शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

👉 कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं है

एक धनी व्यक्ति ने सुन रखा था कि भागवत पुराण सुनने से मुक्ति हो जाती है। राजा परीक्षित को इसी से मुक्ति हुई थी। उसने एक पंडित जी को भगवान की कथा सुनाने को कहा। कथा पूरी हो गई पर उस व्यक्ति के मुक्ति के कोई लक्षण नजर न आये। उसने पंडित जी से इसका कारण पूछा- पंडित जी ने लालच वश उत्तर दिया। यह कलियुग है इसमें चौथाई पुण्य होता है। चार बार कथा सुनो तो एक कथा की बराबर पुण्य होगा। धनी ने तीन कथा की दक्षिणा पेशगी दे दी और कथाऐं आरम्भ करने को कहा। वे तीनों भी पूरी हो गई पर मुक्ति का कोई लक्षण तो भी प्रतीत न हुआ। इस पर कथा कहने और सुनने वाले में कहासुनी होने लगी।

विवाद एक उच्च कोटि के महात्मा के पास पहुँचा। उसने दोनों को समझाया कि केवल बाह्य क्रिया से नहीं आन्तरिक स्थिति के आधार पर पुण्य फल मिलता है। राजा परीक्षित मृत्यु को निश्चित जान संसार से वैराग्य लेकर आत्म कल्याण में मन लगाकर कथा सुन रहा था। वीतराग शुकदेव जी भी पूर्ण निर्लोभ होकर परमार्थ की दृष्टि से कथा सुना रहे थे। दोनों की अन्तःस्थिति ऊँची थी इसलिए उन्हें वैसा ही फल मिला। तुम दोनों लोभ मोह में डूबे हो। जैसे कथा कहने वाले वैसे सुनने वाले, इसलिए तुम लोगों को पुण्य तो मिलेगा पर वह थोड़ा ही होगा। परीक्षित जैसी स्थिति न होने के कारण वैसे फल की भी तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिए।

आत्म कल्याण के लिए बाह्य कर्मकाण्ड से ही काम नहीं चलता। उसके लिए उच्च भावनायें होना भी आवश्यक है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1961 जून Page 18

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👉 अध्यात्म का उपदेश

प्रसन्नता, अप्रसन्नता, आत्मरक्षा, संघर्ष, जिज्ञासा, प्रेम, सामूहिकता, संग्रह, शरीर पोषण, क्रीड़ा, महत्व प्रदर्शन, भोगेच्छा यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है। शरीर और मन परिस्थितियों के अनुसार इन परिस्थितियों के क्षेत्र में विचरण करते रहते है। उसकी एक अध्यात्मिक विशेषता भी है जिसे महानता, धार्मिकता, आस्तिकता, दैवी सम्पदा आदि नामों से पुकारते है। उसके द्वारा मनुष्य दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने आपको कष्ट में डाल कर भी प्रसन्नता अनुभव करता है। दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख मानता है। जिस प्रकार अपने सुख को बढ़ाकर और दुःख को घटाकर प्रसन्नता का अनुभव होता है इसी प्रकार दूसरों में आत्मीयता का आरोपण करके उनके हित साधन में भी संतोष और सुख का अनुभव होता है।

यह उदारता एवं सेवा की वृत्ति तभी प्रस्फुटित होती है जब मनुष्य अपने आपको संयमित करता है। अपने लिए सीमित लाभ में संतोष करने से ही दूसरों के प्रति कुछ उदारता प्रदर्शित करना संभव होता है। इसलिए इस सर्वतोमुखी संयम को नैतिकता या धर्म के नाम से पुकारा जाता है। इसी का अभ्यास करने के लिए नाना प्रकार के जप, तप, व्रत अनुष्ठान किये जाते है। शास्त्र श्रवण, स्वाध्याय और सत्संग का उद्देश्य भी इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित करना है। चरित्र निर्माण और नैतिकता भी इसी प्रक्रिया का नाम है। पुण्य, परमार्थ भी इसी को कहते है और स्वर्ग तथा मुक्ति इसके फल माने गये है। ईश्वर उपासना के महात्म्य से यह आत्म-निर्माण का कार्य अधिक सरलता से पूर्ण होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1961 जून Page 21


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👉 मन पर लगाम लगे तो कैसे? (भाग 2)

🔴  मन का वश में करने के अनेकानेक लाभ हैं। वह शक्तियों और विभूतियों का पुँज है। जिस काम में भी लगता है उसे जादुई ढंग से पूरा करके रहता है। कलाकार, वैज्ञानिक, सिद्धपुरुष, महामानव, सफल सम्पन्न सभी को वे लाभ मन की एकाग्रता, तन्मयता के आधार पर मिले हुए होते हैं। इस तथ्य को जानने वाले इस कल्पवृक्ष को दूर रखे रहना नहीं चाहते। इस दुधारू गाय को, तुर्की घोड़े को पालने का जी सभी का होता है। पर वह हाथ आये तब न?

🔵  आमतौर से कामुकता, जिह्वा स्वाद, सैर-सपाटे विलास वैभव, यश, सम्मान पाने की सभी की इच्छा होती है। उन्हीं को खोजने की मन कल्पनाएँ होती हैं। उन्हीं को खोजने की मन कल्पनाएँ करता और उड़ाने उड़ता रहता है। विकल्प जब दूसरा नहीं दिखता तो उसी कुचक्र में उलझे रहना पड़ता है। जहाज के मस्तूल पर बैठे कौवे को कोई और गन्तव्य भी तो नहीं दीखता। मन को कहीं कोई ऐसा स्थान या ऐसा काम जो उसकी रुचि का हो, सुहाये, मिलना चाहिए।

🔴 रुचियाँ बदलती रहती हैं या बदली जा सकती हैं छोटे बच्चे खिलौनों के लिए मचलते हैं। कुछ बड़े होने पर सामर्थ्यों के साथ खेल खिलवाड़ के लिए उत्सुक रहते हैं। युवक होने पर अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने की लगन लगती है। तरुण होने पर धन कमाने-गृहस्थ बनने की इच्छा होती है। बूढ़े भजन करते और कथा सुनते हैं। बचपन में बढ़ी हुई स्फूर्ति हर घड़ी कुछ न कुछ करते रहने की उमंग करती रहती थी पर बूढ़े होने पर विश्राम करना और चैन से दिन काटना सुहाता है। यह परिवर्तन बताते हैं कि मन का कोई एक निश्चित रुचि केन्द्र नहीं है। व्यक्तित्व के विकास और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ वह अपना रुझान बदलता रहता है। जमीन के ढलान के अनुरूप नदी-नाले अपनी दिशा मोड़ते और चाल बदलते रहते हैं। 

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1990 नवम्बर

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👉 मन पर लगाम लगे तो कैसे? (भाग 1)

🔴 मन को वश में रखने के लिए अध्यात्म प्रसंगों में सदा कहा और दुहराया जाता है। पर यह नहीं बताया जाता कि यह किस प्रकार किया जाय? इसलिए ध्यान, प्राणायाम जैसी विधियाँ बताई जाती हैं। पर देखा गया है कि उन विधाओं को अपनाने पर भी मन एकाग्र नहीं होता, पकड़-पकड़ कर बिठाने पर भी मेंढक की तरह उछल जाता है। क्षण भर का अवसर मिलते ही कहीं से कहीं पहुँचता है। इस पकड़-धकड़ में प्रयत्नकर्ता ही थकता है। मन का तो स्वभाव ही ठहरा। वह पवन की तरह एक जगह स्थिर नहीं रह सकता। पखेरू की तरह उसकी उड़ते रहने जैसी आदत जो है। हिरन को पकड़कर बाँधना उसे हाथ-पाँव तोड़ लेने के लिए बाधित करता है।

🔵  मन रस की खोज से मारा मारा फिरता है। उसे उसी की लगन और ललक है। कस्तूरी के हिरन को उस गंध के प्रति अत्यधिक लगाव होता है उसी को खोजने के लिए पाने के लिए वह लालायित होता है। जिधर भी मुँह उठता है, उधर ही दौड़ पड़ता है। यह भाग दौड़ तब तक जारी रहती है जब तक कि उसे गंध के उद्गम का पता नहीं चल जाता।

🔴 मन को सरसता चाहिए। ऐसी स्थिति जिसमें रसास्वादन का अवसर मिले। आनन्द की अनुभूति हो। नीरस क्रिया-कलापों में उसे रुचि नहीं हो पाती इसलिए वह अपना अभीष्ट तलाशने दूसरी जगह चल पड़ता है। तितलियाँ, भौंरे जहाँ-तहाँ उड़ते फिरते हैं पर जब उन्हें सुगंध भरे फूल मिल जाते हैं तब शान्ति के साथ स्थिरतापूर्वक बैठ जाते हैं और प्रमुदित होकर समय गुजारते हैं फिर उन्हें उचटने उखड़ने की आवश्यकता नहीं रहती। यहाँ बंधन उसके लिए कारगर होता है कि जिसकी तलाश है उसे उपलब्ध करा दिया जाय।

🔵  डोरी से जकड़ने पर तो पशु भी अपने हाथ-पैर तुड़ा लेते हैं। विवशता में ही कोई कैद में रहना स्वीकार करता है। हथकड़ी-बेड़ी बैरक, तालों, संतरी आदि की व्यवस्था न हो तो कोई कैदी जेल में रहना स्वीकार न करे। खिड़की खुलते ही तोता पिंजरे से निकल भागता है और फिर पीछे की ओर देखत तक नहीं। यही बात मन के संबंध में भी कही जा सकती है। उसे नीरसता पसंद नहीं, सहन नहीं। इसलिए उसे जिस तिस खूँटे में बाँधने पर भी स्थिरता अपनाते नहीं बनती। उसे उन्मुक्त आकाश के मनोरम दृश्य देखने का चाव जो है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1990 नवम्बर

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👉 मन पर लगाम लगे तो कैसे? (भाग 3)

🔴  मन का भी यही हाल है। वह चट्टान की तरह हठीला नहीं, मिट्टी की तरह उसे गीला किया जा सकता है और चतुर कुम्हार की तरह उसे किसी भी ढाँचे में ढाला जा सकता है। मन को चालू गाड़ी की तरह किसी भी सड़क पर चलाया जा सकता है। इस बदलाव में आरंभिक अड़चनें तो आती हैं पर सिखाने, साधने पर वह सरकस के जानवरों की तरह ऐसे तमाशे दिखाने लगता है जो उसकी जन्मजात प्रकृति के अनुरूप नहीं होते। मन को भी इसी प्रकार एक दिशा से दूसरी दिशा में ले जाया जा सकता है। एक प्रकार के अभ्यास से विरत करके दूसरे प्रकार के स्वभाव का बनाया जा सकता है।

🔵  जंगली वन्य पशु अनाड़ियों की तरह भटकते हैं पर जब वे पालतू बन जाते हैं तो मालिक की इच्छानुसार अपनी गतिविधियों को बदल देते हैं। मन के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। उसकी रंगीली उड़ाने वासना, तृष्णा की जन्म जन्मान्तरों से अभ्यस्त रही हैं इसलिए इस जन्म में भी वह पुराना, पहचाना मार्ग ही जाना-पहचाना समझ-बूझा लगता है। इसलिए स्वेच्छाचार के लिए वह आतुर फिरता है किन्तु मनुष्य पर अनेक बंधन हैं। पशुओं की तरह वह कुछ भी कर गुजरने के लिए स्वतंत्र नहीं है।

🔴 मर्यादाएँ, वर्जनाएँ और जिम्मेदारियाँ एक सीमा तक ही सीमित रहने के लिए उसे विवश करती हैं इसलिए वह एक जगह काम न बनता देखकर दूसरी जगह दौड़ता है। मृगतृष्णा में भटकने वाले हिरन की तरह उसकी कुलाचें मार्ग-कुमार्ग पर भटकती रहती हैं। कल्पनाओं के अम्बार छाये रहते हैं। बन्दर जैसी उछल-कूद जारी रहती है। किसी डाली पर देर तक बैठे रहने की अपेक्षा उसे जिस-तिस का रंग-ढंग देखने और उन्हें हिलाने पर मिलने वाले चित्र-विचित्र अनुभव की तरह विभिन्नताएँ और विचित्रताएँ देखने की उमंग उठती रहती है। यही है मन की भगदड़, जिसे रोकने के लिए मूलभूत आधार बदलने की आवश्यकता पड़ती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 मन पर लगाम लगे तो कैसे? (अन्तिम भाग )

🔵  मन का केन्द्र बदला जा सकता है। पशु प्रवृत्तियों की पगडण्डियाँ उसकी देखी-भाली हैं। पर मानवी गरिमा का स्वरूप समझने और उसके शानदार प्रतिफल का अनुमान लगाने का अवसर तो उसे इसी बार इसी शरीर में मिला है। इसलिए अजनबी मन की अड़चन होते हुए भी तर्क, तथ्य, प्रमाण उदाहरणों के सहारे उसे यह समझाया जताया जा सकता है कि पशु प्रवृत्तियों की तुलना में मानवी गरिमा की कितनी अधिक श्रेष्ठता है। दूरदर्शी विवेक के आधार पर यह निर्णय, निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आदर्शवादिता और कर्तव्य परायणता अपनाने पर उसके कितने उच्चस्तरीय परिणाम प्रस्तुत हो सकते हैं।

🔴  पुराने ढंग की ईश्वर भक्ति में मन लगाने और साधनाओं में रुचि लेने के लिए परामर्श दिया जाता है किन्तु पुरातन तत्त्वज्ञान को हृदयंगम कराये बिना उस दिशा में न तो विश्वास जमता है और न मन टिकता है। बदली हुई परिस्थितियों में हम कर्मयोग को ईश्वर प्राप्ति का आधार मान सकते हैं। कर्तव्य को, संयम को, पुण्य परमार्थ को ईश्वर का निराकार रूप मान सकते हैं। कामों के साथ आदर्शवादिता का समावेश रखा जा सके तो वह सम्मिश्रण इतना मधुर एवं सरस बन जाता है कि उस पर मन टिक सके। बया अपने घोंसले को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर तन्मयतापूर्वक बनाती है। हम भी अपने क्रिया–कलापों में मानवी गरिमा एवं सेवा भावना का समावेश रखें तो उस केन्द्र पर भी मन की तादात्म्यता स्थिर हो सकती है। मन को निश्चित ही निग्रहित किया जा सकता है।

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1990 नवम्बर
 
 
स्वाध्याय संदोह - अंतर्जगत की यात्रा 25 नवम्बर 2016
विषय - अंतर्जगत का शिखर - कैवल्य
विशेष उदबोधन- श्रद्धेय डॉ प्रणव पंड्या जी
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https://youtu.be/SFf3-BjpOL0


स्वाध्याय संदोह - अंतर्जगत की यात्रा | 25 नवम्बर 2016
विषय - धारणा, ध्यान, समाधी का संगम - संयम
विशेष उदबोधन- आदरणीय डॉ चिन्मय पंड्या
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https://youtu.be/KRW-iokdyE0

स्वाध्याय संदोह - अंतर्जगत की यात्रा 24 नवम्बर 2016
विषय - ध्यान एक अध्यात्मिक शल्य क्रिया
विशेष उदबोधन- श्रद्धेय डॉ प्रणव पंड्या जी
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https://youtu.be/rpP5bGV4uoo

स्वाध्याय संदोह - अंतर्जगत की यात्रा 23 नवम्बर 2016
विषय - अंतर्जगत का द्वार प्रत्याहार
विशेष उदबोधन- श्रद्धेय डॉ प्रणव पंड्या जी
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https://youtu.be/lBI7wHzGjU4

स्वाध्याय संदोह - अंतर्जगत की यात्रा । 22  नवम्बर 2016
विषय - अंतर्जगत का द्वार प्रत्याहार
विशेष उदबोधन- श्रद्धेय डॉ प्रणव पंड्या जी
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https://www.youtube.com/watch?v=QfiHvjhHA9U&feature=youtu.be

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...