सोमवार, 14 नवंबर 2016
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 18)
🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम
🔵 14. गन्दगी का निराकरण— सार्वजनिक सफाई का प्रश्न सरकार के हाथों छोड़ देने से ही काम न चलेगा। लोगों को अपनी गन्दी आदतें छोड़ने के लिये और सार्वजनिक सफाई में दिलचस्पी लेने की प्रवृत्ति पैदा करनी पड़ेगी। बच्चों को घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर एवं नालियों पर टट्टी करने बिठा देना, सड़कों तथा गलियों पर घर का कूड़ा बखेर देना, धर्मशालाओं में, प्लेटफार्मों, रेल के डिब्बों और सार्वजनिक स्थानों को फलों के छिलके तथा नाक-थूक, रद्दी कागज, दौने, पत्तल आदि डाल कर गन्दा करना बुरी आदतें हैं, इससे बीमारी और गन्दगी फैलती है।
🔴 देहातों में टट्टी-पेशाब के लिए उचित स्थानों की व्यवस्था नहीं होती। गांव के निकटवर्ती स्थानों तथा गली कूचों में इस प्रकार की गन्दगी फैलती है। जिन कुएं तालाबों का पानी पीने के काम आता है वहां गन्दगी नहीं रोकी जाती। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। लकड़ी के बने इधर से उधर रखे जाने वाले शौचालय यदि देहातों में काम आने लगें तो खेती को खाद भी मिले, गन्दगी भी न फैले और बेपर्दगी भी न हों।
🔵 खुरपी लेकर शौच जाना और गड्ढा खोद कर उसमें शौच करने के उपरान्त मिट्टी डालने की आदत पड़ जाय तो भी ग्रामीण जीवन में बहुत शुद्धि रहे। गड्ढे खोदकर उसमें कंकड़ पत्थर के टुकड़े डाल कर सोखने वाले पेशाब घर बनाये जांय और उनमें चूना फिनायल पड़ता रहे तो जहां-तहां पेशाब करने से फैलने वाली बीमारियों की बहुत रोकथाम हो सकती है। इसी प्रकार पशुओं के मलमूत्र की सफाई की भी उचित व्यवस्था रहे तो आधे रोगों से छुटकारा मिल सकता है। सार्वजनिक गन्दगी की समस्या देखने में तुच्छ प्रतीत होने पर भी वस्तुतः बहुत बड़ी है। लोकसेवकों को जनता की आदतें बदलने के लिये इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ करना ही होगा, अन्यथा बढ़ते हुए रोग घट न सकेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 14. गन्दगी का निराकरण— सार्वजनिक सफाई का प्रश्न सरकार के हाथों छोड़ देने से ही काम न चलेगा। लोगों को अपनी गन्दी आदतें छोड़ने के लिये और सार्वजनिक सफाई में दिलचस्पी लेने की प्रवृत्ति पैदा करनी पड़ेगी। बच्चों को घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर एवं नालियों पर टट्टी करने बिठा देना, सड़कों तथा गलियों पर घर का कूड़ा बखेर देना, धर्मशालाओं में, प्लेटफार्मों, रेल के डिब्बों और सार्वजनिक स्थानों को फलों के छिलके तथा नाक-थूक, रद्दी कागज, दौने, पत्तल आदि डाल कर गन्दा करना बुरी आदतें हैं, इससे बीमारी और गन्दगी फैलती है।
🔴 देहातों में टट्टी-पेशाब के लिए उचित स्थानों की व्यवस्था नहीं होती। गांव के निकटवर्ती स्थानों तथा गली कूचों में इस प्रकार की गन्दगी फैलती है। जिन कुएं तालाबों का पानी पीने के काम आता है वहां गन्दगी नहीं रोकी जाती। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। लकड़ी के बने इधर से उधर रखे जाने वाले शौचालय यदि देहातों में काम आने लगें तो खेती को खाद भी मिले, गन्दगी भी न फैले और बेपर्दगी भी न हों।
🔵 खुरपी लेकर शौच जाना और गड्ढा खोद कर उसमें शौच करने के उपरान्त मिट्टी डालने की आदत पड़ जाय तो भी ग्रामीण जीवन में बहुत शुद्धि रहे। गड्ढे खोदकर उसमें कंकड़ पत्थर के टुकड़े डाल कर सोखने वाले पेशाब घर बनाये जांय और उनमें चूना फिनायल पड़ता रहे तो जहां-तहां पेशाब करने से फैलने वाली बीमारियों की बहुत रोकथाम हो सकती है। इसी प्रकार पशुओं के मलमूत्र की सफाई की भी उचित व्यवस्था रहे तो आधे रोगों से छुटकारा मिल सकता है। सार्वजनिक गन्दगी की समस्या देखने में तुच्छ प्रतीत होने पर भी वस्तुतः बहुत बड़ी है। लोकसेवकों को जनता की आदतें बदलने के लिये इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ करना ही होगा, अन्यथा बढ़ते हुए रोग घट न सकेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 4) 15 Nov
🔵 प्राचीन समय में अधिकांश ऋषि गृहस्थ थे। वशिष्ठ जी के सौ पुत्र थे, अत्रि जी की स्त्री अनुसूया थीं, गौतम की पत्नी अहिल्या थी, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे, च्यवन की स्त्री सुकन्या थी, याज्ञवल्क्य की दो स्त्री गार्गी और मैत्रेयी थी, लोमश के पुत्र श्रृंगी ऋषि थे। वृद्धावस्था में संन्यास ही लिया हो यह बात दूसरी है परन्तु प्राचीन काल में जितने भी ऋषि हुए हैं वे प्रायः सभी गृहस्थ रहे हैं। गृहस्थ में ही उन्होंने तप किये हैं और ब्रह्म निर्वाण पाया है। योगिराज कृष्ण और योगेश्वर दोनों को ही हम गृहस्थ रूप में देखते हैं। प्राचीन काल में बाल रखने, नंगे बदन रहने, खड़ाऊ पहनने, मृगछाला बिछाने का आत्म रिवाज था, घनी आबादी होने के कारण छोटे गांव और छोटी कुटिया होती थीं। इन चिह्नों के आधार पर गृहस्थ ऋषियों को गृहत्यागी मानना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है।
🔴 आत्मोन्नति करने के लिये गृहस्थ धर्म एक प्राकृतिक, स्वाभाविक, आवश्यक और सर्व सुलभ योग है। जब तक लड़का अकेला रहता है तब उसकी आत्म भावना का दायरा छोटा रहता है। वह अपने ही खाने, पहनने, पढ़ने, खेलने तथा प्रसन्न रहने की सोचता है। उसका कार्य क्षेत्र अपने आप तक ही सीमित रहता है। जब विवाह हो जाता है तो यह दायरा बढ़ता है, वह अपनी पत्नी की सुख सुविधाओं के बारे में सोचने लगता है, अपने सुख और मर्जी पर प्रतिबन्ध लगाकर पत्नी की आवश्यकतायें पूरी करता है, उसकी सेवा सहायता और प्रसन्नता में अपनी शक्तियों को खर्च करता है। कहने का तात्पर्य है कि आत्म भाव की सीमा बढ़ती है, एक से बढ़कर दो तक आत्मीयता फैलती है।
🔵 इसके बाद एक छोटे शिशु का जन्म होता है। इस बालक की सेवा शुश्रूषा और पालन पोषण में निस्वार्थ भाव में इतना मनोयोग लगता है कि अपनी निज सुख सुविधाओं का ध्यान मनुष्य भूल जाता है और बच्चे की सुविधा का ध्यान रखता है। इस प्रकार यह सीमा दो से बढ़कर तीन होती है। क्रमशः यह मर्यादा बढ़ती है। पिता कोई मधुर मिष्ठान्न लाता है तो उसे खुद नहीं खाता वरन् बच्चों को बांट देता है, खुद कठिनाई में रहकर भी बालकों की तंदुरुस्ती, शिक्षा और प्रसन्नता का ध्यान रखता है। दिन दिन खुदगर्जी के ऊपर अंकुश लगाता जाता है, आत्म संयम सीखता जाता है और स्त्री, पुत्र, सम्बन्धी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है। क्रमशः आत्मोन्नति की ओर चलता जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔴 आत्मोन्नति करने के लिये गृहस्थ धर्म एक प्राकृतिक, स्वाभाविक, आवश्यक और सर्व सुलभ योग है। जब तक लड़का अकेला रहता है तब उसकी आत्म भावना का दायरा छोटा रहता है। वह अपने ही खाने, पहनने, पढ़ने, खेलने तथा प्रसन्न रहने की सोचता है। उसका कार्य क्षेत्र अपने आप तक ही सीमित रहता है। जब विवाह हो जाता है तो यह दायरा बढ़ता है, वह अपनी पत्नी की सुख सुविधाओं के बारे में सोचने लगता है, अपने सुख और मर्जी पर प्रतिबन्ध लगाकर पत्नी की आवश्यकतायें पूरी करता है, उसकी सेवा सहायता और प्रसन्नता में अपनी शक्तियों को खर्च करता है। कहने का तात्पर्य है कि आत्म भाव की सीमा बढ़ती है, एक से बढ़कर दो तक आत्मीयता फैलती है।
🔵 इसके बाद एक छोटे शिशु का जन्म होता है। इस बालक की सेवा शुश्रूषा और पालन पोषण में निस्वार्थ भाव में इतना मनोयोग लगता है कि अपनी निज सुख सुविधाओं का ध्यान मनुष्य भूल जाता है और बच्चे की सुविधा का ध्यान रखता है। इस प्रकार यह सीमा दो से बढ़कर तीन होती है। क्रमशः यह मर्यादा बढ़ती है। पिता कोई मधुर मिष्ठान्न लाता है तो उसे खुद नहीं खाता वरन् बच्चों को बांट देता है, खुद कठिनाई में रहकर भी बालकों की तंदुरुस्ती, शिक्षा और प्रसन्नता का ध्यान रखता है। दिन दिन खुदगर्जी के ऊपर अंकुश लगाता जाता है, आत्म संयम सीखता जाता है और स्त्री, पुत्र, सम्बन्धी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है। क्रमशः आत्मोन्नति की ओर चलता जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 5)
🌹 समय का सदुपयोग करना सीखें
🔵 इस ‘कल’ से बचने के लिए सन्त कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है— ‘‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करेगा कब।’’ अर्थात् कल पर अपने काम को न टाल। जिन्हें आज करना हो वे अभी ही पूरा कर लें। स्मरण रखा जाना चाहिए कि प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम अपने सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व ही समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। मनीषी कहते हैं—‘‘बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा है और वे संसार में पीछे रह गये, अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में हरा दिये गये।’’
🔴 नेपोलियन ने आस्ट्रिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने उसका सामना करने में कुछ ही मिनटों की देर कर दी थी। लेकिन वहीं नेपोलियन वाटरलू के युद्ध में पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति ग्रुशी पांच मिनट विलम्ब से आया। इसी अवसर का सदुपयोग करके अंग्रेजों ने उसे कैद कर लिया। समय की उपेक्षा करने पर देखते-देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है। लाभ हानि में बदल जाता है।
🔵 समय की चूक पश्चात्ताप की हूक बन जाती है। जीवन में प्रगति की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने किसी भी कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायगा, जो निश्चित ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं जो काम हमें आज करने हैं, वह कल भी उतने ही महत्व के रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। परिस्थितियां क्षण-क्षण बदलती रहती हैं और पिछड़े कार्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 इस ‘कल’ से बचने के लिए सन्त कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है— ‘‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करेगा कब।’’ अर्थात् कल पर अपने काम को न टाल। जिन्हें आज करना हो वे अभी ही पूरा कर लें। स्मरण रखा जाना चाहिए कि प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम अपने सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व ही समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। मनीषी कहते हैं—‘‘बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा है और वे संसार में पीछे रह गये, अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में हरा दिये गये।’’
🔴 नेपोलियन ने आस्ट्रिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने उसका सामना करने में कुछ ही मिनटों की देर कर दी थी। लेकिन वहीं नेपोलियन वाटरलू के युद्ध में पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति ग्रुशी पांच मिनट विलम्ब से आया। इसी अवसर का सदुपयोग करके अंग्रेजों ने उसे कैद कर लिया। समय की उपेक्षा करने पर देखते-देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है। लाभ हानि में बदल जाता है।
🔵 समय की चूक पश्चात्ताप की हूक बन जाती है। जीवन में प्रगति की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने किसी भी कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायगा, जो निश्चित ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं जो काम हमें आज करने हैं, वह कल भी उतने ही महत्व के रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। परिस्थितियां क्षण-क्षण बदलती रहती हैं और पिछड़े कार्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 28)
🌞 दूसरा अध्याय
🔴 बार-बार समझ लो। प्राथमिक शिक्षा का बीज मंत्र 'मैं' है। इसका पूरा अनुभव करने के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकोगे। तुम्हें अनुभव करना होगा मेरी सत्ता शरीर से भिन्न है। अपने को सूर्य के समान शक्ति का एक महान् केन्द्र देखना होगा, जिसके इर्द-गिर्द अपना संसार घूम रहा है। इससे नवीन शक्ति आवेगी, जिसे तुम्हारे साथी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे। तुम स्वयं स्वीकार करोगे, अब मैं सुदृढ़ हूँ और जीवन की आँधियाँ मुझे विचलित नहीं कर सकतीं। केवल इतना ही नहीं इससे भी आगे है। अपनी उन्नति के आत्मिक विकास के साथ उस योग्यता को प्राप्त करता हुआ भी देखोगे जिसके द्वारा जीवन की आँधियों को शान्त किया जाता है और उन पर शासन किया जाता है।
🔵 आत्म-ज्ञानी दुनियाँ के भारी कष्टों की दशा में भी हँसता रहेगा और अपनी भुजा उठाकर कष्टों से कहेगा-'जाओ, चले जाओ, जिस अन्धकार से तुम उत्पन्न हुए हो उसी में विलीन हो जाओ।' धन्य है वह जिसने 'मैं' के बीज मंत्र को सिद्घ कर लिया है।
🔴 जिज्ञासुओ! प्रथम शिक्षा का अभ्यास करने के लिए अब हमसे अलग हो जाओ। अपनी मन्द-गति देखो, तो उतावले मत होओ। आगे चलने में यदि पाँव पीछे फिसल पड़े तो निराश मत होओ। आगे चलकर तुम्हें दूना लाभ मिल जाएगा। सिद्घि और सफलता तुम्हारे लिए है, वह तो प्राप्त होनी ही है। बढ़ो, शांति के साथ थोड़ा प्रयत्न करो।
इस पाठ के मंत्रः
मैं प्रतिभा और शक्ति का केन्द्र हूँ।
मैं विचार और शक्ति का केन्द्र हूँ।
मेरा संसार मेरे चारों ओर घूम रहा है।
मैं शरीर से भिन्न हूँ।
मैं अविनाशी हूँ, मेरा नाश नहीं हो सकता।
मैं अखण्ड हूँ, मेरी क्षति नहीं हो सकती।.........
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part2.6
🔴 बार-बार समझ लो। प्राथमिक शिक्षा का बीज मंत्र 'मैं' है। इसका पूरा अनुभव करने के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकोगे। तुम्हें अनुभव करना होगा मेरी सत्ता शरीर से भिन्न है। अपने को सूर्य के समान शक्ति का एक महान् केन्द्र देखना होगा, जिसके इर्द-गिर्द अपना संसार घूम रहा है। इससे नवीन शक्ति आवेगी, जिसे तुम्हारे साथी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे। तुम स्वयं स्वीकार करोगे, अब मैं सुदृढ़ हूँ और जीवन की आँधियाँ मुझे विचलित नहीं कर सकतीं। केवल इतना ही नहीं इससे भी आगे है। अपनी उन्नति के आत्मिक विकास के साथ उस योग्यता को प्राप्त करता हुआ भी देखोगे जिसके द्वारा जीवन की आँधियों को शान्त किया जाता है और उन पर शासन किया जाता है।
🔵 आत्म-ज्ञानी दुनियाँ के भारी कष्टों की दशा में भी हँसता रहेगा और अपनी भुजा उठाकर कष्टों से कहेगा-'जाओ, चले जाओ, जिस अन्धकार से तुम उत्पन्न हुए हो उसी में विलीन हो जाओ।' धन्य है वह जिसने 'मैं' के बीज मंत्र को सिद्घ कर लिया है।
🔴 जिज्ञासुओ! प्रथम शिक्षा का अभ्यास करने के लिए अब हमसे अलग हो जाओ। अपनी मन्द-गति देखो, तो उतावले मत होओ। आगे चलने में यदि पाँव पीछे फिसल पड़े तो निराश मत होओ। आगे चलकर तुम्हें दूना लाभ मिल जाएगा। सिद्घि और सफलता तुम्हारे लिए है, वह तो प्राप्त होनी ही है। बढ़ो, शांति के साथ थोड़ा प्रयत्न करो।
इस पाठ के मंत्रः
मैं प्रतिभा और शक्ति का केन्द्र हूँ।
मैं विचार और शक्ति का केन्द्र हूँ।
मेरा संसार मेरे चारों ओर घूम रहा है।
मैं शरीर से भिन्न हूँ।
मैं अविनाशी हूँ, मेरा नाश नहीं हो सकता।
मैं अखण्ड हूँ, मेरी क्षति नहीं हो सकती।.........
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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