गुरुवार, 16 मई 2019
👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग 4)
परिवार निर्माणः-
(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान मे सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे सांचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढांचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।
(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।
(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान मे सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे सांचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढांचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।
(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।
(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।
.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 The Absolute Law Of Karma (Part 17)
PRARABDHA KARMAS
(Karmas done with strong emotional involvement):
Mental karmas, which are voluntarily, deliberately performed under strong emotional stimuli, are known as Prarabdha Karmas. Being motivated by intense emotions, such karmas produce powerful samskars. Reactions of violent acts like murder, robbery, betrayal, felony or immoral passionate acts like adultery are very strongly felt by the inner conscience. Its innate spiritual purity is ever eager to get rid of this extraneous deleterious impurity at the earliest opportunity.
It has already been mentioned that our inner conscience keeps a constant watch over each of our karmas and determines greater or lesser punishment for each offence according to the nature of the act. A mental chastisement for a mental offence is however not possible without the help of other means. For giving an appropriate punishment, the inner conscience waits for a suitable environment in the subtle world (Sukshma Lok in spiritual parlance, where the divine system correlates samskars and creates environment for justice).
Occasionally this process is spread over a long time. For instance, for redemption of a mental sin of treachery, the sinner is required to be punished by grief. Chitragupta evaluates the grade of treachery to decide the degree of sorrow required for atonement. For punishing a murderer, the divine system will associate the soul of the sinner with the soul of an individual who, according to its own karmas, can inflict the same degree of pain and grief on the sinner, which latter has caused to the aggrieved person. For instance, Chitragupta may plan birth of a son or daughter in the family of the sinner, who (the new born) is destined to die at a young age according to its own past karmas. The inner conscience of the killer will wait for grief-producing event when the son/daughter meets death by disease or accident. In this way, for samskars carried over to next life, divine justice creates an environment for punishment equivalent to the sin.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 30
(Karmas done with strong emotional involvement):
Mental karmas, which are voluntarily, deliberately performed under strong emotional stimuli, are known as Prarabdha Karmas. Being motivated by intense emotions, such karmas produce powerful samskars. Reactions of violent acts like murder, robbery, betrayal, felony or immoral passionate acts like adultery are very strongly felt by the inner conscience. Its innate spiritual purity is ever eager to get rid of this extraneous deleterious impurity at the earliest opportunity.
It has already been mentioned that our inner conscience keeps a constant watch over each of our karmas and determines greater or lesser punishment for each offence according to the nature of the act. A mental chastisement for a mental offence is however not possible without the help of other means. For giving an appropriate punishment, the inner conscience waits for a suitable environment in the subtle world (Sukshma Lok in spiritual parlance, where the divine system correlates samskars and creates environment for justice).
Occasionally this process is spread over a long time. For instance, for redemption of a mental sin of treachery, the sinner is required to be punished by grief. Chitragupta evaluates the grade of treachery to decide the degree of sorrow required for atonement. For punishing a murderer, the divine system will associate the soul of the sinner with the soul of an individual who, according to its own karmas, can inflict the same degree of pain and grief on the sinner, which latter has caused to the aggrieved person. For instance, Chitragupta may plan birth of a son or daughter in the family of the sinner, who (the new born) is destined to die at a young age according to its own past karmas. The inner conscience of the killer will wait for grief-producing event when the son/daughter meets death by disease or accident. In this way, for samskars carried over to next life, divine justice creates an environment for punishment equivalent to the sin.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 30
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