क्रोध दुःख के चेतन कारण के साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। कभी-2 हम दुःख के अनुमान मात्र से उद्विग्न हो उठते हैं। अमुक ने हमारे लिए ऐसा बुरा सोचा, या कोई षड्यन्त्र बनाया-ऐसा सोच कर हम क्रोध से तिलमिला उठते हैं, आँख भौं सिकोड़ लेते हैं, चेहरा सुर्ख हो उठता है और हम यह अवसर देखा करते हैं कि कब वह व्यक्ति आये और कब हम प्रतिशोध लें।
क्रोध में दो भाव मूल रूप से विद्यमान रहते हैं- (1) साक्षात्कार के समय दुःख (2) उसके कारण के सम्बन्ध का परिज्ञान। दुःख के कारण की स्पष्ट धारणा जब तक न हो, तब तक क्रोध की भावना का उदय नहीं होता। कारण का ज्ञान क्रोध की उत्पत्ति में सहायक होता है। यदि किसी ने हमारा अहित किया है और हम उससे अप्रसन्न हैं, तो क्रोध का भाव मन की किसी गुप्त कन्दरा में छिपा रहता है।
क्रोध का सम्बन्ध मन के अन्य विकारों से बड़ा घनिष्ठ है। क्रोध के वशीभूत होकर हमें उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता और हम हाथापाई कर उठते हैं बातों-बातों ही में उखड़ उठना, लड़ाई झगड़ा साधारण सी बात हैं। यदि तुरन्त क्रोध का प्रकाशन हो जाय, तब तो मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक है, पर यदि वह अन्त प्रदेश में पहुँच कर एक भावना ग्रन्थि धन जाय, तो बड़ी दुःखदायी होती है। बहुत दिनों तक टिका हुआ क्रोध वैर कहलाता है। वैर एक ऐसी मानसिक बीमारी है जिसका कुफल मनुष्य को दैनिक जीवन में भुगतना पड़ता है। वह अपने आपको संतुलित नहीं रख पाता। जिससे उसे वैर है, उसके उत्तम गुण, भलाई, पुराना प्रेम, उच्च संस्कार इत्यादि सब विस्मृत कर बैठता है। स्थायी रूप से एक भावना ग्रन्थि बन जाने से क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है किन्तु दूसरे व्यक्ति को सजा देने, नुकसान पहुँचाने या पीड़ित करने की कुत्सित भावना निरन्तर मन को दग्ध किया करती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 16
क्रोध में दो भाव मूल रूप से विद्यमान रहते हैं- (1) साक्षात्कार के समय दुःख (2) उसके कारण के सम्बन्ध का परिज्ञान। दुःख के कारण की स्पष्ट धारणा जब तक न हो, तब तक क्रोध की भावना का उदय नहीं होता। कारण का ज्ञान क्रोध की उत्पत्ति में सहायक होता है। यदि किसी ने हमारा अहित किया है और हम उससे अप्रसन्न हैं, तो क्रोध का भाव मन की किसी गुप्त कन्दरा में छिपा रहता है।
क्रोध का सम्बन्ध मन के अन्य विकारों से बड़ा घनिष्ठ है। क्रोध के वशीभूत होकर हमें उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता और हम हाथापाई कर उठते हैं बातों-बातों ही में उखड़ उठना, लड़ाई झगड़ा साधारण सी बात हैं। यदि तुरन्त क्रोध का प्रकाशन हो जाय, तब तो मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक है, पर यदि वह अन्त प्रदेश में पहुँच कर एक भावना ग्रन्थि धन जाय, तो बड़ी दुःखदायी होती है। बहुत दिनों तक टिका हुआ क्रोध वैर कहलाता है। वैर एक ऐसी मानसिक बीमारी है जिसका कुफल मनुष्य को दैनिक जीवन में भुगतना पड़ता है। वह अपने आपको संतुलित नहीं रख पाता। जिससे उसे वैर है, उसके उत्तम गुण, भलाई, पुराना प्रेम, उच्च संस्कार इत्यादि सब विस्मृत कर बैठता है। स्थायी रूप से एक भावना ग्रन्थि बन जाने से क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है किन्तु दूसरे व्यक्ति को सजा देने, नुकसान पहुँचाने या पीड़ित करने की कुत्सित भावना निरन्तर मन को दग्ध किया करती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 16
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform
Shantikunj WhatsApp
8439014110
Official Facebook Page
Official Twitter
Official Instagram
Youtube Channel Rishi Chintan
Youtube Channel Shantikunjvideo