मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १

भूमिका 

प्रसन्नता, आनंद और संतोष की प्राप्ति के लिए लोग संसार को छान डालते हैं, इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, वस्तुओं के संग्रह की धूम मचा देते हैं तथा अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, इतने पर भी अभीष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती। सारे कष्ट साध्य प्रयास निरर्थक चले जाते हैं, मनुष्य प्यासे का प्यासा रह जाता है।

कारण यह है कि उल्लास का उद्गम अपनी आत्मा है, संसार की किसी वस्तु में वह उपलब्ध नहीं हो सकता। जब तक यह तथ्य समझ में नहीं आता, तब तक बालू से तेल निकालने की तरह आनंद प्राप्ति के प्रयास निष्फल ही रहते हैं। जब हम यह समझ लेते हैं कि आनंद का स्रोत अपने अंदर है और उसे अपने अंदर से ही ढूँढ निकालना होगा, तब सीधा रास्ता मिल जाता है।

आंतरिक सद्वृत्तियों को विकसित करके आंतरिक उल्लास को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? बिना' भौतिक वस्तुओं का संचय किए किस प्रकार हम हर घड़ी आनन्द में सरावोर रह सकते हैं? यह तथ्य इस पुस्तक में बताया गया है। आशा है कि पाठक इससे लाभ उठावेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २

👉 भक्तिगाथा (भाग १०५)

अनिर्वचनीय है प्रेम 

‘अनिवर्चनीयं प्रेमस्वरूपम्’॥ ५१॥ 
प्रेम का स्वरूप अनिवर्चनीय है। 

‘‘सत्य कहा आपने देवर्षि।’’ ब्रह्मर्षि ने बड़े ही कृतज्ञ स्वरों में कहा- ‘‘आपका यह सूत्र अलौकिक है और इस अलौकिकता का मैं साक्षी रहा हूँ। ऋषि कहोड़ की प्रेममयी साधना ने स्वयं आदिशक्ति माता गायत्री को प्रेममय बना दिया है। इनके प्रेम के सम्मुख भावमयी माता कितनी ही बार विकल, विवश एवं विह्वल हुई हैं। कितनी ही बार उन्होंने अपनी इन अद्भुत सन्तान के निहोरे किए हैं- कुछ तो ले लो पुत्र। अपने लिए न सही मेरा मान रखने के लिए ही सही। पर हर बार माता के परम भक्त कहोड़ बस विकल हो बिलख दिए। बहुत हुआ तो रूंधे स्वरों में बस इतना कह दिया- क्या माँ मुझे अपने से अलग समझती हैं अथवा मैं कुछ ज्यादा बड़ा हो गया, जो वह मुझे कुछ देना चाहती हैं। तब अन्त में जगन्माता ने इन्हें देने का एक ऐसा उपाय सोचा जो इन महान ऋषि की ही भांति अनूठा था।’’ 

‘‘वह क्या?’’ अनेकों स्वर एक साथ मुखर हुए। इन स्वरों को सुनकर विश्वामित्र की आँखें भीग आयीं। उन्होंने कहा- ‘‘यह ऐसा वरदान है, जो इतने कठिन तप के बाद मुझे भी कभी सुलभ नहीं हुआ।’’ ‘‘ऐसा क्या अनूठा वरदान मिला है महर्षि?’’ सुनने वालों की जिज्ञासा की त्वरा बरबस ही होठों पर आ गयी। तब ब्रह्मर्षि ने कहा- ‘‘कोई विश्वास करे या न करे पर यह सच है कि माता गायत्री एक सामान्य नारी और एक माँ की भाँति अपने स्वयं के हाथों से भोजन बनाकर इन परम तेजस्वी महर्षि कहोड़ को अपने हाथों से खिलाती हैं।’’

‘‘आश्चर्य!’’ सुनने वालों के अनेक कण्ठों से एक साथ निकला। ‘‘जो समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों एवं निधियों की स्वामिनी हैं, उन राजराजेश्वरी का एक रूप यह भी है।’’ इसे सुनकर ऋषि कहोड़ ने भाव भीगे स्वरों में कहा- ‘‘वे किसी के लिए कुछ भी हों, पर मेरी सिर्फ माँ हैं।’’ 

‘‘अवश्य महर्षि’’, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘यही तो भक्ति है जिसने समस्त सृष्टिचक्र को अपने संकेत मात्र से चलाने वाली जगन्माता को भी विवश कर रखा है। सचमुच ही भक्ति का सार तत्त्व सिर्फ प्रेम है। ऐसा प्रेम जिसका बखान स्वयं सरस्वती भी सम्भवतः न कर सकें। यह ऐसा रूपान्तरण है, जो भक्ति के अंकुरित होते ही होने लगता है। जिसके गीत कुछ यूं गाये जा सकते हैं-

जो अन्तर की आग, अधर पर
आकर वही पराग बन गयी
पांखों का चापल्य सहज ही
आँखों का आकाश बन गया।
फूटा कली का भाग्य, सुमन का
साहसपूर्ण विकास बन गया
अवचेतन में छुपा अंधेरा
चेतन का पूर्ण प्रकाश बन गया।
द्वन्द्व लीन मानस का मधु छल
प्राणों का विश्वास बन गया
घृणा-वैर का छिपा कुंहासा
भक्ति-प्रेम का ज्वार बन गया।
स्व की जड़ता स्वयं से
बदल कर देखो परम विवेक बन गया।
जो अभेद है अनायास वह
भाषित होकर भेद बन गया
सप्तम चक्र तक पहुँच चेतना
कोमल भक्ति सुगीत बन गयी
जो अन्तर की आग, अधर पर
आकर वही पराग बन गयी।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०७

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...