शुक्रवार, 18 नवंबर 2016
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 22)
🌹 अशिक्षा का अन्धकार दूर किया जाय
🔵 जीवन को सुविकसित करने के लिए जिस मानसिक विकास की आवश्यकता है उसके लिए ‘शिक्षा’ की भारी आवश्यकता होती है। माना कि शिक्षा प्राप्त करके भी कितने ही लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। इस बुराई के रहते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि मानसिक विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। ज्ञान का प्रकाश अन्तरात्मा में शिक्षा के अध्ययन से ही पहुंचता है। भौतिक विकास के लिये भी शिक्षा की आवश्यकता अनिवार्य रूप से अनुभव की जाती है। खेद की बात है कि देश में अभी तक चौथाई जनता भी साक्षर नहीं हो पाई है। युग-परिवर्तन के लिए साक्षरता को एक अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए पूरे उत्साह से हमें ज्ञान यज्ञ का आयोजन करना चाहिये और देशव्यापी साक्षरता के लिए ऐसा प्रबल प्रयत्न करना चाहिए कि कोई वयस्क व्यक्ति निरक्षर न रहे। इस सम्बन्ध में दस कार्य-क्रम नीचे प्रस्तुत हैं—
🔴 21. बच्चों को स्कूल भिजवाया जाय— जो बच्चे स्कूल जाने लायक हैं उन्हें पाठशालाओं में भिजवाने के लिए उनके अभिभावकों को सहमत करना चाहिए। जिन्होंने पढ़ना छोड़ दिया है उन्हें फिर पाठशाला में प्रवेश करने या प्राइवेट पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये। वयस्कों को इसके लिए तैयार किया जाय कि वे प्रौढ़ पाठशालाओं में पढ़ने लगें। परिवार के साक्षर लोग मिलकर अपने घर की नारियों या अन्य अशिक्षितों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए उन्हें पढ़ने के लिये रजामन्द करें।
🔵 22. शिक्षितों की पत्नी अशिक्षित न रहें— शिक्षितों को इसके लिये तैयार किया जाय कि वे अपने घर के निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए उन्हें समझावें, सहमत करें, और पढ़ाने के लिये स्वयं नियमित रूप से समय निकालें। स्त्रियां अधिकांश घरों में अशिक्षित या स्वल्प शिक्षित होती हैं। शिक्षित पतियों का परम पवित्र धर्म-कर्तव्य यह है कि पत्नी को सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी बनाने के लिए उन्हें शिक्षित बनाने का प्रयत्न करें। स्वयं न पढ़ा सकें तो दूसरे माध्यम से उनकी पढ़ाई का प्रबन्ध करें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 जीवन को सुविकसित करने के लिए जिस मानसिक विकास की आवश्यकता है उसके लिए ‘शिक्षा’ की भारी आवश्यकता होती है। माना कि शिक्षा प्राप्त करके भी कितने ही लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। इस बुराई के रहते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि मानसिक विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। ज्ञान का प्रकाश अन्तरात्मा में शिक्षा के अध्ययन से ही पहुंचता है। भौतिक विकास के लिये भी शिक्षा की आवश्यकता अनिवार्य रूप से अनुभव की जाती है। खेद की बात है कि देश में अभी तक चौथाई जनता भी साक्षर नहीं हो पाई है। युग-परिवर्तन के लिए साक्षरता को एक अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए पूरे उत्साह से हमें ज्ञान यज्ञ का आयोजन करना चाहिये और देशव्यापी साक्षरता के लिए ऐसा प्रबल प्रयत्न करना चाहिए कि कोई वयस्क व्यक्ति निरक्षर न रहे। इस सम्बन्ध में दस कार्य-क्रम नीचे प्रस्तुत हैं—
🔴 21. बच्चों को स्कूल भिजवाया जाय— जो बच्चे स्कूल जाने लायक हैं उन्हें पाठशालाओं में भिजवाने के लिए उनके अभिभावकों को सहमत करना चाहिए। जिन्होंने पढ़ना छोड़ दिया है उन्हें फिर पाठशाला में प्रवेश करने या प्राइवेट पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये। वयस्कों को इसके लिए तैयार किया जाय कि वे प्रौढ़ पाठशालाओं में पढ़ने लगें। परिवार के साक्षर लोग मिलकर अपने घर की नारियों या अन्य अशिक्षितों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए उन्हें पढ़ने के लिये रजामन्द करें।
🔵 22. शिक्षितों की पत्नी अशिक्षित न रहें— शिक्षितों को इसके लिये तैयार किया जाय कि वे अपने घर के निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए उन्हें समझावें, सहमत करें, और पढ़ाने के लिये स्वयं नियमित रूप से समय निकालें। स्त्रियां अधिकांश घरों में अशिक्षित या स्वल्प शिक्षित होती हैं। शिक्षित पतियों का परम पवित्र धर्म-कर्तव्य यह है कि पत्नी को सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी बनाने के लिए उन्हें शिक्षित बनाने का प्रयत्न करें। स्वयं न पढ़ा सकें तो दूसरे माध्यम से उनकी पढ़ाई का प्रबन्ध करें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 8) 19 Nov
🌹 दृष्टिकोण का परिवर्तन
🔵 माली अपने ऊपर जिस बगीची की जिम्मेदारी लेता है उसे हरा भरा बनाने, सर सब्ज रखने का जी जान से प्रयत्न करता है। यही दृष्टिकोण एक सद् गृहस्थ का होना चाहिये। उसे अनुभव करना चाहिये कि परमात्मा ने इन थोड़े से पेड़ों को खींचने, खाद देने, संभालने और रखवाली करने का भार विशेष रूप से मुझे दिया है। यों तो समस्त समाज और समस्त जगत के प्रति हमारे कर्तव्य हैं, परन्तु इस छोटी बगीची का भार तो विशेष रूप से अपने ऊपर रखा हुआ है।
🔴 अपने परिवार के हर एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने, शिक्षित बनाने, सद्गुणी सदाचारी और चतुर बनने की पूरी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर समझते हुए, इसे ईश्वर को आज्ञा का पालन मानते हुए अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने परिवार के सदस्यों की सेवा की परमार्थ, पुण्य, लोक सेवा, ईश्वर पूजा से किसी प्रकार कम नहीं है।
🔵 स्वार्थ और परमार्थ का मूल बीज अपने मनोभाव, दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर है। यदि पत्नी के प्रति उसे अपनी नौकरानी, दासी, सम्पत्ति, भोग सामग्री समझ कर अपना मतलब गांठने, सेवायें लेने, शासन करने का भाव हो तो यह भाव ही स्वार्थ नरक, कलह, भार, दुख की ओर ले जाने वाला है। यदि उसे अपने उपवन का एक सुरम्य सरस वृक्ष समझ कर उसके प्रति सात्विक त्यागमय सेवा का, पुनीत उदारतामय प्रेम का भाव हो तो यह भाव ही दाम्पत्ति जीवन को, पत्नी सान्निध्य को परमार्थ, स्वर्ग, स्नेह और आनन्द का घर बनाया जा सकता है।
🔵 ‘‘देना कम लेना ज्यादा’’ यह नीति झगड़े की, पाप की कटुता की, नरक की जड़ है। ‘‘देना ज्यादा और लेना कम से कम’’ यह नीति—प्रेम, सहयोग, पुण्य और स्वर्ग की जननी है। बदला चाहने, लेने, स्वार्थ साधने, सेवा कराने की स्वार्थ दृष्टि से यदि पत्नी, पुत्र, पिता, भाई, माता, बुआ, बहिन को देखा जाय तो यह सभी बड़े स्वार्थी, खुदगर्ज, बुरे, रूखे, उपेक्षा करने वाले, उद्दंड दिखाई देंगे, उनमें एक से एक बड़ी बुराई दिखाई पड़ेगी और ऐसा लगेगा मानो गृहस्थ ही सारे दुखों, स्वार्थों और पापों का केन्द्र है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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🔵 माली अपने ऊपर जिस बगीची की जिम्मेदारी लेता है उसे हरा भरा बनाने, सर सब्ज रखने का जी जान से प्रयत्न करता है। यही दृष्टिकोण एक सद् गृहस्थ का होना चाहिये। उसे अनुभव करना चाहिये कि परमात्मा ने इन थोड़े से पेड़ों को खींचने, खाद देने, संभालने और रखवाली करने का भार विशेष रूप से मुझे दिया है। यों तो समस्त समाज और समस्त जगत के प्रति हमारे कर्तव्य हैं, परन्तु इस छोटी बगीची का भार तो विशेष रूप से अपने ऊपर रखा हुआ है।
🔴 अपने परिवार के हर एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने, शिक्षित बनाने, सद्गुणी सदाचारी और चतुर बनने की पूरी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर समझते हुए, इसे ईश्वर को आज्ञा का पालन मानते हुए अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने परिवार के सदस्यों की सेवा की परमार्थ, पुण्य, लोक सेवा, ईश्वर पूजा से किसी प्रकार कम नहीं है।
🔵 स्वार्थ और परमार्थ का मूल बीज अपने मनोभाव, दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर है। यदि पत्नी के प्रति उसे अपनी नौकरानी, दासी, सम्पत्ति, भोग सामग्री समझ कर अपना मतलब गांठने, सेवायें लेने, शासन करने का भाव हो तो यह भाव ही स्वार्थ नरक, कलह, भार, दुख की ओर ले जाने वाला है। यदि उसे अपने उपवन का एक सुरम्य सरस वृक्ष समझ कर उसके प्रति सात्विक त्यागमय सेवा का, पुनीत उदारतामय प्रेम का भाव हो तो यह भाव ही दाम्पत्ति जीवन को, पत्नी सान्निध्य को परमार्थ, स्वर्ग, स्नेह और आनन्द का घर बनाया जा सकता है।
🔵 ‘‘देना कम लेना ज्यादा’’ यह नीति झगड़े की, पाप की कटुता की, नरक की जड़ है। ‘‘देना ज्यादा और लेना कम से कम’’ यह नीति—प्रेम, सहयोग, पुण्य और स्वर्ग की जननी है। बदला चाहने, लेने, स्वार्थ साधने, सेवा कराने की स्वार्थ दृष्टि से यदि पत्नी, पुत्र, पिता, भाई, माता, बुआ, बहिन को देखा जाय तो यह सभी बड़े स्वार्थी, खुदगर्ज, बुरे, रूखे, उपेक्षा करने वाले, उद्दंड दिखाई देंगे, उनमें एक से एक बड़ी बुराई दिखाई पड़ेगी और ऐसा लगेगा मानो गृहस्थ ही सारे दुखों, स्वार्थों और पापों का केन्द्र है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 8) 19 Nov
🌹 समय का मूल्य पैसे से भी अधिक
🔵 अमीर साहूकारों की दिनचर्या पर ध्यान दें तो मालूम पड़ेगा कि समय काटने के लिए उनने भी एक टाइम टेबिल बना रखा है। थोड़ा-बहुत ही आगा-पीछा होता है कि कोई यार-दोस्त आ धमके तब, नहीं तो सबेरे से उठकर हाथ-मुंह धोने, हजामत बनाने, चाय पीने, अखबार पढ़ने, भोजन करके विश्राम के लिये चले जाने, उठने पर चाय पीने, ताश खेलने, रात का टी.वी. देखने, दस बजे भोजन करने और सवेरे आठ बजे तक का बना-बनाया कार्यक्रम रहता है। यार-दोस्तों के आ धमकने पर जो काम अकेले करते थे वह कइयों द्वारा मिल-जुलकर होने लगता है। कभी-कभी इसमें सैर-सपाटा भी शामिल हो जाता है। पूछने पर वे भी अपने को व्यस्त बताते हैं।
🔴 स्त्रियों में ढेरों ऐसी होती हैं जिनके जिम्मे दोनों समय की रसोई होती है—दो-तीन आदमियों की। इसको भी वे लापरवाही से इस तरह करती हैं कि सारा दिन उसी में घूम जाता है। कहने को वे भी यही कहती हैं कि दिनभर लगे रहते हैं, फुरसत ही नहीं मिलती।
🔵 समय काटने के लिए कोई भी इससे मिलता-जुलता कार्यक्रम बना सकता है। शरीर यात्रा अपने आप में एक काम है। बाजार जाकर घर की चीजें खरीदना भी ढेरों समय ले जाता है। ऐसी दशा में किसी महत्वपूर्ण काम के लिए समय निकालना मुश्किल है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 अमीर साहूकारों की दिनचर्या पर ध्यान दें तो मालूम पड़ेगा कि समय काटने के लिए उनने भी एक टाइम टेबिल बना रखा है। थोड़ा-बहुत ही आगा-पीछा होता है कि कोई यार-दोस्त आ धमके तब, नहीं तो सबेरे से उठकर हाथ-मुंह धोने, हजामत बनाने, चाय पीने, अखबार पढ़ने, भोजन करके विश्राम के लिये चले जाने, उठने पर चाय पीने, ताश खेलने, रात का टी.वी. देखने, दस बजे भोजन करने और सवेरे आठ बजे तक का बना-बनाया कार्यक्रम रहता है। यार-दोस्तों के आ धमकने पर जो काम अकेले करते थे वह कइयों द्वारा मिल-जुलकर होने लगता है। कभी-कभी इसमें सैर-सपाटा भी शामिल हो जाता है। पूछने पर वे भी अपने को व्यस्त बताते हैं।
🔴 स्त्रियों में ढेरों ऐसी होती हैं जिनके जिम्मे दोनों समय की रसोई होती है—दो-तीन आदमियों की। इसको भी वे लापरवाही से इस तरह करती हैं कि सारा दिन उसी में घूम जाता है। कहने को वे भी यही कहती हैं कि दिनभर लगे रहते हैं, फुरसत ही नहीं मिलती।
🔵 समय काटने के लिए कोई भी इससे मिलता-जुलता कार्यक्रम बना सकता है। शरीर यात्रा अपने आप में एक काम है। बाजार जाकर घर की चीजें खरीदना भी ढेरों समय ले जाता है। ऐसी दशा में किसी महत्वपूर्ण काम के लिए समय निकालना मुश्किल है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 32)
🌞 तीसरा अध्याय
🔴 तुम्हें यह भ्रम न करना चाहिए कि हम किसी मन की निन्दा और किसी की स्तुति करते हैं और भार या बाधक सिद्घ करते हैं। बात ऐसी नहीं है। हम सोचते तो यह हैं कि मन की सहायता से ही तुम अपनी वास्तविक सत्ता और आत्म-ज्ञान के निकट पहुँचे हो और आगे भी बहुत दूर तक उसकी सहायता से अपना मानसिक विकास कर सकोगे इसलिए मन का प्रत्येक विभाग अपने स्थान पर बहुत अच्छा है, बशर्ते कि उसका ठीक उपयोग किया जाए।
🔵 साधारण लोग अब तक मन के निम्न भागों को ही उपयोग में लाते हैं, उनके मानस-लोक में अभी ऐसे असंख्य गुप्त प्रकट स्थान हैं जिनकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकी है अतएव मन को कोसने के स्थान पर आचार्य लोग दीक्षितों को सदैव यह उपदेश देते हैं कि उस गुप्त शक्ति को त्याज्य न ठहराकर ठीक प्रकार से क्रियाशील बनाओ।
🔴 यह शिक्षा जो तुम्हें दी जा रही है मन के द्वारा ही क्रिया रूप में आ सकती है और उसी के द्वारा समझने, धारण करने एवं सफल होने का कार्य हो सकता है इसलिए हम सीधे तुम्हारे मन से बात कर रहे हैं, उसी से निवेदन कर रहे हैं कि महोदय! अपनी उच्च कक्षा से आने वाले ज्ञान को ग्रहण कीजिए और उसके लिए अपना द्वार खोल दीजिए। हम आपकी बुद्घि से प्रार्थना करते हैं- भगवती! अपना ध्यान उस महातत्त्व की ओर लगाइए और सत्य के अनुभवी, अपने आध्यात्मिक मन द्वारा आने वाली दैवी चेतनाओं में कम बाधा दीजिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.2
🔴 तुम्हें यह भ्रम न करना चाहिए कि हम किसी मन की निन्दा और किसी की स्तुति करते हैं और भार या बाधक सिद्घ करते हैं। बात ऐसी नहीं है। हम सोचते तो यह हैं कि मन की सहायता से ही तुम अपनी वास्तविक सत्ता और आत्म-ज्ञान के निकट पहुँचे हो और आगे भी बहुत दूर तक उसकी सहायता से अपना मानसिक विकास कर सकोगे इसलिए मन का प्रत्येक विभाग अपने स्थान पर बहुत अच्छा है, बशर्ते कि उसका ठीक उपयोग किया जाए।
🔵 साधारण लोग अब तक मन के निम्न भागों को ही उपयोग में लाते हैं, उनके मानस-लोक में अभी ऐसे असंख्य गुप्त प्रकट स्थान हैं जिनकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकी है अतएव मन को कोसने के स्थान पर आचार्य लोग दीक्षितों को सदैव यह उपदेश देते हैं कि उस गुप्त शक्ति को त्याज्य न ठहराकर ठीक प्रकार से क्रियाशील बनाओ।
🔴 यह शिक्षा जो तुम्हें दी जा रही है मन के द्वारा ही क्रिया रूप में आ सकती है और उसी के द्वारा समझने, धारण करने एवं सफल होने का कार्य हो सकता है इसलिए हम सीधे तुम्हारे मन से बात कर रहे हैं, उसी से निवेदन कर रहे हैं कि महोदय! अपनी उच्च कक्षा से आने वाले ज्ञान को ग्रहण कीजिए और उसके लिए अपना द्वार खोल दीजिए। हम आपकी बुद्घि से प्रार्थना करते हैं- भगवती! अपना ध्यान उस महातत्त्व की ओर लगाइए और सत्य के अनुभवी, अपने आध्यात्मिक मन द्वारा आने वाली दैवी चेतनाओं में कम बाधा दीजिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.2
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