मंगलवार, 11 जून 2019
👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (भाग 4)
आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे है, उसमें जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किए बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुँच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन जीने की कला कहा गया है। जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित है। हमें चाहिये कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहे। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवनकाल के विरोधी दुर्गुण है। इनका त्याग करने से जीवनकाल को बल प्राप्त होता है। हमारे कर्म भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिये। गुण और कर्म में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शांति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर उसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन कला के प्रतिकूल होते ही है, वह गुण भी मिथ्या हो जाता है।
सत्कर्म में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिये। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकार भी जुड़ा है तो यह उस गुण कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हे और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते है, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल है तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते है और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते है तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।
जीवन यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और संतुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम क्रम से आगे बढ़ना चाहिये। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.9
सत्कर्म में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिये। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकार भी जुड़ा है तो यह उस गुण कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हे और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते है, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल है तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते है और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते है तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।
जीवन यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और संतुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम क्रम से आगे बढ़ना चाहिये। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.9
👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 12)
👉 आध्यात्मिक चिकित्सा का मूल है आस्तिकता
आस्तिकता के अस्तित्व को झुठलाना सम्भव नहीं। यह इतना स्पष्ट है जितना कि हम स्वयं, हमारा अपना जीवन। जिन्हें जीवन की सम्पूर्णता का अहसास होता है, वे आस्तिकता की अनुभूति किए बिना नहीं रहते। जो आस्तिकता को नकारते हैं, दरअसल वे जिन्दगी को नकारते हैं, अपने आप को अस्वीकार करते हैं। आस्तिकता का मतलब है, जीवन के होने की सच्ची स्वीकारोक्ति, जीवन और जगत् के सम्बन्धों की सूक्ष्म व सघन अनुभूति। लोक प्रचलन में ईश्वर के प्रति विश्वास या आस्था को आस्तिकता का पर्याय माना जाता है। वैदिक विद्वान ‘नास्तिकोवेद निन्दकः’ कहकर वेदज्ञान के प्रति आस्था को आस्तिकता के रूप में परिभाषित करते हैं।
अपने सार मर्म में, प्रचलन में एवं दर्शन में आस्तिकता के बारे में जो भी कुछ कहा गया है, वह एक ही सच के विविध रूप हैं। कथन और परिभाषाएँ अनेक होने पर भी आस्तिकता का सच एक ही है। जब हम आस्तिकता को ईश्वर के प्रति आस्था कहते हैं, तो इसका मतलब इतना ही है कि हमें समष्टि जीवन के प्रति, सर्वव्यापी अस्तित्व के प्रति आस्थावान होना चाहिए। यही बात वेदज्ञान के बारे में है। वेद का मतलब चार पोथियाँ नहीं हैं। बल्कि यह सत्यज्ञान एवं सत्य विद्या है। परम्परागत ढंग से सोचें तो प्राचीन ऋषिगणों ने जीवन और जगत् की सूक्ष्मताओं एवं गहनताओं का जो ज्ञान पाया वही वेदों में संकलित है। इसकी अवहेलना या उपेक्षा कर के हम जीवन के समग्र विकास को कभी भी नहीं पा सकते।
बीते सालों में विज्ञान के नाम पर आस्तिकता को झुठलाने की अनेकों कोशिशें की गई। कई तरह के व्यंग, कटाक्ष एवं कटूक्तियाँ उच्चारित की गयीं। बात यहाँ तक बढ़ी कि नास्तिकता को वैज्ञानिकता का पर्याय माना जाने लगा। इस उलटी सोच ने अनेकों उलटे काम कराए। समष्टि जीवन चेतना को नकारने से स्वार्थपरता व अहंता को भारी बढ़ावा मिला। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन हुआ। मानवीय अहंता की चपेट में आकर जीव- जन्तुओं की अनगिनत प्रजातियाँ नष्ट हुई। इसी के साथ प्राकृतिक संकटों के बादल भी घहराए। पर्यावरण संकट, मौसम के संकट, भाँति- भाँति की बीमारियाँ, महामारियाँ, आपदाएँ इन्सानी जिन्दगी को दबोचने की तैयारियाँ करने लगीं। स्वार्थलिप्सा से ग्रसित अहंकारी मानव को मनोरोगों ने भी धर पटका। यह सब हुआ क्यों? किस तरह? और कैसे? इन सवालों के जवाब की ढूँढ खोज में जब वैज्ञानिक जुटे तो उन्होंने अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में यही पाया कि समष्टि चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 18
आस्तिकता के अस्तित्व को झुठलाना सम्भव नहीं। यह इतना स्पष्ट है जितना कि हम स्वयं, हमारा अपना जीवन। जिन्हें जीवन की सम्पूर्णता का अहसास होता है, वे आस्तिकता की अनुभूति किए बिना नहीं रहते। जो आस्तिकता को नकारते हैं, दरअसल वे जिन्दगी को नकारते हैं, अपने आप को अस्वीकार करते हैं। आस्तिकता का मतलब है, जीवन के होने की सच्ची स्वीकारोक्ति, जीवन और जगत् के सम्बन्धों की सूक्ष्म व सघन अनुभूति। लोक प्रचलन में ईश्वर के प्रति विश्वास या आस्था को आस्तिकता का पर्याय माना जाता है। वैदिक विद्वान ‘नास्तिकोवेद निन्दकः’ कहकर वेदज्ञान के प्रति आस्था को आस्तिकता के रूप में परिभाषित करते हैं।
अपने सार मर्म में, प्रचलन में एवं दर्शन में आस्तिकता के बारे में जो भी कुछ कहा गया है, वह एक ही सच के विविध रूप हैं। कथन और परिभाषाएँ अनेक होने पर भी आस्तिकता का सच एक ही है। जब हम आस्तिकता को ईश्वर के प्रति आस्था कहते हैं, तो इसका मतलब इतना ही है कि हमें समष्टि जीवन के प्रति, सर्वव्यापी अस्तित्व के प्रति आस्थावान होना चाहिए। यही बात वेदज्ञान के बारे में है। वेद का मतलब चार पोथियाँ नहीं हैं। बल्कि यह सत्यज्ञान एवं सत्य विद्या है। परम्परागत ढंग से सोचें तो प्राचीन ऋषिगणों ने जीवन और जगत् की सूक्ष्मताओं एवं गहनताओं का जो ज्ञान पाया वही वेदों में संकलित है। इसकी अवहेलना या उपेक्षा कर के हम जीवन के समग्र विकास को कभी भी नहीं पा सकते।
बीते सालों में विज्ञान के नाम पर आस्तिकता को झुठलाने की अनेकों कोशिशें की गई। कई तरह के व्यंग, कटाक्ष एवं कटूक्तियाँ उच्चारित की गयीं। बात यहाँ तक बढ़ी कि नास्तिकता को वैज्ञानिकता का पर्याय माना जाने लगा। इस उलटी सोच ने अनेकों उलटे काम कराए। समष्टि जीवन चेतना को नकारने से स्वार्थपरता व अहंता को भारी बढ़ावा मिला। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन हुआ। मानवीय अहंता की चपेट में आकर जीव- जन्तुओं की अनगिनत प्रजातियाँ नष्ट हुई। इसी के साथ प्राकृतिक संकटों के बादल भी घहराए। पर्यावरण संकट, मौसम के संकट, भाँति- भाँति की बीमारियाँ, महामारियाँ, आपदाएँ इन्सानी जिन्दगी को दबोचने की तैयारियाँ करने लगीं। स्वार्थलिप्सा से ग्रसित अहंकारी मानव को मनोरोगों ने भी धर पटका। यह सब हुआ क्यों? किस तरह? और कैसे? इन सवालों के जवाब की ढूँढ खोज में जब वैज्ञानिक जुटे तो उन्होंने अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में यही पाया कि समष्टि चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 18
👉 The Absolute Law Of Karma (Part 24)
YOUR WORLD – A REFLECTION OF YOUR MIND
In this world, we find people complaining about many types of misfortunes and feeling euphoric on insignificant occasions of pleasure. There are habitual pessimists blaming everyone for everything. Expressions like “This world is very bad”; “Times are bad”; “Honesty is a virtue of the past”; “Religion has been buried for good”- are very commonly bandied about. If someone is in the habit of repeating such phrases, he is expressing only the impressions of his mind and you can safely assume that he himself is a cheat and dishonest person.
Man has systematically built the image of his unhappy world by interacting with pessimistic people around himself. If someone is in the habit of complaining about lack of opportunities for work, widespread unemployment, failure of good industries and non-availability of good jobs, take it for granted that his ideosphere is full of thick clouds of indolence, torpor and incompetence. This he finds reflected everywhere in the world. If someone sees this world as full of self-centered hypocrites or sinners or evil and uncivilized persons, infer that the individual himself has an abundance of corresponding negative attributes in his own self. This world is like a magnificent large mirror, which faithfully reflects your ideosphere. As mentioned earlier, elements of this world
precipitate three types of qualitative attributes (Sat, Raj and Tam) in life. Whichever attribute dominates in the personality
of an individual, it attracts its counterpart from the world at large.
Wherever a short-tempered person goes, he finds someone to quarrel with. One who has hatred in mind will always find out an object to be hated. To an unfair person everyone appears, ill-mannered, uncivil and worthy of punishment. Whenever an individual interacts with someone, he/she views the latter in the same light with which his own personality is coloured. A person of impeccable morality rarely comes across a woman of fallen virtue. Scholars do get avenues for right information. Seekers of truth always find opportunities for quenching their thirst for wisdom. Enlightened souls have always been living on this earth. Wherever they live, environment around them attracts virtuous persons.
However, it is not our intention to prove that there is absolutely no evil on this earth and whatever good or bad we find here is totally a reflection of our own field of view. It has been repeatedly stated that in this world, good, average and bad (Sat, Raj and Tam) coexist and one receives what one gets tuned into.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 42-43
In this world, we find people complaining about many types of misfortunes and feeling euphoric on insignificant occasions of pleasure. There are habitual pessimists blaming everyone for everything. Expressions like “This world is very bad”; “Times are bad”; “Honesty is a virtue of the past”; “Religion has been buried for good”- are very commonly bandied about. If someone is in the habit of repeating such phrases, he is expressing only the impressions of his mind and you can safely assume that he himself is a cheat and dishonest person.
Man has systematically built the image of his unhappy world by interacting with pessimistic people around himself. If someone is in the habit of complaining about lack of opportunities for work, widespread unemployment, failure of good industries and non-availability of good jobs, take it for granted that his ideosphere is full of thick clouds of indolence, torpor and incompetence. This he finds reflected everywhere in the world. If someone sees this world as full of self-centered hypocrites or sinners or evil and uncivilized persons, infer that the individual himself has an abundance of corresponding negative attributes in his own self. This world is like a magnificent large mirror, which faithfully reflects your ideosphere. As mentioned earlier, elements of this world
precipitate three types of qualitative attributes (Sat, Raj and Tam) in life. Whichever attribute dominates in the personality
of an individual, it attracts its counterpart from the world at large.
Wherever a short-tempered person goes, he finds someone to quarrel with. One who has hatred in mind will always find out an object to be hated. To an unfair person everyone appears, ill-mannered, uncivil and worthy of punishment. Whenever an individual interacts with someone, he/she views the latter in the same light with which his own personality is coloured. A person of impeccable morality rarely comes across a woman of fallen virtue. Scholars do get avenues for right information. Seekers of truth always find opportunities for quenching their thirst for wisdom. Enlightened souls have always been living on this earth. Wherever they live, environment around them attracts virtuous persons.
However, it is not our intention to prove that there is absolutely no evil on this earth and whatever good or bad we find here is totally a reflection of our own field of view. It has been repeatedly stated that in this world, good, average and bad (Sat, Raj and Tam) coexist and one receives what one gets tuned into.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 42-43
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