सोमवार, 23 अप्रैल 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 23 April 2018


👉 शरीर भगवान का मन्दिर

🔷 मन्दिर को सजाने-सँवारने में भगवान को भुला देना निरी है । किन्तु देवालयों को गन्दा, तिरस्कृत, जीर्ण-शीर्ण रखना भी पाप माना जाता है । इसी प्रकार शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही सजाने-सॅंवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं हमें सन्तुलन का मार्ग अपनाना चाहिए । शारीरिक आरोग्य के मुख्य आधार आत्म-संयम एवं नियमितता ही हैं, इनकी उपेक्षा करके मात्र औषधियों के सहारे आरोग्य लाभ का प्रयास मृगमरीचिका के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (५.५)

👉 The Body – A Temple of God

🔷 In efforts of decorating the temple, neglecting God himself is a gross mistake, and at the same time, keeping temples neglected and shabby is considered a sin. Similarly, neglecting this human body, thinking it as transient, or over indulgence in adorning it - both the approaches are harmful. We have to strike a balance between the two. The basic foundation of sound physical health is self-control and discipline only, hence neglecting them and desiring better health with medicines and tonics is nothing but an illusion, a mirage.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojana – The Vision, Structure and the Program – 66 (5.5)

👉 बहुमूल्य जीवन

🔷 मित्रो ! अभागों की दुनियाँ अलग है और सौभाग्यवानों की अलग। अभागे जिस-तिस प्रकार लालच को पोषते, अविवेकी प्रजनन में निरत रहकर कमर तोडऩे वाला बोझ लादते, व्यामोह में तथाकथित अपनों को कुसंस्कारी बनाते, अपव्ययी, असंयमी रहकर दुव्र्यसनों के शिकार बनते, अहंता के परिपोषण में समय बिताते हैं। रोते-कलपते, खीजते-खिजाते, डरते-डराते, छेड़ते-पीटते लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ हर गली चौराहों पर खड़े देखे जा सकते हैं। इन्हीं दुर्दशाग्रस्तों की भीड़ में जा घुसना समझदारी कहाँ है?
  
🔶 भगवान किसी को उच्च शिक्षा से वंचित भले ही रखे पर इतनी समझ तो दे कि हित-अनहित में अंतर करना आए। भले ही शूर-वीर योद्धा बनने का श्रेय किसी को न मिले पर इतनी सूझ-बूझ तो रहे कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है और उसे सार्थक बनाने के लिए भीड़ के साथ न चलने और अपना रास्ता आप चुनने जितना विवेक तो चाहिए ही।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग धर्म पृष्ठ नं-८

👉 Lord Jagannath

🔷 It was the time of aarti. The temple of Lord Jagannath was reverberating with the elevating sounds of conch-blowing and bell-ringing. Standing by the side of Garuda-pillar, Mahaprabhu Chaitanya was immersed in singing the glory of God. The gathering of devotees inside was swelling by the moment.

🔶 Fresh arrivals were finding it difficult to get a darshan (view) of the Lord’s image. An oriya woman, having exhausted all the attempts at darshan, climbed the Guruda pillar, planted one leg on the Mahaprabhu could not stand this audacity of the woman and started rebuking her. But the Mahaprabhu stopped him and said: “Why interfere? Let her continue with her darshan. Alas! Had I too possessed  her intense thirst for darshan, I would have been blessed.”

🔷 As soon as Mahaprabhu had spoken these words, the women jumped down and fell at his  feet begging forgiveness. Mahaprabhu withdrew his feet and consoled her: “Arey! What are you doing? It is  I who should bow at your jeet so that I, too, may be filled with the devout longing for the Lord as you are”.

📖 From Akhand Jyoti

👉 गुरुगीता (भाग 92)

👉 सत् चित् आनन्दमयी सद्गुरु की सत्ता

🔷 इस सम्बन्ध में एक अनुभूत कथा है। यह कथा सन्त हरिहर बाबा के एक शिष्य जगतराम की है। यह जगतराम बनारस के पास एक गाँव का अनपढ़-गँवार लड़का था। अपने गाँव में गाय-भैंस आदि जानवर चराया करता था। न जाने किस प्रेरणा से बाबा के पास आ गया। उसके पास इतनी बुद्धि नहीं थी कि उसे कुछ विशेष समझाया जा सके, लेकिन फिर भी उसे भगवान् की भक्ति करने की लगन थी, पर भगवान् को तो वह जानता नहीं था। सो उसने अपने गुरुदेव हरिहर बाबा को ही भगवान् मान लिया था। बस, उसे बाबा की एक बात समझ में न जाने कैसे आ गई थी कि इंसान जो सोचता है, एक दिन वही बन जाता है। इसलिए जो तुम चाहते हो, सो सोचा करो। बड़ी आसान और सहज बात थी, यह मन में जम गई। सरल चित्त जगतराम को तो अपने गुरु में भगवान् को पाना था। उसे गुरुभक्ति में भगवद्भक्ति करनी थी।
  
🔶 बस, इसी लगन के साथ वह अपनी सोच में तल्लीन हो गया। उसे आसन, बन्ध, मुद्राएँ, प्राणायाम एवं ध्यान आदि क्रियाएँ तो आती न थीं। शास्त्र को न तो उसने पढ़ा था और न सुना था। कठिन-कठिन बातें उसे समझ में न आती थीं। बस, एक बात मन में थी, जो चाहिए उसे सोचो। जो सोचोगे, वैसा अपने आप मिलेगा। हरिहर बाबा के इस कथन को उसने अपने जीवन का महामंत्र मान लिया। उसे जब भी समय मिलता, गंगा किनारे बैठकर हरिहर बाबा की छवि का ध्यान करते हुए मन ही मन उनकी पूजा किया करता। मंदिर में पूजा होती उसने देखी थी, बस, वह अपने गुरु की वैसी ही पूजा करता। धूप, दीप, नैवेद्य, आरती सब कुछ मंदिर की भाँति वह मन ही मन करता, लेकिन प्रत्यक्ष में उसके पास न तो कोई साधन होता और न सामान। अपने इस काम में उसे न तो दिन दीखता और न रात।
  
🔷 चिलचिलाती धूप हो या फिर कड़ाके की ठण्ड, सुबह का उजाला हो या शाम का अँधेरा या फिर घनी काली रात, उसे तो बस अपने गुरु की भावपूजा भाती थी। इस पूजा में वह अपने सारे भाव उड़ेल देता। ऐसी पूजा करते हुए कई बरस बीत गये। एक रात जब वह भावपूजा में लीन था, तो उसे ऐसा लगा, जैसे कि हरिहर बाबा सचमुच ही उसके पास आ खड़े हुए हों। बस, इस आ खड़े होने में फरक यह था कि यह उनका प्रकाश शरीर था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे हरिहर बाबा के शरीर के सारे अंग प्रकाश के बने हों। बड़ी भक्ति से वह मन ही मन अपने गुरुदेव को निहारता रहा। इस प्रक्रिया में उसे कितना समय बीता याद नहीं। याद तो उसे तब आई, जब उसे अनुभव हुआ कि गुरुदेव का सम्पूर्ण प्रकाश शरीर एकाएक बिखर कर उसके रोम-रोम में समा गया।
  
🔶 सम्पूर्ण प्रकाश न केवल उसमें लीन हुआ, बल्कि लीन होकर उसके ही अन्दर घनीभूत होने लगा। हृदय स्थल पर वह सम्पूर्ण प्रकाशज्योति के रूप में घनीभूत हो गया। यह सारा वाकया कुछ ही समय में घटित हो गया। हृदय मध्य में अंगुष्ठज्योति प्रकाशित हो उठी और साथ ही सुनाई दी हरिहर बाबा की चिर-परिचित वाणी-‘बेटा जगत! अब से तू ज्योति के बारे में सोचा कर। इसी को निहार, इसी को देख, इसी की भक्ति कर।’ जो आज्ञा बाबा! कहते हुए जगतराम ने अपने कार्यक्रम में थोड़ा फेरबदल कर लिया। स्थिति वही रही, बस सोचने का केन्द्रबिन्दु बदल गया। इस अंगुष्ठज्योति को निहारने में दिन-रात बीतने लगे। सालोंसाल यही क्रिया चलती रही। जाड़ा-गरमी, धूप-छाँव पहले की ही भाँति गुजर गये। उसे होश तब आया, जब फिर से एक रात्रि को दृश्य बदला।
  
🔷 अब की बार उसने अनुभव किया कि उसकी वही हृदयज्योति अचानक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गई। सृष्टि का कण-कण उसी से प्रकाशित है। इस प्रकाश की धाराएँ उसे न जाने कब से कब तक नहलाती रहीं। वह अनूठी भावसमाधि में बेसुध बना रहा। उसके तन, मन, प्राण, भाव, बुद्धि सब प्रकाशित हो गये। जब उसे होश आया, तब उसने देखा कि उसके गुरु हरिहर बाबा खड़े हैं, जो उसे बड़े प्यार से निहार रहे हैं। उनकी आँखों में अपूर्व वात्सल्य था। इसी वात्सल्य से सने स्वरों में वे उससे बोले- ‘बेटा! जो गुरु है—वही आत्मा है, जो आत्मा है—वही परमात्मा है।’ जो इन तीनों को एक मानता है, वही सचमुच का ज्ञानी है। उनकी यह वाणी शिष्यों की धरोहर बन गई।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 138

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...