ईश्वर और परलोक आदि के मानने की बात मुँह से न कहिये। जीवन से न कहकर मुँह से कहना अपने को और दुनिया को धोखा देना है। हममें से अधिकांश ऐसे धोखेबाज ही हैं। इसलिये हम कहा करते है कि हजार में नौ- सौ निन्यानवे व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते। मानते होते तो जगत में पाप दिखाई न देता।
अगर हम ईश्वर को मानते तो क्या अँधेरे में पाप करते ? समाज या सरकार की आँखों में धूल झोंकते? उस समय क्या यह न मानते कि ईश्वर की आँखों में धूल नहीं झोंकी गई? हममें से कितने आदमी ऐसे हैं जो दूसरों को धोखा देते समय यह याद रखते हों कि ईश्वर की आँखें सब देख रही हैं ? अगर हमारे
जीवन में यह बात नहीं है, तो ईश्वर की दुहाई देकर दूसरों से झगड़ना हमें
शोभा नहीं देता।
धर्म तत्त्व का दर्शन एवं मर्म (53)- 2.70