🔴 इच्छा और आवश्यकता में यथेष्ट अन्तर है, यद्यपि अनेक व्यक्ति एक ही अर्थ में इनका प्रयोग करते हैं। इच्छा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। हम नाना प्रकार की वस्तुएं देखते हैं और लुभा कर उनकी इच्छा करने लगते हैं। ऐसी ही एक इच्छा हमारी आवश्यकता भी है। आवश्यकता केवल ऐसी इच्छा है जिसके बिना हम रह नहीं सकते, जिसके लिए हमारे पास पर्याप्त साधन हैं और जिसे प्राप्त करने से हमारी तृप्ति हो सकती है। कुछ आवश्यकताएं रुपये पैसे से, और कुछ उसके बिना भी पूर्ण हो सकती हैं। अनेक बार रुपये पैसे की कमी श्रम द्वारा पूर्ण हो जाती है।
🔵 महंगाई से बचने का एक उपाय है। आप अपनी आवश्यकताओं का अध्ययन करें। जो आराम, विलास, या फैशन की वस्तुएं हैं, उन्हें तुरन्त त्याग दें। अनावश्यक टीपटाप, दिखावा, सौंदर्य प्रतियोगिता, मिथ्या आडंबर, टायलेट का सामान, मादक द्रव्यों का सेवन छोड़ दें। नौकर छुड़ा दें और स्वयं उनका कार्य करें। अपने छोटे मोटे कार्य-कमरे की सफाई, जूता पालिश, साधारण कपड़े धोना, बाजार से सब्जी लाना, बच्चों या पत्नी को पढ़ाना, अपनी गाय भैंस की देख रेख-स्वयं कर लिया करें।
🔴 आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने का नाम अतृप्ति और दुःख है उन्हें कम कर पूर्ति करने से सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। मनुष्य एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं रहता। अतः असंतोष सदैव बना रहता है। वह असंतोष निंदनीय है जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन रात हाय-हाय करता रहे और न पाने पर असंतुष्ट, अतृप्त, और दुःखी रहे। तृष्णाएं एक के पश्चात् दूसरी बढ़ेगी। एक आवश्यकता की पूर्ति होगी, तो दो नई आवश्यकताएं आकर उपस्थित हो जायेंगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। इस प्रकार आवश्यकताओं को मर्यादा के भीतर बाँधने के लिए एक विशेष शक्ति-मनोनिग्रह की जरूरत है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 महंगाई से बचने का एक उपाय है। आप अपनी आवश्यकताओं का अध्ययन करें। जो आराम, विलास, या फैशन की वस्तुएं हैं, उन्हें तुरन्त त्याग दें। अनावश्यक टीपटाप, दिखावा, सौंदर्य प्रतियोगिता, मिथ्या आडंबर, टायलेट का सामान, मादक द्रव्यों का सेवन छोड़ दें। नौकर छुड़ा दें और स्वयं उनका कार्य करें। अपने छोटे मोटे कार्य-कमरे की सफाई, जूता पालिश, साधारण कपड़े धोना, बाजार से सब्जी लाना, बच्चों या पत्नी को पढ़ाना, अपनी गाय भैंस की देख रेख-स्वयं कर लिया करें।
🔴 आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने का नाम अतृप्ति और दुःख है उन्हें कम कर पूर्ति करने से सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। मनुष्य एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं रहता। अतः असंतोष सदैव बना रहता है। वह असंतोष निंदनीय है जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन रात हाय-हाय करता रहे और न पाने पर असंतुष्ट, अतृप्त, और दुःखी रहे। तृष्णाएं एक के पश्चात् दूसरी बढ़ेगी। एक आवश्यकता की पूर्ति होगी, तो दो नई आवश्यकताएं आकर उपस्थित हो जायेंगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। इस प्रकार आवश्यकताओं को मर्यादा के भीतर बाँधने के लिए एक विशेष शक्ति-मनोनिग्रह की जरूरत है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य