के वशीभूत हो स्वादेन्द्रिय पेट पर अत्याचार करती रहेंगी, तब तक इन विकारों से छुटकारा पाना संभव नहीं।
संयमी और सदाचारी ही प्राणवान, शक्तिवान, स्वस्थ एवं संस्कारी बनते तथा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी एवं मनस्वी होने का अर्थ है मन, वचन तथा कर्म से सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना। ब्रह्मचर्य इसे ही कहा जाता है। इसका पालन न तो कठिन है न असंभव। आवश्यकता मात्र ऊर्ध्वरेता बनने और ऊंचा उठने की आकाँक्षा की है। इस संबंध में महात्मा गाँधी का कहना है कि आत्म संयम की साधना करने वाले को सर्वप्रथम अपनी रसना को वश में रखना अनिवार्य है। इसके लिए स्वाद नियंत्रण परमावश्यक है।
अपनी वासनाओं पर काबू रखना, उन्हें कुमार्ग पर न जाने देना मनुष्य के शौर्य, पराक्रम एवं पुरुषार्थ का प्रधान चिन्ह है। मनः क्षेत्र में कुहराम मचाने वाली उत्तेजनाएँ, आवेश, असंतुलन एवं विकार इन्द्रियों के असंयम के ही परिणाम होते हैं। जब तक स्वाद या चटोरेपन के वशीभूत हो स्वादेन्द्रिय पेट पर अत्याचार करती रहेंगी, तब तक इन विकारों से छुटकारा पाना संभव नहीं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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