🔴 भले ही अभी यह छिपा हो, ढंका हो और यहाँ अभी केवल शून्यता नजर आती हो, पर है यह अवश्य। इसके स्पर्श मात्र से हृदय श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से भर उठेगा। स्थिति इसके उलट भी है, यदि हम अपने हृदय को श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से से भर दें, तो भी यह दिव्य संगीत हमारे अन्तस में गुंजने लगेगा। ध्यान रहे यदि हमने भूल से पाप के पथ पर पाँव रख दिए तो फिर इस संगीत को कभी भी न सुना जा सकेगा। क्योंकि जो पाप पथ पर चलता है, वह अपने अन्तस की गहराइयों में कभी नहीं उतर पाता। वह अपने कानों को इस दिव्य संगीत के प्रति मूंद लेता है। अपनी आँखों को वह अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना आसान जान पड़ता है।
🔵 तभी वह ऐसा करता है। दरअसल ऐसा व्यक्ति परम आलसी होता है। वह जीवन की ऊपरी पथरीली सतह को ही सब कुछ मान लेता है। उस बेचारे को नहीं मालुम कि जिन्दगी की इस पथरीली की जमीन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है। समस्त कोलाहल के अन्तस में सुरीला संगीत प्रवाहित हो रहा है। यह अविरल प्रवाह न तो कभी रुकता है और न कभी थमता है। सचमुच ही गहरा स्रोत मौजूद है, उसे खोज निकालो। तुम इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह परम संगीत मौजूद है। उसे ढुंढने में लग जाओ, थको- हारो मत। यदि एक बार भी तुम उसे अपने में सुन सके, तो फिर तुम्हें यह संगीत अपने आस- पास के लोगों के अन्तस में झरता- उफनता नजर आएगा।
🔴 इस सूत्र में साधना का परम स्वर है। इसमें जो कहा गया है, जीवन की परिस्थितियाँ उससे एकदम उलट हैं। हमारे जीवन में संगीत नहीं कोलाहल भरा हुआ है। बाहर भी शोर है और अन्तस में भी शोर मचा हुआ है। चीख, पुकारों के बीच हम जी रहे हैं। ऐसे में जीवन के संगीत की बात अटपटी लगती है। लेकिन इस अटपटे पन के भीतर सच है। पर गहरे में उरतने की जरुरत है। गहरे में उतरा जा सके तो ऊपरी दुनियाँ को भी संवारा जा सकता है, सजाया जा सकता है। सन्त कबीर ने भी यही बात अपने दोहे में कही है-
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बुढ़नडरा, रह किनारे बैठि॥
यानि कि जो खोजते हैं, वे पाते हैं। पर उन्हें गहरे में डुबकी लगानी पड़ती है। जो डुबने से डरते है, वे तो बस किनारे बैठे रह जाते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/gurua
🔵 तभी वह ऐसा करता है। दरअसल ऐसा व्यक्ति परम आलसी होता है। वह जीवन की ऊपरी पथरीली सतह को ही सब कुछ मान लेता है। उस बेचारे को नहीं मालुम कि जिन्दगी की इस पथरीली की जमीन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है। समस्त कोलाहल के अन्तस में सुरीला संगीत प्रवाहित हो रहा है। यह अविरल प्रवाह न तो कभी रुकता है और न कभी थमता है। सचमुच ही गहरा स्रोत मौजूद है, उसे खोज निकालो। तुम इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह परम संगीत मौजूद है। उसे ढुंढने में लग जाओ, थको- हारो मत। यदि एक बार भी तुम उसे अपने में सुन सके, तो फिर तुम्हें यह संगीत अपने आस- पास के लोगों के अन्तस में झरता- उफनता नजर आएगा।
🔴 इस सूत्र में साधना का परम स्वर है। इसमें जो कहा गया है, जीवन की परिस्थितियाँ उससे एकदम उलट हैं। हमारे जीवन में संगीत नहीं कोलाहल भरा हुआ है। बाहर भी शोर है और अन्तस में भी शोर मचा हुआ है। चीख, पुकारों के बीच हम जी रहे हैं। ऐसे में जीवन के संगीत की बात अटपटी लगती है। लेकिन इस अटपटे पन के भीतर सच है। पर गहरे में उरतने की जरुरत है। गहरे में उतरा जा सके तो ऊपरी दुनियाँ को भी संवारा जा सकता है, सजाया जा सकता है। सन्त कबीर ने भी यही बात अपने दोहे में कही है-
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बुढ़नडरा, रह किनारे बैठि॥
यानि कि जो खोजते हैं, वे पाते हैं। पर उन्हें गहरे में डुबकी लगानी पड़ती है। जो डुबने से डरते है, वे तो बस किनारे बैठे रह जाते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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