शुक्रवार, 13 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 7) 14 Jan
🌹 त्रिविध प्रयोगों का संगम-समागम
🔴 गङ्गा, यमुना, सरस्वती के मिलन से तीर्थराज त्रिवेणी संगम बनता है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश देवाधिदेव हैं। इसी प्रकार सरस्वती, लक्ष्मी, काली, शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं। मृत्यु लोक, पाताल और स्वर्ग ये तीन लोक हैं। गायत्री के तीन चरण हैं, जिन्हें वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के नाम से जाना जाता है। जीवन सत्ता के भी तीन पक्ष हैं, जिन्हें चिन्तन, चरित्र और व्यवहार कहते हैं। इन्हीं को ईश्वर, जीव, प्रकृति कहा गया है। तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करना हो तो इन्हें आत्मा, शरीर और संसार कह सकते हैं। यह त्रिवर्ग ही हमें सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। उद्भव, अभिवर्द्धन और विलयन के रूप में प्रकृति की अनेकानेक हलचलें इसी आधार पर चलती रहती हैं।
🔵 जीवन तीन भागों में बँटा हुआ है- (१) आत्मा, (२) शरीर और (३) पदार्थ सम्पर्क। शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया जाता है। आत्मा को परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाया जाता है तथा संसार में से वैभव और विलास के सुविधा-साधन सँजोये जाते हैं। परिवार समेत समूचा सम्पर्क क्षेत्र भी इसी परिधि में आता है। जीवन साधना का समग्र रूप वह है जिसमें इन तीनों का स्तर ऐसा बना रहे, जिससे प्रगति और शान्ति की सुव्यवस्था बनी रहे।
🔴 इन तीनों में प्रधान चेतना है, जिसे आत्मा भी कह सकते हैं। दृष्टिकोण इसी के स्तर पर विनिर्मित होता है। इच्छाओं, भावनाओं मान्यताओं का रुझान किस ओर हो, दिशाधारा और रीति-नीति क्या अपनाई जाय, इसका निर्णय अन्त:करण ही करता है। उसी के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव बनते हैं। किस दिशा में चला जाय? क्या किया जाय? इसके निमित्त संकल्प उठना और प्रयत्न बन पड़ना भी आत्मिक क्षेत्र का निर्धारण है। इसीलिये आत्मबल को जीवन की सर्वोपरि सम्पदा एवं सफलता माना गया है। इसी के आधार पर संयमजन्य स्वास्थ्य में प्रगति होती है।
🔵 मन में ओजस्, तेजस् और वर्चस्कारी प्रतिभा चमकती है। बहुमुखी सम्पदायें इसी पर निर्भर हैं। इसलिये जीवन साधना का अर्थ आत्मिक प्रगति होता है। वह गिरती-उठती है, तो समूचा जीवन गिरने-उठने लगता है। इसलिये जीवन साधना को आत्मोत्कर्ष प्रधान मानना चाहिये। उसी के आधार पर शरीर व्यवस्था, साधन संचय और जन सम्पर्क का ढाँचा खड़ा करना चाहिये। ऐसा करने पर तीनों ही क्षेत्र सुव्यवस्थित बनते रहते हैं और जीवन को समग्र प्रगति, सफलता या सार्थकता के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 23) 14 Jan
🌹 अशौच में प्रतिबंध
🔴 जन्म-मरण के सूतकों के विषय में भी इसी दृष्टिकोण से विचार किया जाना चाहिए। पूजापरक कृत्यों में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखने का नियम है। इसी से उन दिनों नियमित पूजा-उपचार में प्रतिमा, उपकरण आदि का स्पर्श न करने की प्रथा चली होगी। उस प्रचलन का निर्वाह न करने पर भी मौन-मानसिक जप, ध्यान आदि व्यक्तिगत उपासना का नित्यकर्म करने में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं पड़ता।
🔵 महिलाओं के रजोदर्शन काल में भी कई प्रकार के प्रतिबन्ध हैं, वे अछूत की तरह रहती हैं। भोजन आदि नहीं पकाती। उपासनागृह में भी नहीं जातीं। इसका कारण मात्र अशुद्धि ही नहीं, यह भी है कि उन दिनों उन पर कठोर श्रम का दबाव न पड़े। अधिक विश्राम मिल सके। नस-नाड़ियों में कोमलता बढ़ जाने से उन दिनों अधिक कड़ी मेहनत न करने की व्यवस्था स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए बनी होगी। इन प्रचलनों को जहां माना जाता है वहां कारण को समझते हुए भी प्रतिबन्ध किस सीमा तक रहें इस पर विचार करना चाहिये।
🔴 रुग्ण व्यक्ति प्रायः स्नान आदि के सामान्य नियमों का निर्वाह नहीं कर पाते और ज्वर, दस्त, खांसी आदि के कारण उनकी शारीरिक स्थिति में अपेक्षाकृत अधिक मलीनता रहती है। रोगी परिचर्या के नियमों से अवगत व्यक्ति जानते हैं कि रोगी की सेवा करने वालों या सम्पर्क में आने वालों को सतर्कता, स्वेच्छा के नियमों का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। रोगी को भी दौड़-धूप से बचने और विश्राम करने की सुविधा दी जाती है। उसे कोई चाहे तो छूतछात भी कह सकते हैं। ऐसी ही स्थिति रजोदर्शन के दिनों में समझी जानी चाहिए और उसकी सावधानी बरतनी चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 6
आत्मशोधन
🔴 मित्रो! हमारी हर चीज संशोधित और परिष्कृत होनी चाहिए, स्नान की हुई होनी चाहिए। न्यास में हम प्रत्येक इंद्रिय के परिशोधन की प्रक्रिया की ओर आपको इशारा करते और कहते हैं कि इन सब इंद्रियों को आप सही कीजिए, इंद्रियों को ठोक कीजिए। न्यास में हम आपको आँख से पानी लगाने के लिए कहते हैं मुँह से, वाणी से पानी लगाने के लिए कहते हैं पहले आप इनको धोइए। मंत्र का जप करने से पहले जीभ को धोकर लाइए। तो महाराज जी! जीभ का संशोधन पानी से होता है? नहीं बेटे, पानी से नहीं होता। पानी से इशारा करते हैं जिह्वा के संशोधन का, इंद्रियों के संशोधन का। जिह्वा का स्नान कहीं पानी पीकर हो सकता है? नहीं, असल में हमारा इशारा जिह्वा के प्राण की ओर है, जिसका शोधन करने के लिए अपने आहार और विहार दोनों का संशोधन करना पड़ेगा।
🔵 मित्रो! हमारी वाणी दो हिस्सों में बाँटी गई है- एक को 'रसना' कहते हैं, जो खाने के काम आती हैं और दूसरी को 'वाणी' का भाग कहते हैं, जो बोलने के काम आती है। खाने के काम से मतलब यह है कि हमारा आहार शुद्ध और पवित्र होना चाहिए ईमानदारी का कमाया हुआ होना चाहिए। गुरुजी! मैं तो अपने हाथ का बनाया हुआ खाता हूँ। नहीं बेटे, अपने हाथ से बनाता है कि पराये हाथ वह खाता है, यह इतना जरूरी नहीं है। ठीक है सफाई का ध्यान होना चाहिए, गंदे आदमी के हाथ का बनाया हुआ नहीं खाना चाहिए, ताकि गंदगी आपके शरीर में न जाए, लेकिन असल में जहाँ तक आहार का संबंध है, जिह्वा के संशोधन का संबंध है, उसका उद्देश्य यह है कि हमारी कमाई अनीति की नहीं होनी चाहिए, अभक्ष्य की नहीं होनी चाहिए।
🔴 आपने अनीति की कमाई नहीं खाई है, अभक्ष्य की कमाई नहीं खाई है, दूसरों को पीड़ा देकर आपने संग्रह नहीं किया है। दूसरों को कष्ट देकर, विश्वासघात करके आपने कोई धन का संग्रह नहीं किया है तो आपने चाहे अशोका होटल में बैठकर प्लेट में सफाई से खा लिया हो, चाहे पत्ते पर खा लिया हो, इससे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 17) 14 Jan
🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
🔵 दुनिया के घर घर में पी जाने वाली लिप्टन चाय के निर्माता की प्रगति की कहानी उन्हीं शब्दों में इस प्रकार है ‘‘मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले एक नौकर के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे पांच शिलिंग प्रतिदिन मिलते थे। परिवार का खर्च इससे मुश्किल से चलता था पर मैंने निश्चय कर रखा था जैसे भी होगा थोड़ी बचत अवश्य करेंगे। मेरा लक्ष्य स्वतन्त्र व्यवसाय करने का था। चाय का व्यवसाय मैंने बचत की न्यूनतम राशि से आरम्भ किया। ईमानदारी और श्रम शीलता का पल्ला मैंने कभी नहीं छोड़ा। फिजूलखर्ची से मुझे सख्त घृणा थी। जो काम दो डालर में हो सकता था। उसके लिए कभी भी दो डालर नहीं खर्च किये। यही मेरी सफलता की कहानी है।
🔴 हिन्दुस्तान में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपने आरम्भिक जीवन में अत्यन्त निर्धन और अभाव ग्रस्त रहे पर आगे चलकर परिश्रम, पुरुषार्थ व लगन के बल पर समृद्ध बने। शापुर जी बारोचा का नाम इनमें उल्लेखनीय हैं। बारोचा जब छः वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता की मृत्यु के चार दिन बाद ही बड़े भाई का भी देहान्त हो गया मां ने अपने पहले, पति का समान आदि बेचकर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण किया। शापुराजी पढ़ने के साथ-साथ खाली समय में मेहनत मजदूरी करते मां के ऊपर आये आर्थिक दबाव को कम करने का प्रयास करते थे।
🔵 मैट्रिक पास करके उन्होंने रेलवे में नौकरी की, बाद में बैंक में नौकरी मिल गयी। थोड़े समय बाद वे नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय के क्षेत्र में उतर गये। अपनी सूझ बूझ ईमानदारी एवं परिश्रम शीलता के कारण वे निरन्तर उन्नति करते गये। सम्पत्ति तो एकत्रित की पर लोकोपयोगी कार्यों में बिना किसी नाम अथवा यश के उद्देश्य से खर्च किया। उनके एक मित्र तथा प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं. गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि बरोचा जी मात्र एक सफल व्यवसायी ही नहीं थे वरन् एक उदार व्यक्ति भी थे। उन्होंने लगभग साठ लाख रुपया जनहित कार्यों में खर्च किया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 दुनिया के घर घर में पी जाने वाली लिप्टन चाय के निर्माता की प्रगति की कहानी उन्हीं शब्दों में इस प्रकार है ‘‘मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले एक नौकर के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे पांच शिलिंग प्रतिदिन मिलते थे। परिवार का खर्च इससे मुश्किल से चलता था पर मैंने निश्चय कर रखा था जैसे भी होगा थोड़ी बचत अवश्य करेंगे। मेरा लक्ष्य स्वतन्त्र व्यवसाय करने का था। चाय का व्यवसाय मैंने बचत की न्यूनतम राशि से आरम्भ किया। ईमानदारी और श्रम शीलता का पल्ला मैंने कभी नहीं छोड़ा। फिजूलखर्ची से मुझे सख्त घृणा थी। जो काम दो डालर में हो सकता था। उसके लिए कभी भी दो डालर नहीं खर्च किये। यही मेरी सफलता की कहानी है।
🔴 हिन्दुस्तान में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपने आरम्भिक जीवन में अत्यन्त निर्धन और अभाव ग्रस्त रहे पर आगे चलकर परिश्रम, पुरुषार्थ व लगन के बल पर समृद्ध बने। शापुर जी बारोचा का नाम इनमें उल्लेखनीय हैं। बारोचा जब छः वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता की मृत्यु के चार दिन बाद ही बड़े भाई का भी देहान्त हो गया मां ने अपने पहले, पति का समान आदि बेचकर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण किया। शापुराजी पढ़ने के साथ-साथ खाली समय में मेहनत मजदूरी करते मां के ऊपर आये आर्थिक दबाव को कम करने का प्रयास करते थे।
🔵 मैट्रिक पास करके उन्होंने रेलवे में नौकरी की, बाद में बैंक में नौकरी मिल गयी। थोड़े समय बाद वे नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय के क्षेत्र में उतर गये। अपनी सूझ बूझ ईमानदारी एवं परिश्रम शीलता के कारण वे निरन्तर उन्नति करते गये। सम्पत्ति तो एकत्रित की पर लोकोपयोगी कार्यों में बिना किसी नाम अथवा यश के उद्देश्य से खर्च किया। उनके एक मित्र तथा प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं. गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि बरोचा जी मात्र एक सफल व्यवसायी ही नहीं थे वरन् एक उदार व्यक्ति भी थे। उन्होंने लगभग साठ लाख रुपया जनहित कार्यों में खर्च किया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 71)
🌹 गीता के माध्यम से जन-जागरण
🔴 गीता के माध्यम से जन-जागृति बौद्धिक क्रान्ति की—जो रूपरेखा युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत तैयार की गई है, उसका आधार असाधारण महत्व से परिपूर्ण है। यह प्रक्रिया चल पड़ने से नव-निर्माण कार्य के लिए उपयुक्त जन-मानस तैयार हो सकता है। रूपरेखा नीचे देखिए और फिर उसे सफल बनाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न कीजिए।
🔵 मोह और अज्ञान में डूबे हुए अर्जुन को कठोर कर्तव्य में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने उसे गीता सुनाई और उसे सुनकर निराशा में डूबे हुए भ्रमग्रस्त धनञ्जय ने अपना विचार बदल दिया। कठोर कर्तव्य सभी को भयंकर लगता है, उसे अपनाने का साहस सहसा बन नहीं पड़ता, मनुष्य का स्वभाव किसी तरह काम चलाने और दिन पूरे करने का होता है, झंझट से बचे रहने को ही उसका जी करता है। उसी को वह ‘शान्ति’ मान बैठता है। पर प्रेरक विचारों का जादू तो देखिए—गीता के अमृत छिड़कने से अर्जुन का नया आत्म-बोध हुआ और उसने अपनी कुण्ठा, भीरुता और उदासी को छोड़ कर कठोर कर्तव्य को अपनाया।
🔴 आज हमारा समाज ठीक मोहग्रस्त अर्जुन की स्थिति में है। दीनता और दासता ने उसे गई-गुजरी स्थिति में पहुंचा दिया है। छुटकारा राजनैतिक गुलामी-भर से हुआ है। मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। पश्चिम में से आई अनार्य संस्कृति के व्यामोह से हमारा कण-कण मूर्छित हुआ पड़ा है। अपना सब कुछ हमें तुच्छ दीखता है और बिरानी पत्तल का भात मोहन-भोग जैसा मधुर सूझ रहा है। सामाजिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक सभी क्षेत्रों में कुण्ठाएं हमें घेरे खड़ी हैं। प्रगति की स्वर्णिम किरणों का विश्व के नागरिक आनन्द ले रहे हैं, पर हम अभी भी अवसाद की मूर्छा में पड़े इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति से हमें उबरना ही होगा, अन्यथा इस घुड़दौड़ की प्रगति में बहुत पिछड़ जाने पर हम कहीं के भी न रहेंगे।
🔵 समय की पुकार है कि हम जगें, उठें और आगे बढ़ें। इसके लिए जिस प्रेरणा और चेतना की आवश्यकता है, वह हमें गीता द्वारा ही उपलब्ध होगी। भगवान की वही सन्देश वाणी सुनकर हम मोहमुक्त होंगे और गाण्डीव टंकारते हुए, पांचजन्य बजाते हुए कठोर कर्तव्य के धर्म-क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में अपने पुरुषार्थ का परिचय दे सकने में सफल होंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 गीता के माध्यम से जन-जागृति बौद्धिक क्रान्ति की—जो रूपरेखा युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत तैयार की गई है, उसका आधार असाधारण महत्व से परिपूर्ण है। यह प्रक्रिया चल पड़ने से नव-निर्माण कार्य के लिए उपयुक्त जन-मानस तैयार हो सकता है। रूपरेखा नीचे देखिए और फिर उसे सफल बनाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न कीजिए।
🔵 मोह और अज्ञान में डूबे हुए अर्जुन को कठोर कर्तव्य में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने उसे गीता सुनाई और उसे सुनकर निराशा में डूबे हुए भ्रमग्रस्त धनञ्जय ने अपना विचार बदल दिया। कठोर कर्तव्य सभी को भयंकर लगता है, उसे अपनाने का साहस सहसा बन नहीं पड़ता, मनुष्य का स्वभाव किसी तरह काम चलाने और दिन पूरे करने का होता है, झंझट से बचे रहने को ही उसका जी करता है। उसी को वह ‘शान्ति’ मान बैठता है। पर प्रेरक विचारों का जादू तो देखिए—गीता के अमृत छिड़कने से अर्जुन का नया आत्म-बोध हुआ और उसने अपनी कुण्ठा, भीरुता और उदासी को छोड़ कर कठोर कर्तव्य को अपनाया।
🔴 आज हमारा समाज ठीक मोहग्रस्त अर्जुन की स्थिति में है। दीनता और दासता ने उसे गई-गुजरी स्थिति में पहुंचा दिया है। छुटकारा राजनैतिक गुलामी-भर से हुआ है। मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। पश्चिम में से आई अनार्य संस्कृति के व्यामोह से हमारा कण-कण मूर्छित हुआ पड़ा है। अपना सब कुछ हमें तुच्छ दीखता है और बिरानी पत्तल का भात मोहन-भोग जैसा मधुर सूझ रहा है। सामाजिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक सभी क्षेत्रों में कुण्ठाएं हमें घेरे खड़ी हैं। प्रगति की स्वर्णिम किरणों का विश्व के नागरिक आनन्द ले रहे हैं, पर हम अभी भी अवसाद की मूर्छा में पड़े इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति से हमें उबरना ही होगा, अन्यथा इस घुड़दौड़ की प्रगति में बहुत पिछड़ जाने पर हम कहीं के भी न रहेंगे।
🔵 समय की पुकार है कि हम जगें, उठें और आगे बढ़ें। इसके लिए जिस प्रेरणा और चेतना की आवश्यकता है, वह हमें गीता द्वारा ही उपलब्ध होगी। भगवान की वही सन्देश वाणी सुनकर हम मोहमुक्त होंगे और गाण्डीव टंकारते हुए, पांचजन्य बजाते हुए कठोर कर्तव्य के धर्म-क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में अपने पुरुषार्थ का परिचय दे सकने में सफल होंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 22)
🌞 समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
🔴 दयानंद ने गुरु विरजानन्द की इच्छानुसार अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। विवेकानन्द अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त करके गुरु को संतोष देने वाले कष्टसाध्य कार्य में प्रवृत्त हुए थे। इसी में सच्ची गुरु भक्ति और गुरु दक्षिणा है। हनुमान ने राम को अपना समर्पण करके प्रत्यक्षतः तो सब कुछ खोया ही था, पर परोक्षतः वे संत तुल्य ही बन गए थे और वह कार्य करने लगे थे, जो राम के ही बलबूते के थे। समुद्र छलाँगना, पर्वत उखाड़ना, लंका जलाना बेचारे हनुमान नहीं कर सकते थे। वे तो अपने सुग्रीव को बालि के अत्याचार तक से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सके थे। समर्पण ही था जिसने एकात्मता उत्पन्न कर दी। गंदे नाले में थोड़ा गंगा जल गिर पड़े, तो वह गंदगी बन जाएगा, यदि बहती हुई गंगा में थोड़ी गंदगी जा मिले, तो फिर उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो बचेगा मात्र गंगाजल ही होगा। जो स्वयं समर्थ नहीं हैं, वे सभी समर्थों के प्रति समर्पित होकर उन्हीं के समतुल्य बन गए हैं। ईंधन जब आग से लिपट जाता है, तो फिर उसकी हेय स्थिति नहीं रहती, वरन् अग्नि के समान प्रखरता आ जाती है, वह तद्रूप हो जाता है।
🔵 श्रद्धा का केन्द्र भगवान् है और प्राप्त भी उसी को करना पड़ता है, पर उस अदृश्य के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए किसी दृश्य प्रतीक का सहारा लेना आवश्यक होता है। इस कार्य को देव प्रतिमाओं के सहारे भी सम्पन्न किया जा सकता है और देहधारी गुरु यदि इस स्तर का है, तो उस आवश्यकता की पूर्ति करा सकता है।
🔴 हमारे यह मनोरथ अनायास ही पूरे हो गए। अनायास इसलिए कि उसके लिए पिछले जन्मों से पात्रता उत्पन्न करने की पृथक साधना आरम्भ कर दी गई है थी। कुण्डलिनी जागरण ईश्वर दर्शन स्वर्ग मुक्ति तो बहुत पीछे की वस्तु है। सबसे प्रथम दैवी अनुदानों को पा सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अन्यथा जो वजन न उठ सके, जो भोजन न पच सके वह उल्टे और भी बड़ी विपत्ति खड़ी करता है।
🔵 प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ और उसके सच्चे-झूठे होने की परीक्षा भी तत्काल ही चल पड़ी। दो बातें विशेष रूप से कही गई- ‘‘संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना। दूसरा यह है कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने के लिए तपश्चर्या में जुट जाना। चौबीस वर्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण के साथ जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह करने का अनुशासन रखा। सामर्थ्य विकसित होते ही वह सब कुछ मिलेगा जो अध्यात्म मार्ग के साधकों को मिलता है, किंतु मिलेगा विशुद्ध परमार्थ के लिए। तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में उन दैवी अनुदानों को प्रयुक्त न किया जा सके।’’ वसंत पर्व का यह दिन, गुरु अनुशासन की अवधारणा ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। याचकों की कमी नहीं, पर सत्पात्रों पर सब कुछ लुटा देने वाले सहृदयों की भी कमी नहीं। कृष्ण ने सुदामा पर सब कुछ लुटा दिया था। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/samrth
🔴 दयानंद ने गुरु विरजानन्द की इच्छानुसार अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। विवेकानन्द अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त करके गुरु को संतोष देने वाले कष्टसाध्य कार्य में प्रवृत्त हुए थे। इसी में सच्ची गुरु भक्ति और गुरु दक्षिणा है। हनुमान ने राम को अपना समर्पण करके प्रत्यक्षतः तो सब कुछ खोया ही था, पर परोक्षतः वे संत तुल्य ही बन गए थे और वह कार्य करने लगे थे, जो राम के ही बलबूते के थे। समुद्र छलाँगना, पर्वत उखाड़ना, लंका जलाना बेचारे हनुमान नहीं कर सकते थे। वे तो अपने सुग्रीव को बालि के अत्याचार तक से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सके थे। समर्पण ही था जिसने एकात्मता उत्पन्न कर दी। गंदे नाले में थोड़ा गंगा जल गिर पड़े, तो वह गंदगी बन जाएगा, यदि बहती हुई गंगा में थोड़ी गंदगी जा मिले, तो फिर उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो बचेगा मात्र गंगाजल ही होगा। जो स्वयं समर्थ नहीं हैं, वे सभी समर्थों के प्रति समर्पित होकर उन्हीं के समतुल्य बन गए हैं। ईंधन जब आग से लिपट जाता है, तो फिर उसकी हेय स्थिति नहीं रहती, वरन् अग्नि के समान प्रखरता आ जाती है, वह तद्रूप हो जाता है।
🔵 श्रद्धा का केन्द्र भगवान् है और प्राप्त भी उसी को करना पड़ता है, पर उस अदृश्य के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए किसी दृश्य प्रतीक का सहारा लेना आवश्यक होता है। इस कार्य को देव प्रतिमाओं के सहारे भी सम्पन्न किया जा सकता है और देहधारी गुरु यदि इस स्तर का है, तो उस आवश्यकता की पूर्ति करा सकता है।
🔴 हमारे यह मनोरथ अनायास ही पूरे हो गए। अनायास इसलिए कि उसके लिए पिछले जन्मों से पात्रता उत्पन्न करने की पृथक साधना आरम्भ कर दी गई है थी। कुण्डलिनी जागरण ईश्वर दर्शन स्वर्ग मुक्ति तो बहुत पीछे की वस्तु है। सबसे प्रथम दैवी अनुदानों को पा सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अन्यथा जो वजन न उठ सके, जो भोजन न पच सके वह उल्टे और भी बड़ी विपत्ति खड़ी करता है।
🔵 प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ और उसके सच्चे-झूठे होने की परीक्षा भी तत्काल ही चल पड़ी। दो बातें विशेष रूप से कही गई- ‘‘संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना। दूसरा यह है कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने के लिए तपश्चर्या में जुट जाना। चौबीस वर्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण के साथ जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह करने का अनुशासन रखा। सामर्थ्य विकसित होते ही वह सब कुछ मिलेगा जो अध्यात्म मार्ग के साधकों को मिलता है, किंतु मिलेगा विशुद्ध परमार्थ के लिए। तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में उन दैवी अनुदानों को प्रयुक्त न किया जा सके।’’ वसंत पर्व का यह दिन, गुरु अनुशासन की अवधारणा ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। याचकों की कमी नहीं, पर सत्पात्रों पर सब कुछ लुटा देने वाले सहृदयों की भी कमी नहीं। कृष्ण ने सुदामा पर सब कुछ लुटा दिया था। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/samrth
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 22)
🌞 हिमालय में प्रवेश
रोते पहाड़
🔵 आज रास्ते में ''रोते पहाड़'' मिले उनके पत्थर नरम थे, ऊपर किसी सोते का पानी रुका पड़ा था। पानी को निकलने के लिए जगह न मिली। नरम पत्थर उसे चूसने लगे, वह चूसा हुआ पानी जाता कहाँ? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किये हुए था। जहाँ जगह थी वहाँ वह गीलापन धीरे- धीरे इकट्ठा होकर बूँदों के रूप में टपक रहा था। इन टपकती बूँदों को लोग अपनी भावना के अनुसार आँसू की बूंदें कहते हैं। जहाँ- तहाँ से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है, उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरीं मुलायम काई जैसी उग आती है। काई को पहाड़ में ''कीचड़'' कहते है। जब वह रोता है तो आखें दुखती हैं। रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे, उनके आँसू भी कहीं से पोंछे। कीचड़ों को टटोल कर देखा। वह इतना ही कर सकते थे। पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता और क्यों वह इसका उत्तर देता? पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है ही,मन पर्वत से बातें करने लगा। पर्वत राज! तुम इतनी वनश्री से लदे हो भाग- दौड की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे- बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता? तुम्हें रुलाई क्यों आती है?
🔴 पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था; पर कल्पना का पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा। बोला मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम? मैं बड़ा ही ऊँचा हूँ वनश्री से लदा हूँ निश्चिन्त बैठा रहता हूँ। देखने को मेरे पास सब कुछ है, पर निष्क्रिय- निश्चेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिसमे गति नही, संघर्ष नहीं, आशा नहीं, स्कूर्ति नहीं, प्रयल नहीं वह जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। सक्रियता में ही आनन्द है। मौज के छानने और आराम करने में तो केवल काहिल की मुर्दनी की नीरवता मात्र है। इसे अनजान ही आराम और आनन्द कह सकते हैं। इस दृष्टि से क्रीड़ापन में जो जितना खेल लेता है,वह अपने को उतना ही तरो- ताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है।
🔵 सृष्टि के सभी पुत्र प्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदमब ढ़ाते,मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं। दूसरी ओर मैं हूँ जो सम्पदाएँ अपने पेट में छिपाए मौज की छान रहा हूँ। कल्पना बेटी तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो भाग्यवान कह सकती हो पर हूँ तो मैं निष्क्रिय ही। संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं कीर्तिवान् बन रहे हैं। अपने प्रयत्न का फल दूसरे को उठाते देखकर गर्व अनुभव कर रहे हैं; पर मैं हूँ जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ। इस आत्मग्लानि से यदि रुलाई मुझे आती है, आँखो में आँसू बरसते और कीचड़ निकलते हैं तो उसमें अनुचित ही क्या है?
🔴 मेरी नन्ही- सी कल्पना ने पर्वतराज से बातें कर ली समाधान भी पा लिया पर वह भी खिन्न ही थी। बहुत देर तक यही सोचती रही,कैसा अच्छा होता यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े- टुकड़े करके अनेकों भवनों, सड़कों, पुलों के बनाने में खप सका होता। तब भले वह इतना बड़ा न रहता, सम्भव है इस प्रयल से उसका अस्तिव भी समाप्त हो जाता लेकिन तब वह वस्तुत: धन्य हुआ होता वस्तुत: उसका बड़प्पन सार्थक हुआ होता। इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआ सिर धुनकर रोता है; तो उसका यह रोना सकारण ही है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/himalaya%20_me_pravesh/thande_pahar/aalo_ka_bhalu/rote_pahar
रोते पहाड़
🔵 आज रास्ते में ''रोते पहाड़'' मिले उनके पत्थर नरम थे, ऊपर किसी सोते का पानी रुका पड़ा था। पानी को निकलने के लिए जगह न मिली। नरम पत्थर उसे चूसने लगे, वह चूसा हुआ पानी जाता कहाँ? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किये हुए था। जहाँ जगह थी वहाँ वह गीलापन धीरे- धीरे इकट्ठा होकर बूँदों के रूप में टपक रहा था। इन टपकती बूँदों को लोग अपनी भावना के अनुसार आँसू की बूंदें कहते हैं। जहाँ- तहाँ से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है, उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरीं मुलायम काई जैसी उग आती है। काई को पहाड़ में ''कीचड़'' कहते है। जब वह रोता है तो आखें दुखती हैं। रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे, उनके आँसू भी कहीं से पोंछे। कीचड़ों को टटोल कर देखा। वह इतना ही कर सकते थे। पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता और क्यों वह इसका उत्तर देता? पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है ही,मन पर्वत से बातें करने लगा। पर्वत राज! तुम इतनी वनश्री से लदे हो भाग- दौड की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे- बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता? तुम्हें रुलाई क्यों आती है?
🔴 पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था; पर कल्पना का पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा। बोला मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम? मैं बड़ा ही ऊँचा हूँ वनश्री से लदा हूँ निश्चिन्त बैठा रहता हूँ। देखने को मेरे पास सब कुछ है, पर निष्क्रिय- निश्चेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिसमे गति नही, संघर्ष नहीं, आशा नहीं, स्कूर्ति नहीं, प्रयल नहीं वह जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। सक्रियता में ही आनन्द है। मौज के छानने और आराम करने में तो केवल काहिल की मुर्दनी की नीरवता मात्र है। इसे अनजान ही आराम और आनन्द कह सकते हैं। इस दृष्टि से क्रीड़ापन में जो जितना खेल लेता है,वह अपने को उतना ही तरो- ताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है।
🔵 सृष्टि के सभी पुत्र प्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदमब ढ़ाते,मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं। दूसरी ओर मैं हूँ जो सम्पदाएँ अपने पेट में छिपाए मौज की छान रहा हूँ। कल्पना बेटी तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो भाग्यवान कह सकती हो पर हूँ तो मैं निष्क्रिय ही। संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं कीर्तिवान् बन रहे हैं। अपने प्रयत्न का फल दूसरे को उठाते देखकर गर्व अनुभव कर रहे हैं; पर मैं हूँ जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ। इस आत्मग्लानि से यदि रुलाई मुझे आती है, आँखो में आँसू बरसते और कीचड़ निकलते हैं तो उसमें अनुचित ही क्या है?
🔴 मेरी नन्ही- सी कल्पना ने पर्वतराज से बातें कर ली समाधान भी पा लिया पर वह भी खिन्न ही थी। बहुत देर तक यही सोचती रही,कैसा अच्छा होता यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े- टुकड़े करके अनेकों भवनों, सड़कों, पुलों के बनाने में खप सका होता। तब भले वह इतना बड़ा न रहता, सम्भव है इस प्रयल से उसका अस्तिव भी समाप्त हो जाता लेकिन तब वह वस्तुत: धन्य हुआ होता वस्तुत: उसका बड़प्पन सार्थक हुआ होता। इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआ सिर धुनकर रोता है; तो उसका यह रोना सकारण ही है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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