शनिवार, 10 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १)

👉 भक्ति की अभिव्यक्ति
    
भक्ति गाथा, भक्तों की अनुभव कथा है। रसभीगी, भावभीगी भक्ति की अभिव्यक्ति है यह। देवर्षि नारद के भक्ति सूत्र में इसकी सभी गाथाएँ, कथाएँ व अभिव्यक्तियाँ पिरोयी है। नारद भक्ति सूत्र पर पहले भी प्रचुर लेखन हुआ है। अनेकों ने अपनी कथनी इसके साँचे में ढाल कर कही है। लेकिन इस पुस्तक के लेखन में अनुभव के प्रयोग हैं। यह कहने में न कोई संकोच है, न सन्देह और न कोई संशय कि इस पुस्तक में पहली बार नारद भक्ति सूत्र का कथा भाष्य प्रकाशित किया जा रहा है। प्रत्येक सूत्र का अर्थ, उसका अन्तर्बोध किसी न किसी भक्त की अनुभव कथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। जिन भक्तों की भक्ति-अभिव्यक्ति इसमें कही गयी है, उसमें एक अपना अस्तित्त्व भी शामिल है।
    
परम पूज्य गुरुदेव के प्रथम दर्शन के साथ ही अपने अन्तस में भक्ति के अंकुर फूटे। दर्शन, मिलन, सान्निध्य, सामीप्य व शिक्षण की निरन्तरता एवं प्रगाढ़ता के साथ अपनी बौद्धिक चेतना भक्ति चेतना में रूपान्तरित होती गयी। गायत्रही महामंत्र के तीनों चरण, वरण, धारण व सन्मार्ग पर अग्रगमन ने समावेशित होकर गुरुभक्ति में ईश्वर भक्ति का अनुभव कराया। और तब बन पड़ा भक्ति गाथा के रूप में नारद भक्ति सूत्र का यह कथा भाष्य। इसमें निहित अन्तर्दृष्टि, सृजन चेतना, वैदुष्य व कथा शैली सबमें इसका लेखक या भाष्यकार सर्वथा अनुपस्थित है। इसमें उपस्थित, प्रतिबिम्बित व विद्यमान है तो बस केवल गुरुदेव भगवान् का दिव्य व्यक्तित्व। युगदेवता, युगाराध्य श्रीराम चन्दन के समान अपने गन्ध रूप गुण से इसमें सर्वत्र व्याप्त हैं। वेदान्त सूत्र के शब्दों में इसे ‘अविरोधश्चंदनवत्’ (२/३/२३) ही समझना चाहिए।
    
इस विशद् भक्ति सिंचित कथा भाष्य का परिचय देते हुए याद आती है छान्दोग्य उपनिषद् की एक सुपरिचित श्रुति- इदं वाव तज्जेष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म प्रब्रूयात् प्रणाय्याय वान्तेवासिने। इस श्रुति वाक्य के अनुसार इस ब्रह्मविद्या के लिए केवल दो तीर्थ- ज्येष्ठ पुत्र और योग्य शिष्य उपयुक्त ठहराये गये हैं। युगऋषि गुरुदेव ने इस श्रुति को अपने दर्शन में ढालते हुए कहा- मनुष्य परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र है, उसका युवराज है। जहाँ तक शिष्य होने की बात है तो- उन्होंने बिना किसी भेदभाव के सभी को अपना शिष्य बनाया। तो इस तरह भक्ति की यह मधुविद्या सभी के लिए है, मानव कल्याण के लिए है।
    
पूज्य गुरुदेव अपने अन्तिम उपदेशों में कहते थे- संवेदना से सिंचित होकर मानव का भविष्य उज्ज्वल होगा। संवेदना का सिंचन अर्थात् भाव की परिष्कृति। परिष्कृत भाव ही प्रेम है और प्रेम की प्रगाढ़ता, व्यापकता और उसकी ईश्वरोन्मुखता ही भक्ति। सच कहें तो इस भक्ति की अभिव्यक्ति से मानव अपनी अनुभूतियों को साझा करने में समर्थ होगा। वह सुख बांटेगा और दुःख बटाएगा। इसी से उसे शान्ति व आनन्द की प्राप्ति हो सकेगी। स्वयं देवर्षि नारद भी तो अपने भक्ति सूत्र में यही कहते हैं- शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च, भक्ति स्वयं शान्तिरूपा और परमानन्दरूपा है। जीवन की सभी समस्याओं का समाधान व शाश्वत ध्येय भी तो यही है।
    
हां यह सच है कि भाष्य लेखन के लिए वाचस्पति मिश्र, अद्वैतानन्द, चित्सुखाचार्य, श्रीकृष्ण वल्लभ, विज्ञानभिक्षु, मध्व, शंकर व भास्कर की तरह प्रखर पाण्डित्य चाहिए। मौलिक चिन्तन के लिए श्रीकृष्ण, व्यास व वाल्मीकि की भांति अन्तर्दृष्टि-योगदृष्टि चाहिए। अपने में ये दोनों नहीं है। है तो बस सद्गुरु कृपा की अनुभूति। जिन्होंने मुझे बोध कराया है-

परमात्मा के हस्तारक्षर है तुम पर।
रोएं-रोएं पर उसका गीत लिखा है।
रोएं-रोएं पर उसके हाथों के चिह्न है।
क्योंकि उसने ही तुम्हें बनाया है।
वही तुम्हारी धड़कनों में है।
वही तुम्हारी श्वास में है।
    
युगऋषि पूज्य गुरुदेव के द्वारा मुझे सौंपी गयी इस अनुभूति को, भक्ति की इस अभिव्यक्ति को, ‘भक्तिगाथा’ पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति के माध्यम से आप सभी को कृतज्ञ भाव से सौंपते हुए स्वयं को कृतार्थ अनुभव कर रहा हूँ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १)

👉 प्रत्यक्ष लगने पर भी सत्य कहां

जो कुछ हम देखते, जानते या अनुभव करते हैं—क्या वह सत्य है? इस प्रश्न का मोटा उत्तर हां में ही दिया जा सकता है, क्योंकि जो कुछ सामने है, उसके असत्य होने का कोई कारण नहीं। चूंकि हमें अपने पर, अपनी इन्द्रियों और अनुभूतियों पर विश्वास होता है इसलिए वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में जो समझते हैं, उसे भी सत्य ही मानते हैं। इतने पर भी जब हम गहराई में उतरते हैं तो प्रतीत होता है कि इन्द्रियों के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे बहुत अधूरे, अपूर्ण और लगभग असत्य ही होते हैं।

शास्त्रों और मनीषियों ने इसीलिए प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये हुए को ही सत्य न मानने तथा तत्वदृष्टि विकसित करने के लिए कहा है। यदि सीधे सीधे जो देखा जाता व अनुभव किया जाता है उसे ही सत्य मान लिया जाय तो कई बार बड़ी दुःस्थिति बन जाती है। इस सम्बन्ध में मृगमरीचिका का उदाहरण बहुत पुराना है। रेगिस्तानी इलाके या ऊसर क्षेत्र में जमीन का नमक उभर कर ऊपर आ जाता है। रात की चांदनी में वह पानी से भरे तालाब जैसा लगता है। प्यासा मृग अपनी तृषा बुझाने के लिये वहां पहुंचता है और अपनी आंखों के भ्रम पर पछताता हुआ निराश वापस लौटता है। इन्द्र धनुष दीखता तो है पर उसे पकड़ने के लिये लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। जल बिन्दुओं पर सूर्य की किरणों की चमक ही आंखों पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालती है और हमें इन्द्र धनुष दिखाई पड़ता है उसका भौतिक अस्तित्व कहीं नहीं होता।

सिनेमा को ही लीजिये। पर्दे पर तस्वीर चलती-फिरती, बोलती, रोती-हंसती दीखती हैं। असम्भव जैसे जादुई दृश्य सामने आते हैं। क्या वह सारा दृश्यमान सत्य है। प्रति सेकेण्ड सोलह की गति से घूमने वाली अलग-अलग तस्वीरें हमारी आंखों की पकड़ परिधि से आगे निकल जाती हैं फलतः दृष्टि भ्रम उत्पन्न हो जाता है। स्थिर तस्वीरें चलती हुई मालूम पड़ती हैं। लाउडस्पीकर से शब्द अलग जगह निकलते हैं और तस्वीरें अलग जगह चलती हैं पर आंख कान इसी धोखे में रहते हैं कि तस्वीरों के मुंह से ही यह उच्चारण या गायन निकल रहे हैं।

प्रातःकालीन ऊषा और सायंकालीन सूर्यास्त के समय आकाश में जो रंग बिरंगा वातावरण छाया रहता है क्या वह यथार्थ है? वस्तुतः वहां कोई रंग नहीं होता यह प्रकाश किरणों के उतार चढ़ाव का दृष्टि संस्थान के साथ आंख मिचौनी ही है। आसमान नीला दीखता है पर वस्तुतः उसका कोई रंग नहीं है। पीला का रंग हो भी कैसे सकता है? आसमान को नीला बता कर हमारी आंखें धोखा खाती हैं और मस्तिष्क को भ्रमित करती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ३

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