शुक्रवार, 20 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग १ )

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यतः कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। विचारणा की शुरुआत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है, जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है या वे पढ़ने सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती है। अपनी अभिरुचि के अनुरूप विचारों को मानव मस्तिष्क में प्रविष्ट होने देता है जबकि जिन्हें पसन्द नहीं करता उन्हें निरस्त भी कर सकता है। जिन विचारों का वह चयन करता है उन्हीं के अनुरूप चिन्तन की प्रक्रिया भी चलती है। चयन किये गये विचारों के अनुरूप ही दृष्टिकोण का विकास होता है जो विश्वास को जन्म देता है—वह परिपक्व होकर पूर्व धारणा बन जाता है। व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अन्तर पाया जाता है।
चिन्तन पद्धति में अर्जित की गयी भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है। स्वभाव-चिन्तन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है। स्वस्थ और उपयोगी चिन्तन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है अथवा आत्म-विकास में बाधक है।

प्रायः अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। अभ्यास द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए सम्भव है। परिस्थिति विशेष में लोग प्रायः जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिन्तन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है। मानसिक विकास के लिए अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है।

मन विभिन्न प्रकार के विचारों को ग्रहण करता है, पर जिनमें उसकी अभिरुचि रहती है, चयन उन्हीं का करता है। यह रुचि पूर्वानुभवों के आधार पर बनी हो सकती है, प्रयत्नपूर्वक नयी अभिरुचियां भी पैदा की जा सकती हैं।

प्रायः मन एक विशेष प्रकार की ढर्रे वाली प्रतिक्रियायें मात्र दर्शाता है, पर इच्छित दिशा में उसे कार्य करने के लिए नियन्त्रित और विवश भी किया जा सकता है। ‘बन्दरों की तरह उछलकूद मचाना उसका स्वभाव है। एक दिशा अथवा विचार विशेष पर वह एकाग्र नहीं होना चाहता। नवीन विचारों की ओर आकर्षित तो होता है, पर उपयोगी होते हुए भी उन पर टिका नहीं रह पाता। कुछ ही समय बाद उसकी एकाग्रता भंग हो जाती तथा वह परिवर्तन चाहने लगता है, पर अभ्यास एवं नियन्त्रण द्वारा उसके बन्दर स्वभाव को बदला भी जा सकता है। यह प्रक्रिया समय साध्य होते हुए भी असम्भव नहीं है। एक बार एकाग्रता का अभ्यास बन जाने से जीवनपर्यन्त के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ 3
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३१)

दोषों को भी प्रभु को अर्पित करता है भक्त

इस पर देवर्षि ने कहा- ‘‘महर्षि आप धन्य हैं। आप वही कह रहे हैं, जो मुझे अपने सूत्र में कहना है।’’ उनकी यह बात सुनकर ऋषिश्रेष्ठ क्रतु ने कहा- ‘‘फिर भी हे देवर्षि! आपका सूत्र अमूल्य है। पहले आप उसे कहें। इसके बाद ही मैं सुशान्त की कथा पूरी करूँगा।’’ इस पर देवर्षि ने मुस्कराते हुए कहा- ‘‘मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है भगवन्!’’ इतना कहकर उन्होंने बड़े ही भावपूर्ण व मधुर स्वरों में उच्चारित किया-

तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं
तस्मिन्नेव करणीयम्॥ ६५॥

सब आचार भगवान के अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमानादि हों, तो उन्हें भी उस (भगवान) के प्रति ही करना चाहिए।

देवर्षि ने अपना यह सूत्र कहने के बाद महर्षि क्रतु से कहा- ‘‘भगवन्! आप सुशान्त शर्मा के घटनाप्रसंग को अवश्य कहें। मेरा विश्वास है कि आपके स्नेह ने सुशान्त को अवश्य ही भगवान का कृपापात्र बनाया होगा।’’ इस पर ऋषिश्रेष्ठ क्रतु ने कहा- ‘‘यह तो मैं नहीं कहता कि उसे भगवान का कृपापात्र किसने बनाया, मेरे स्नेह ने या फिर उसी के किसी शुभ संस्कार ने। पर इतना सच अवश्य है कि संसार से हर तरह से ठुकराए गए सुशान्त ने मेरे पास आकर सचमुच ही स्वयं के अस्तित्त्व को परमात्मा में विसर्जित करने की बड़ी निष्कपट कोशिश की।

मेरे पास आने के कुछ ही दिनों बाद वह मानसिक रूप से स्वस्थ व शारीरिक रूप से सबल होने लगा। थोड़े ही दिनों बाद उसकी स्थिति सामान्य हो गयी। मेरे सान्निध्य में उसे याद आने लगा अपने पिता का सान्निध्य। साथ ही उसे याद हो आए अपने पुराने बचपन के दिन। जब वह त्रैकालिक सन्ध्या नियमित किया करता था। जब वह सूर्यमध्यस्थ गायत्री से स्वयं के प्राणों के एकाकार होने की भावना करता था। इन बचपन की स्मृतियों ने उसे विह्वल कर दिया। इसी विह्वलता में एक दिन उसने कहा- हे देव! क्या मैं पुनः गायत्री उपासना प्रारम्भ कर सकता हूँ। इस पर मैंने कहा- अवश्य पुत्र! तब उसने कहा- भगवन्! क्या इतने वर्षों तक नीच कर्म करने के बाद भी मैं इस लायक हूँ।

उसकी इस बात पर मैंने कहा- पुत्र! शास्त्रों में प्रत्येक अशुभ कर्म के लिए प्रायश्चित विधान है। पहले तुम प्रायश्चित करो। फिर मैं तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार पुनः करूँगा। तब तुम सम्पूर्ण विधि से सन्ध्यावन्दन के साथ गायत्री उपासना करना। मेरी यह बात सुनकर सुशान्त प्रसन्न हो गया। उसने निर्धारित विधान के अनुसार कृच्छ चान्द्रायण करते हुए लगातार एक वर्ष तक भगवान् के पावन नाम का जप किया। इस कठोर व्रत के साथ वह निरन्तर १८ घण्टे तक जप करता रहता। वर्ष पूरा होने पर मैंने उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया।
जिस दिन उसका यह संस्कार हुआ, उस दिन वह आह्लादित था। उसके बाद उसने अपनी गायत्री साधना प्रारम्भ की। तीनों समय सन्ध्योपासना के साथ गायत्री आराधना। इसी आराधना में घुलते गए उसके हृदय के भाव। वह अपने सभी भावों को भगवती के चरणों में अर्पित करता गया। अभिमान अर्पित होकर समर्पण हो गया। क्रोध ने संकल्प का रूप धारण किया। काम जगन्माता में समर्पित होकर भक्ति बन गया। उसकी साधना अविराम बनी रही, साथ ही उसके दुर्गण, सद्गुण में रूपान्तरित होते गए। दिन बीते, मास-वर्ष बीते। साथ ही उसके कलंक धुलते गए। वह निष्कलंक, निष्कपट एवं निर्मल होता गया। अब तो उसे अपमानित करने वाले लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे क्योंकि अब उन्हें भी उसकी साधना की सुगन्ध प्रभावित करने लगी। वे सब भी कहने लगे कि साधना के संस्कार सुप्त भले ही हो जाएँ पर लुप्त कभी नहीं होते।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५७

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