मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

👉 इस तप-साधना में संलग्न होना ही चाहिये

आज तो विचार-क्रान्ति का प्रथम चरण उठाया जाना आवश्यक है! अभी तो गहरी खुमारी में अवांछनीय रूप से देखने वालों को जगाया जाना ही प्रथम कार्य है जिसके बाद और कुछ सोचा और किया जाना सम्भव है। इसलिए लोक- शिक्षण को अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए अभी अपना प्रथम अभियान चल रहा है। इसके अन्तर्गत हमें अशुद्ध विचारों के दुष्परिणाम और सद्विचारों की उपयोगिता तथा स्वतन्त्र चिन्तन को पद्धति मात्र सिखानी बतानी है। इसी का क्षेत्र व्यापक बनाना है। जो सचमुच हमें प्यार करते हों- जो सचमुच हमारे निकट हों- जिन्हें सचमुच हमसे दिलचस्पी हो- उन्हें इसके लिए योजना को कार्यान्वित करने के लिए इस तप-साधना में संलग्न होना ही चाहिये।

विचार-क्रान्ति के प्रथम चरण की प्रस्तुत योजना के दो आधार हैं। प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अथवा छुट्टी के दिन पूरा समय देना। दूसरी अपनी आजीविका का एक अंश इस पुण्य प्रयोजन में नियमित रूप से लगाना। महीने में एक दिन उपवास ही क्यों न करना पड़े-चाहे किसी आवश्यकता में कटौती ही क्यों न करनी पड़े पर इतना त्याग बलिदान तो किया ही जाना चाहिये। नियमितता से स्वभाव एवं अभ्यास का निर्माण होता है इसलिए एक बार थोड़ा समय या थोड़ा पैसा दे देने से काम न चलेगा इसमें नियमितता जुड़ी रहनी चाहिये। लगातार की नियमितता को ही साधना कहते हैं। जो कम ज्यादा समय या धन खर्च करना चाहें वे वैसा कर सकते हैं। पर होना सब कुछ नियमित हो चाहिये। लगातार चलने से मंजिल पार होती है। एक क्षण की उछाल चमत्कृत तो करती है पर उससे लम्बी मंजिल का पार होना सम्भव नहीं। इसलिए किसी से बड़ी धन राशि की याचना नहीं की है भले ही थोड़ा-थोड़ा हो पर नियमित रूप से कुछ करते रहने के लिए कहा गया है।

अपने क्षेत्र के ऐसे शिक्षित जिनमें थोड़ी विचारशीलता की सम्भावना हो अपने सम्पर्क क्षेत्र में ढूंढे जा सकते हैं और उनकी लिस्ट बनाई जा सकती है। आरम्भ में यह लिस्ट छोटी भी बनाई जा सकती है पर पीछे एक दूसरे से पूछने परामर्श करने पर उस लिस्ट का विस्तार होता रह सकता है। प्रतिदिन यथा अवसर कुछ लोगों से मिलना और उन्हें एक विज्ञप्ति पढ़ने का अनुरोध करना बिना झिझक-संकोच एवं समय खर्च किये बड़ी आसानी से हो सकता है। किसी बड़े दफ्तर या कारखाने में काम करने वाले, बड़ी कक्षाओं के अध्यापक लोग, चिकित्सक, व्यापारी, घूमने वाले ऐजेन्ट, दलाल, पोस्टमैन जैसे व्यक्ति तो बड़ो आसानी से यह काम कर सकते हैं। हर स्थिति का व्यक्ति कहीं न कहीं लोगों से मिलता- जुलता ही है। उसको परिवार, सम्पर्क, रिश्तेदार, मित्र, परिजन कुछ तो होते ही हैं। यहाँ से आरम्भ करके उसकी श्रृंखला परिचितों से परिचय प्राप्त करने से बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार अपना प्रचार क्षेत्र हर किसी के लिए १०० तक हो सकता है। गाँवों में समीपवर्ती दो- चार गांवों का मिलकर भी यह क्षेत्र हो सकता है। यह सौ व्यक्ति चलते- फिरते नहीं वरन् ऐसे होना चाहिये जिसके पास बार-बार पहुंचा जा सके और जो लगातार उस साहित्य सीरीज को पढ़ाकर अपना मन मस्तिष्क परिपक्व करने के उपयुक्त कुछ ठोस सामग्री लगातार प्राप्त करते रह सकें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969

👉 भक्तिगाथा (भाग ७५)

महारास की रसमयता से प्रकट हुआ है भक्तिशास्त्र

महर्षि दुर्वासा के मुख से भक्ति की अनुभवकथा को सुनकर सभी के हृदयसरोवर में भगवत्प्रेम की अनेकों उॄमया उठीं। प्रायः सभी के नेत्र ऋषि दुर्वासा के मुख को निहारने लगे। इस समय उनके मुख पर बड़ी सहज और सात्त्विक कोमलता थी। इस अनूठी कोमलता को देखकर कईयों को अचरज भी हुआ क्योंकि ऋषि दुर्वासा तो सदा ही अपने रौद्रभाव के लिए विख्यात थे। उनके मुखमण्डल पर तो सदा ही दुर्धर्ष रौद्रभाव की छाया रहती थी। कठिन तप की कठोरता का तेजस उनके मुख को आवृत्त किए रहता था। परन्तु आज तो स्थिति परिवर्तित थी। इन क्षणों में कोमलता ने कठोरता का स्थान ले लिया था। महर्षि की आँखें भीगी हुई थीं। हृदय विगलित था और कण्ठ रुद्ध हो रहा था। बस भक्तिपूर्ण मन से आकाश को निहारे जा रहे थे। मुख से निकलते अस्फुट स्वरों- हे भक्तवत्सल नारायण! हे करूणासिन्धु नारायण!! हे कृपासागर नारायण!!! के रूप में भक्ति की निर्झरणी बह रही थी।

प्रखर तपस्वी महर्षि दुर्वासा का यह रूप सभी के अन्तस को छू गया। इन क्षणों में हिमवान के शिखरों की शुभ्रता शत-सहस्र-लक्षगुणित होती जा रही थी। ऐसा हो भी क्यों न? आखिर निशिपति चन्द्रदेव तारकों का पुष्पहार पहनकर गगन-विहार करने जो आ चुके थे। वह अपने सहस्र-सहस्र रश्मिकरों से रूपहली चाँदनी सब ओर बिखेर रहे थे। इस उज्ज्वल-धवल चाँदनी के संस्पर्श से शुभ्र हिमशिखरों की शुभ्रता और भी सम्मोहक हो रही थी। जितनी तीव्रता से हिमालय के शिखरों पर चन्द्रमा की चाँदनी व्याप्त हो रही थी, उतनी ही तीव्रता से उपस्थित जनों के मनों में महर्षि दुर्वासा के प्रति अपनापन व्याप्त हो रहा था। ऋषियों-महर्षियों, देवों, सिद्धों की सुकोमल भावनाएँ महर्षि के भक्तिपूर्ण मन से एकात्म हो रही थीं।

इस गहन आध्यात्मिक अनुभूति से देवर्षि नारद भी पुलकित थे। वह मौन हो आनन्दित हो रहे थे। आनन्द की यह छटा उनकी मुखछवि पर भी छिटक रही थी। वह इस समय बस भक्ति की भाव तरंगों में भीग रहे थे। महर्षि वसिष्ठ अपने सप्तर्षिमण्डल के साथ इस दृश्य की मनोरमता निहार रहे थे। महाराज अम्बरीश की स्मृतियों ने उन्हें भी बहुत कुछ अतीत की झलकियाँ दिखा दी थीं। वह अनुभव कर रहे थे कि भक्ति की चर्चा और भक्त के सहचर्य-सत्संग से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं। पर कहीं उनके मन में यह भी था कि देवर्षि अपने सूत्र का उच्चारण करें और इस भक्ति के भावप्रवाह की मनोरमता में एक नवीन आयाम जुड़े।

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के इन अन्तर्भावों ने देवर्षि की अन्तश्चेतना को हौले से छुआ और उसमें एक नवीन सूत्र का अंकुरण हुआ। वे वीणा की झंकृति के साथ मधुर स्वर में बोले-
‘तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः’॥ ३४॥
आचार्यगण उस (भक्ति) के साधन (के गीत गाते हैं) बतलाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३८

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