ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान
अन्तर्यात्रा के मार्ग पर चलने वाले सौभाग्यशाली होते हैं। यह मार्ग अपने प्रयोगों में निरन्तर सूक्ष्म होता जाता है। व्यवहार के प्रयोग विचारों की ओर और विचारों के प्रयोग संस्कारों की ओर सरकने लगते हैं। व्यवहार को रूपान्तरित, परिवर्तित करने वाले यम-नियम के अनुशासन, शरीर व प्राण को स्थिर करने वाली आसन एवं प्राणायाम की क्रियाओं की ओर गतिशील होते हैं। यह गतिशीलता प्रत्याहार व धारणा की आंतरिक गतियों की ओर बढ़ती हुई ध्यान की सूक्ष्मताओं में समाती है। इसके बाद शुरू होता है-ध्यान की सूक्ष्मताओं के विविध प्रयोगों का आयोजन। कहने को तो ध्यान की विधा एक ही है, परन्तु इसके सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यन्तर अनेकों हैं। जो इन्हें जितना अधिक अनुभव करते हैं, उनकी योग साधना उतनी ही प्रगाढ़ परिपक्व एवं प्रखर मानी जाती है।
इस प्रगाढ़ता, परिपक्वता एवं प्रखरता के अनुरूप ही साधक को समाधि के समाधान मिलते हैं। ध्यान की सूक्ष्मता जितनी अधिक होती है, समाधि उतनी ही उच्चस्तरीय होती है। सवितर्क-निर्वितर्क, इसके बाद सविचार एवं निर्विचार। महर्षि पतंजलि के अनुसार समाधि के ये अलग-अलग स्तर साधक की साधना की अलग एवं विशिष्ट स्थितियों की व्याख्या करते हैं।
महर्षि अब सूक्ष्म ध्येय में होने वाली सम्प्रज्ञात समाधि के भेद बतलाते हैं-
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता॥ १/४४॥
शब्दार्थ- एतया एव = इसी से (पूर्वोक्त सवितर्क और निर्वितर्क के वर्णन से ही); सूक्ष्म विषया = सूक्ष्म पदार्थों में की जाने वाली; सविचारा =सविचार (और); निर्विचारा = निर्विचार समाधि का; च = भी; व्याख्याता = वर्णन किया गया।
भावार्थ - सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या