मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (भाग 2)

क्रोध दुःख के चेतन कारण के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। कभी-2 हम दुःख के अनुमान मात्र से उद्विग्न हो उठते हैं। अमुक ने हमारे लिए ऐसा बुरा सोचा, या कोई षड्यन्त्र बनाया-ऐसा सोच कर हम क्रोध से तिलमिला उठते हैं, आँख भौं सिकोड़ लेते हैं, चेहरा सुर्ख हो उठता है और हम यह अवसर देखा करते हैं कि कब वह व्यक्ति आये और कब हम प्रतिशोध लें।

क्रोध में दो भाव मूल रूप से विद्यमान रहते हैं- (1) साक्षात्कार के समय दुःख (2) उसके कारण के सम्बन्ध का परिज्ञान। दुःख के कारण की स्पष्ट धारणा जब तक न हो, तब तक क्रोध की भावना का उदय नहीं होता। कारण का ज्ञान क्रोध की उत्पत्ति में सहायक होता है। यदि किसी ने हमारा अहित किया है और हम उससे अप्रसन्न हैं, तो क्रोध का भाव मन की किसी गुप्त कन्दरा में छिपा रहता है।

क्रोध का सम्बन्ध मन के अन्य विकारों से बड़ा घनिष्ठ है। क्रोध के वशीभूत होकर हमें उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता और हम हाथापाई कर उठते हैं बातों-बातों ही में उखड़ उठना, लड़ाई झगड़ा साधारण सी बात हैं। यदि तुरन्त क्रोध का प्रकाशन हो जाय, तब तो मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक है, पर यदि वह अन्त प्रदेश में पहुँच कर एक भावना ग्रन्थि धन जाय, तो बड़ी दुःखदायी होती है। बहुत दिनों तक टिका हुआ क्रोध वैर कहलाता है। वैर एक ऐसी मानसिक बीमारी है जिसका कुफल मनुष्य को दैनिक जीवन में भुगतना पड़ता है। वह अपने आपको संतुलित नहीं रख पाता। जिससे उसे वैर है, उसके उत्तम गुण, भलाई, पुराना प्रेम, उच्च संस्कार इत्यादि सब विस्मृत कर बैठता है। स्थायी रूप से एक भावना ग्रन्थि बन जाने से क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है किन्तु दूसरे व्यक्ति को सजा देने, नुकसान पहुँचाने या पीड़ित करने की कुत्सित भावना निरन्तर मन को दग्ध किया करती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 16


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 11 April 2023

ईमानदारी के साथ सद्दुदेश्य लेकर मनोयोगपूर्वक श्रम किया जाय, यह कर्त्तव्य है।  कर्म करने के उपरान्त जो प्रतिफल सामने आये उससे प्रसन्न रहने का नाम संतोष है। संतोष का यह अर्थ नहीं है कि जो है उसी को पर्याप्त मान लिया जाय, अधिक प्रगति एवं सफलता के लिए प्रयत्न ही न किया जाय। ऐसा संतोष तो अकर्मण्यता का पर्यायवाचक हो जाएगा।

दृढ़ता से रहित विनम्रता नैतिक अंतर्द्वन्द्व का कारण बनती है। सही, खरी, उचित और सामान्य बात भी किसी से इस भय से न कही जाय कि कहीं उसके अहं को चोट न पहुँच जाए, कहीं वह भड़क न उठे या कि रुष्ट न हो जाए तो यह विनम्रता नहीं। भले ही इस विनम्रता के पीछे दब्बूपन न हो, पर सामाजिक नैतिकता की उपेक्षा तो है ही। अनौचित्य के विरुद्ध दृढ़ता आवश्यक है। यहाँ विनम्रता का प्रदर्शन या तो कायरता होती है या मूर्खता। कायरता पूर्ण विनम्रता का तात्पर्य है दब्बूपन और धूर्ततापूर्ण विनम्रता का अर्थ है अनैतिक जीवन।

सभ्यता का मुख्य चिह्न शिष्टाचार को माना गया है, किन्तु आज लोगों ने शिष्टाचार को शिक्षा, वस्त्रों तथा बाहरी दिखावे तक ही सीमित कर दिया है। वस्तुतः शिष्टाचार का मुख्य तत्त्व मनुष्य के हृदय में रहने वाले स्नेह, सौहार्द्र, श्रद्धा एवं सद्भावना में निहित रहता है। भारतीय मान्यता के अनुसार अंदर से शून्य रहकर बाहर से विनम्र, विनीत किन्तु अश्रद्धालु रहकर स्नेह-स्वागत, सद्भावना, सौहार्द्र अथवा आवभगत का ढंग प्र्रदर्शित करना अशिष्टाचार ही माना गया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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