आज तो विचार-क्रान्ति का प्रथम चरण उठाया जाना आवश्यक है! अभी तो गहरी खुमारी में अवांछनीय रूप से देखने वालों को जगाया जाना ही प्रथम कार्य है जिसके बाद और कुछ सोचा और किया जाना सम्भव है। इसलिए लोक- शिक्षण को अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए अभी अपना प्रथम अभियान चल रहा है। इसके अन्तर्गत हमें अशुद्ध विचारों के दुष्परिणाम और सद्विचारों की उपयोगिता तथा स्वतन्त्र चिन्तन को पद्धति मात्र सिखानी बतानी है। इसी का क्षेत्र व्यापक बनाना है। जो सचमुच हमें प्यार करते हों- जो सचमुच हमारे निकट हों- जिन्हें सचमुच हमसे दिलचस्पी हो- उन्हें इसके लिए योजना को कार्यान्वित करने के लिए इस तप-साधना में संलग्न होना ही चाहिये।
विचार-क्रान्ति के प्रथम चरण की प्रस्तुत योजना के दो आधार हैं। प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अथवा छुट्टी के दिन पूरा समय देना। दूसरी अपनी आजीविका का एक अंश इस पुण्य प्रयोजन में नियमित रूप से लगाना। महीने में एक दिन उपवास ही क्यों न करना पड़े-चाहे किसी आवश्यकता में कटौती ही क्यों न करनी पड़े पर इतना त्याग बलिदान तो किया ही जाना चाहिये। नियमितता से स्वभाव एवं अभ्यास का निर्माण होता है इसलिए एक बार थोड़ा समय या थोड़ा पैसा दे देने से काम न चलेगा इसमें नियमितता जुड़ी रहनी चाहिये। लगातार की नियमितता को ही साधना कहते हैं। जो कम ज्यादा समय या धन खर्च करना चाहें वे वैसा कर सकते हैं। पर होना सब कुछ नियमित हो चाहिये। लगातार चलने से मंजिल पार होती है। एक क्षण की उछाल चमत्कृत तो करती है पर उससे लम्बी मंजिल का पार होना सम्भव नहीं। इसलिए किसी से बड़ी धन राशि की याचना नहीं की है भले ही थोड़ा-थोड़ा हो पर नियमित रूप से कुछ करते रहने के लिए कहा गया है।
अपने क्षेत्र के ऐसे शिक्षित जिनमें थोड़ी विचारशीलता की सम्भावना हो अपने सम्पर्क क्षेत्र में ढूंढे जा सकते हैं और उनकी लिस्ट बनाई जा सकती है। आरम्भ में यह लिस्ट छोटी भी बनाई जा सकती है पर पीछे एक दूसरे से पूछने परामर्श करने पर उस लिस्ट का विस्तार होता रह सकता है। प्रतिदिन यथा अवसर कुछ लोगों से मिलना और उन्हें एक विज्ञप्ति पढ़ने का अनुरोध करना बिना झिझक-संकोच एवं समय खर्च किये बड़ी आसानी से हो सकता है। किसी बड़े दफ्तर या कारखाने में काम करने वाले, बड़ी कक्षाओं के अध्यापक लोग, चिकित्सक, व्यापारी, घूमने वाले ऐजेन्ट, दलाल, पोस्टमैन जैसे व्यक्ति तो बड़ो आसानी से यह काम कर सकते हैं। हर स्थिति का व्यक्ति कहीं न कहीं लोगों से मिलता- जुलता ही है। उसको परिवार, सम्पर्क, रिश्तेदार, मित्र, परिजन कुछ तो होते ही हैं। यहाँ से आरम्भ करके उसकी श्रृंखला परिचितों से परिचय प्राप्त करने से बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार अपना प्रचार क्षेत्र हर किसी के लिए १०० तक हो सकता है। गाँवों में समीपवर्ती दो- चार गांवों का मिलकर भी यह क्षेत्र हो सकता है। यह सौ व्यक्ति चलते- फिरते नहीं वरन् ऐसे होना चाहिये जिसके पास बार-बार पहुंचा जा सके और जो लगातार उस साहित्य सीरीज को पढ़ाकर अपना मन मस्तिष्क परिपक्व करने के उपयुक्त कुछ ठोस सामग्री लगातार प्राप्त करते रह सकें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969