🔶 इसकी तुलना में दूसरी बात है जिनके पास अपार सम्पदाएँ थीं और रावण जैसों के पास सम्पदाओं की क्या कमी थी, उसकी सोने की लंका बनी हुई थी, लेकिन वह स्वयं भी दुःख में रहा, स्वयं भी क्लेश-चक्र में पड़ा रहा, उसके सम्पर्क में जो लोग आये, जहाँ कहीं भी वह गया, वहाँ उसने दुःख फैलाया है और संकट फैलाया। सम्पत्ति से क्या लाभ रहा? विद्या से मैं चैन से रहा हूँ, लेकिन उसके पास विद्या होने से भी क्या लाभ हुआ? उसके पास धन था, विद्या थी, बल था, सब कुछ तो था, लेकिन एक ही बात की कमी थी भावनात्मक स्तर का न होना।
🔷 बस, एक ही समस्या का आधार है, जिसे यों हम समझ लें तो फिर हम उपाय भी खोज लेंगे और विजय भी मिलेगी। उपाय भी खोज लेंगे और विजय भी मिलेगी। उपाय हम अनेक ढूँढ़ते रहते हैं, पर मैं समझता हूँ कि इतने पर भी समाधान नहीं हो पाते। खून अगर खराब हो तो खराब खून के रहते हुए फिर कोई दवा-दारू कुछ काम नहीं करेगी। फुन्सियाँ निकलती रहती हैं। एक फुन्सी पर पट्टी बाँधी, दूसरा घाव फिर पैदा हो जाएगा। बराबर कोई न कोई शिकायत पैदा होती रहेगी। खून खराब हो तब खून साफ हो जाए तब, न कोई फुन्सी उठने वाली न कोई चीज उठने वाली है। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारा भावनात्मक स्तर ऊँचा हो तो न कोई समस्या पैदा होने वाली है और न कोई गुत्थी पड़ने वाली है। इसके विपरीत हमारी मनःस्थिति और हमारा दृष्टिकोण गिरा हुआ हो तो हम जहाँ कहीं भी रहेंगे अपने लिए समस्या पैदा करेंगे और दूसरों के लिए भी समस्या पैदा करेंगे। यही वस्तुस्थिति है और यही इसका आज की परिस्थितियों का दिग्दर्शन है।
🔶 भूतकाल में भारतवर्ष का इतिहास उच्चकोटि का रहा है, समुन्नत रहा, सुखी रहा है। इस पृथ्वी पर देवता निवास करते थे, स्वर्ग की परिस्थितियाँ थीं, इसका और कोई कारण नहीं था, न आज के जैसे साधन उस जमाने में थे। आज जितनी नहरें हैं उतनी उस जमाने में थीं कहाँ? आज बिजली का जितना साधन-शक्ति प्राप्त है, उस जमाने में कहाँ थी? आज जितने अच्छे पक्के मकान और दूसरे यातायात के साधन हैं, उस जमाने में कहाँ थे? लेकिन इस पर भी यह देश सम्पदा का स्वामी था। इस देश के नागरिक देवताओं के शिविर में चले जाते थे। यह भूमि तब ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ मानी जाती थी। यद्यपि आज की तुलना में अभावग्रस्त थी, उस जमाने में इसका क्या कारण था? इसका कारण एक ही था कि उस जमाने के लोग उच्चकोटि का दृष्टिकोण अपनाये हुए थे। उनकी भावनाएँ उच्चस्तर की थीं। उसका परिणाम यह था कि लोग परस्पर स्नेहपूर्वक रहते थे, सहयोगपूर्वक रहते थे, परस्पर विश्वास करते थे, एक-दूसरे के प्रति वफादार होते थे, संयमी होते थे, सदाचारी होते थे, मिल-जुलकर रहना जानते थे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)
🔷 बस, एक ही समस्या का आधार है, जिसे यों हम समझ लें तो फिर हम उपाय भी खोज लेंगे और विजय भी मिलेगी। उपाय भी खोज लेंगे और विजय भी मिलेगी। उपाय हम अनेक ढूँढ़ते रहते हैं, पर मैं समझता हूँ कि इतने पर भी समाधान नहीं हो पाते। खून अगर खराब हो तो खराब खून के रहते हुए फिर कोई दवा-दारू कुछ काम नहीं करेगी। फुन्सियाँ निकलती रहती हैं। एक फुन्सी पर पट्टी बाँधी, दूसरा घाव फिर पैदा हो जाएगा। बराबर कोई न कोई शिकायत पैदा होती रहेगी। खून खराब हो तब खून साफ हो जाए तब, न कोई फुन्सी उठने वाली न कोई चीज उठने वाली है। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारा भावनात्मक स्तर ऊँचा हो तो न कोई समस्या पैदा होने वाली है और न कोई गुत्थी पड़ने वाली है। इसके विपरीत हमारी मनःस्थिति और हमारा दृष्टिकोण गिरा हुआ हो तो हम जहाँ कहीं भी रहेंगे अपने लिए समस्या पैदा करेंगे और दूसरों के लिए भी समस्या पैदा करेंगे। यही वस्तुस्थिति है और यही इसका आज की परिस्थितियों का दिग्दर्शन है।
🔶 भूतकाल में भारतवर्ष का इतिहास उच्चकोटि का रहा है, समुन्नत रहा, सुखी रहा है। इस पृथ्वी पर देवता निवास करते थे, स्वर्ग की परिस्थितियाँ थीं, इसका और कोई कारण नहीं था, न आज के जैसे साधन उस जमाने में थे। आज जितनी नहरें हैं उतनी उस जमाने में थीं कहाँ? आज बिजली का जितना साधन-शक्ति प्राप्त है, उस जमाने में कहाँ थी? आज जितने अच्छे पक्के मकान और दूसरे यातायात के साधन हैं, उस जमाने में कहाँ थे? लेकिन इस पर भी यह देश सम्पदा का स्वामी था। इस देश के नागरिक देवताओं के शिविर में चले जाते थे। यह भूमि तब ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ मानी जाती थी। यद्यपि आज की तुलना में अभावग्रस्त थी, उस जमाने में इसका क्या कारण था? इसका कारण एक ही था कि उस जमाने के लोग उच्चकोटि का दृष्टिकोण अपनाये हुए थे। उनकी भावनाएँ उच्चस्तर की थीं। उसका परिणाम यह था कि लोग परस्पर स्नेहपूर्वक रहते थे, सहयोगपूर्वक रहते थे, परस्पर विश्वास करते थे, एक-दूसरे के प्रति वफादार होते थे, संयमी होते थे, सदाचारी होते थे, मिल-जुलकर रहना जानते थे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)