शुक्रवार, 27 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 21) 28 Jan
🌹 सार्थक, सुलभ एव समग्र साधना
🔴 आत्मिक प्रगति का महत्त्व समझा जाना चाहिये। व्यक्ति या राष्ट्र की उन्नति उसकी सम्पदा, शिक्षा, कुशलता आदि तक ही सीमित नहीं होती। शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्त्व ही वह उद्गम है जिसके आधार पर अन्यान्य प्रकार की प्रगतियाँ तथा व्यवस्थाएँ अग्रणी बनती हैं, समर्थता का केन्द्र बिन्दु यही है। इस एकाकी विभूति के बल पर किसी भी उपयोगी दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। किन्तु यदि आत्मबल का अभाव रहा तो संकीर्ण स्वार्थपरता ही छाई रहेगी और उसके रहते कोई ऐसा प्रयोजन सध न सकेगा जिसे आदर्शवादी एवं लोकोपयोगी भी कहा जा सके। यहाँ वह उक्ति पूरी तरह फिट बैठती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’
🔵 अनेक प्रकार की समृद्धियों और विशेषताओं से लदा हुआ व्यक्ति अपने कौशल के बलबूते सम्पदा बटोर सकता है। सस्ती वाहवाही भी लूट सकता है। पर जब कभी मानवी गरिमा की कसौटी पर कसा जायेगा तो वह खोटा ही सिद्ध होगा। खोटा सिक्का अपने अस्तित्त्व से किसी को भ्रम में डाले रह सकता है, पर उस सुनिश्चित प्रगति का अधिकारी नहीं बन सकता जिसे ‘महामानव’ के नाम से जाना जाता है। जिसके लिये सभ्य, सुसंस्कृत, सज्जन, समुन्नत जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।
🔴 सन्त परम्परा के अनेकानेक महान ऋषियों, लोकसेवियों एवं युगनिर्र्माताओं से जो प्रबल पुरुषार्थ बन पड़े, उनमें आन्तरिक उत्कृष्टता ही प्रमुख कारण रही। उसी के आधार पर वे निजी जीवन में आत्मसन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती अनुभव करते हैं। अपने व्यक्तित्त्व, कर्तृत्त्व के रूप में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पीछे वालों के लिये छोड़ जाते हैं, जिनका अनुकरण करते हुए गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसे अवसर हस्तगत होते रहें। यही है जीवन की लक्ष्यपूर्ति एवं एकमात्र सार्थकता। प्रज्ञायोग की जीवन साधना इसी महती प्रयोजन की पूर्ति करती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आत्मिक प्रगति का महत्त्व समझा जाना चाहिये। व्यक्ति या राष्ट्र की उन्नति उसकी सम्पदा, शिक्षा, कुशलता आदि तक ही सीमित नहीं होती। शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्त्व ही वह उद्गम है जिसके आधार पर अन्यान्य प्रकार की प्रगतियाँ तथा व्यवस्थाएँ अग्रणी बनती हैं, समर्थता का केन्द्र बिन्दु यही है। इस एकाकी विभूति के बल पर किसी भी उपयोगी दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। किन्तु यदि आत्मबल का अभाव रहा तो संकीर्ण स्वार्थपरता ही छाई रहेगी और उसके रहते कोई ऐसा प्रयोजन सध न सकेगा जिसे आदर्शवादी एवं लोकोपयोगी भी कहा जा सके। यहाँ वह उक्ति पूरी तरह फिट बैठती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’
🔵 अनेक प्रकार की समृद्धियों और विशेषताओं से लदा हुआ व्यक्ति अपने कौशल के बलबूते सम्पदा बटोर सकता है। सस्ती वाहवाही भी लूट सकता है। पर जब कभी मानवी गरिमा की कसौटी पर कसा जायेगा तो वह खोटा ही सिद्ध होगा। खोटा सिक्का अपने अस्तित्त्व से किसी को भ्रम में डाले रह सकता है, पर उस सुनिश्चित प्रगति का अधिकारी नहीं बन सकता जिसे ‘महामानव’ के नाम से जाना जाता है। जिसके लिये सभ्य, सुसंस्कृत, सज्जन, समुन्नत जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।
🔴 सन्त परम्परा के अनेकानेक महान ऋषियों, लोकसेवियों एवं युगनिर्र्माताओं से जो प्रबल पुरुषार्थ बन पड़े, उनमें आन्तरिक उत्कृष्टता ही प्रमुख कारण रही। उसी के आधार पर वे निजी जीवन में आत्मसन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती अनुभव करते हैं। अपने व्यक्तित्त्व, कर्तृत्त्व के रूप में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पीछे वालों के लिये छोड़ जाते हैं, जिनका अनुकरण करते हुए गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसे अवसर हस्तगत होते रहें। यही है जीवन की लक्ष्यपूर्ति एवं एकमात्र सार्थकता। प्रज्ञायोग की जीवन साधना इसी महती प्रयोजन की पूर्ति करती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 खरा सौदा
🔴 किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसके तीन बेटे थे-रामलाल, श्यामलाल, मोहन कुमार। साहूकार के पास रुपए पैसे की कमी न थीं। किंतु अब उसकी उम्र बढ़ रही थी। वह अधिक मेहनत नहीं कर पाता था। इसलिए उसने सोचा कि चलो अपना व्यापार बेटों को सौंप दूं।
🔵 साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’
🔴 तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी।
🔵 उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा।
🔴 फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी।
🔵 श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया।
🔴 मोहन ने पहले भिखारी को खाना खिलाया और फिर मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था।
🔵 उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’
🔴 इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी।
🔵 मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।
🔵 साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’
🔴 तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी।
🔵 उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा।
🔴 फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी।
🔵 श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया।
🔴 मोहन ने पहले भिखारी को खाना खिलाया और फिर मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था।
🔵 उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’
🔴 इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी।
🔵 मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।
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