★ धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्म काण्ड के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गये हैं। जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौदान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान की दृष्टि से असत्य हैं क्योंकि इन कर्मकाण्डों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि का धर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल कैसे हो सकता है? यदि होता तो योग यज्ञ और तप जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टके सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता।
◆ भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका सिर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजार ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़ताएँ फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है। हर विचारशील का कर्त्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। $कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें।
◇ यह नहीं देखना चाहिए कि बुराई से वैभव बढ़ता है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह क्षणिक ही होगा। बुराई जितनी जल्दी बढ़ती है, उतनी ही जल्दी नष्ट हो जाती है, साथ ही कर्त्ता को भी नष्ट कर डालती है। आकाश तक फैलती है और अंत में सिकुड़कर स्वयं बुराई करने वाले के सिर पर आकर पड़ती है।
■ दुष्ट विचार हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। पाप का विचार, चोरी, कपट, ईर्ष्या, निराशा का विचार हमारा सर्वनाश कर सकता है। ईश्वर का एक मानसिक चित्र अंतःकरण में तैयार कर लें और सत्य, प्रेम, न्याय से अपना हृदय नित्य विकसित करते रहें। स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता और शान्ति के विचार हमारे दोस्त हैं। ये हमें सिखाएँगे कि जीवन पूर्ण सुखमय है तथा उसके अनुभवों से झगड़ना मूर्खता में शामिल है।
◆ भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका सिर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजार ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़ताएँ फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है। हर विचारशील का कर्त्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। $कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें।
◇ यह नहीं देखना चाहिए कि बुराई से वैभव बढ़ता है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह क्षणिक ही होगा। बुराई जितनी जल्दी बढ़ती है, उतनी ही जल्दी नष्ट हो जाती है, साथ ही कर्त्ता को भी नष्ट कर डालती है। आकाश तक फैलती है और अंत में सिकुड़कर स्वयं बुराई करने वाले के सिर पर आकर पड़ती है।
■ दुष्ट विचार हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। पाप का विचार, चोरी, कपट, ईर्ष्या, निराशा का विचार हमारा सर्वनाश कर सकता है। ईश्वर का एक मानसिक चित्र अंतःकरण में तैयार कर लें और सत्य, प्रेम, न्याय से अपना हृदय नित्य विकसित करते रहें। स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता और शान्ति के विचार हमारे दोस्त हैं। ये हमें सिखाएँगे कि जीवन पूर्ण सुखमय है तथा उसके अनुभवों से झगड़ना मूर्खता में शामिल है।