शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ५३)

चाहत नहीं, तड़प जगे 

योग के मार्ग पर नया-नया चलना आरम्भ किये  साधकों के लिए यह समाधि का महाद्वार खुल जाना सहज नहीं है। उनकी कतिपय आदतें, अतीत के संस्कार, पुरातन प्रवृत्तियाँ यह स्थिति पनपने नहीं देती। उनमें चाहत तो जगती है, लेकिन थोड़े ही दिनों में धूमिल और धुँधली होकर बिखर जाती है। ऐसों को समाधान कैसे मिले? इस यक्ष प्रश्न के समाधान में महर्षि बताते हैं-

मृदुमध्याधिमात्रात्वात्ततोऽपिविशेषः॥ १/२२॥
शब्दार्थ- मृदुमध्याधिमात्रत्वात्= साधना की मात्रा हलकी, मध्यम और उच्च होने के कारण; ततः= तीव्र संवेग वालों में; अपि= भी; विशेषः= (काल का) भेद हो जाता है।
    
अर्थात् योग साधना के प्रयास की मात्रा मृदु, मध्यम और उच्च होने के अनुसार सफलता की सम्भावना अलग-अलग होती है।
    
इस सूत्र में कई उलझी हुई गुत्थियों का समाधान है। जो साधक हैं, साधना करते हैं, उनके लिए इस समाधान को जानना जरूरी है। इस समाधान की पहली बात यह है कि साधना के लिए अपने आप का समग्र नियोजन जरूरी है। आधे-अधूरेपन से, ढीले-ढाले ढंग से काम चलने वाला नहीं है; पर साथ ही एक आश्वासन भी है। यह आश्वासन उनके लिए है, जिनकी साधना में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जिनकी मनोभूमि अभी समग्र रूप से साधना के लिए नियोजित नहीं हुई है। ऐसे साधक जिनकी साधना कभी हल्की चलती है, तो कभी उसकी गति मध्यम हो जाती है। फिर कभी यकायक उसमें तीव्रता आ जाती है। इस उलट-पुलट की स्थिति से गुजरने वालों को महर्षि भरोसा दिलाते हैं कि द्वार तुम्हारे लिए भी खुलेंगे, पर इसमें समय लग सकता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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