शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

👉 टूटते रिश्ते

सुबह के साढ़े सात बजे जब निधि स्कूल के लिए ‌तैयार हुई तो‌ चुपके से ऊपर मम्मी के बेडरूम में ‌ग‌ई। धीरे से डोर सरकाया देखा तो सारा सामान बिखरा पड़ा था। नीचे ड्राइंग रूम में आई पापा सोफे पर बेसुध सो रहे थे। अपने रुम में आकर उसने अपनी गुल्लक में से पचास रुपए निकाल कर पौकेट में रख लिए। बैग उठा कर बस के लिए निकलने लगी तो सरोज आई निधि बेटा आलू का परांठा बनाया है खा लो। निधि ने मायूस नजरों से सरोज आंटी को देखा नहीं आंटी भूख नहीं है। सरोज ने जबरदस्ती टिफिन उसके बैग में डाला। निधि स्कूल के ‌लिए निकल गई सरोज ‌सोचने लगी बेचारी छोटी बच्ची साहब और मेमसाब के रोज के लडा़ई झगडे से इस तेरह साल की उम्र में ‌कितनी बड़ी हो गई है।

सरोज पिछले दस सालों से नेहा व नरेश के यहां काम कर रही है। दोनों ‌मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ‌पदों पर कार्यरत हैं। निधि उनकी इकलौती बेटी है किसी भी चीज की कोई कमी नहीं है। पर हर समय दोनों एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। नरेश पिछले कुछ समय से नेहा से तलाक चाह रहा है और चाहता है निधि की जिम्मेदारी नेहा उठाए और नेहा निधि की जिम्मेदारी ‌नरेश को देने के साथ जायदाद में हिस्सा चाहती है। इस कारण दोनों ‌लड़ते रहते हैं। बच्चे की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता इसलिए दोनों एक दूसरे के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल ‌करते हैं बेचारी निधि ‌स्कूल से घर आकर अपने कमरे में ‌दुबक जाती है केवल सरोज आंटी ‌से ही‌‌ बात करती है।

रोज‌ की तरह नेहा और नरेश ने नाश्ता ‌अपने अपने कमरे में किया और ऑफिस के लिए निकल गये। करीब बारह बजे स्कूल से कॉल आया कि जल्दी हास्पिटल पहुंचो निधि को चोट‌ आई है। हास्पिटल पहुंच कर पता चला कि निधि बहुत ऊपर से सीढ़ियों से गिर गई है। आईसीयू में रखा गया था। आपरेशन की तैयारी हो रही थी सिर में बहुत गहरी चोट आई थी। आपरेशन शुरू हुआ। पर जिंदगी ‌मौत से हार गई। नेहा और नरेश स्तब्ध रह गए। उन्हें ऐसा झटका लगा था कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठे थे। निधि की दादी ‌भी आ गई थी बेटा बहू को देखकर नफरत से मुंह फेर लिया। पूछताछ हुई टीचर स्टुडेंट्स सभी के बयान लिए गए यही पता चला कि बैलेंस बिगड़ने से नीचे गिर गई। तेरहवां ‌निबटने‌ के बाद नरेश ने अपनी मां को रोकना चाहा पर उन्होंने आंखों में आंसू भर कर कहा तुम दोनों खूनी हो तुम्हारी जिद मेरी पोती को खा ग‌ई। मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहती थी पर तुम दोनों ने उसे अपने अहम का मोहरा बना कर उसकी जान ले ली। मां चली गई।

सरोज तब से सदमे में थी फिर उसने जैसे तैसे होश संभाला नरेश और नेहा से कहा मेमसाब मैं अब यहां नहीं रह ‌पाऊंगी इस घर की दीवारें मेरी निधि की सिसकियों से भरी हैं। उसे मैंने कभी अपनी गोद में तो कभी छिप कर रोते हुए देखा है। कभी तो मेरा मन किया कि उसे लेकर भाग जाऊं पर मैं डरपोक थी ऐसा नहीं कर सकी। अगर चली जाती तो शायद वो आज जिंदा होती। नरेश और नेहा के पास अब शायद कहने को कुछ नहीं था। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे उनका लडा़ई झगड़ा एक अजीब सी बर्फ में में तब्दील हो चुका था। उनकी सारी भावनाएं अंदर ‌ही अंदर एक खामोशी अख्तियार कर चुकी थी।

संडे का दिन था बड़ी मुश्किल से नेहा ने निधि के रूम में जाने की हिम्मत जुटाई थी महीनों दोनों उसके कमरे में कदम नहीं रखते थे कैसे मां बाप थे वो दोनों। उसका रूम उसका बेड तकिया उसकी किताबें उसकी पेंसिल पैन स्कूल बैग सब वैसे ही रखा था। अलमारी खोली तो उसके कपड़े नीचे गिर पड़े उसका हल्का ब्लू नाइट सूट जिसे वह अक्सर पहना करती थी। नेहा रोते हुए अलमारी से सामान निकालने लगी। तभी उसके‌ हाथ एक ब्लू कलर की डायरी लगी। उसने कांपते हाथों से उसे खोला आगे के कुछ पेज फटे हुए थे। पेज दर पेज टूटे‌ दिल की दास्तां छोटे छोटे टुकड़ों में दर्ज थी–

मम्मी पापा मैं आपको डियर नहीं ‌लिखूंगी । क्योंकि डियर का मीनिंग प्यारा होता है। पापा आप मम्मी को कहते हो कि तुम्हारी बेटी। और मम्मी आप पापा को कहते हो तुम्हारी बेटी आप दोनों ये क्यों नहीं कहते हो ‌हमारी‌ बेटी।

अगले पेज पर था–
पता है जब मैं मामा जी के घर ‌जाती हूं मामा मामी ‌मुझे बहुत प्यार‌ करते हैं मामी अनु को जब प्यार से मेरा बच्चा कहती हैं तो मुझे लगता है कि क्या मैं प्यारी बच्ची नहीं हूं ?मम्मा मैं तो ‌आपका सारा कहना मानती हूं फिर भी आपने मुझे कभी‌ प्यारी बच्ची नहीं कहा।
अगले पेज पर था–
मम्मी जब मैं बुआ के घर जाती हूं तो बुआ मुझे बहुत प्यार करती हैं। पर खाना नक्ष की पंसद‌ का बनाती हैं मम्मा मुझे भी ‌राजमा बहुत पसंद है मैंने कहा था कि आप बनाओ पर आपने कहा मुझे मत तंग किया करो। जो खाना है सरोज आंटी को बोला करो। पता है मम्मा मैंने राजमा खाना छोड़ दिया है।अब मन नहीं करता।

अगले पेज पर था–

पापा मैं आपके साथ आइसक्रीम खाने जाना चाहती थी पर आपने कहा आपके पास फालतू चीजों के लिए ‌टाइम नहीं है। पापा जब चीनू मासी और मौसा जी मुझे और विपुल को आइसक्रीम खाने ले जा सकते हैं तो फिर वो क्यों नहीं कहते कि ‌ये सब फालतू चीजें हैं ।पता है मम्मी मैं अपने घर से दूर जाना चाहती हूं जहां मुझे ये न सुनाई दे कि निधि को ‌मैं नहीं रखूंगी। जहां पापा के चिल्लाने की आवाज न सुनाई दे। पापा अगर मैं बड़ी होती तो मैं आप दोनों को कभी परेशान नहीं करती मैं खुद ही चली जाती। मैं तो आप दोनों से बहुत प्यार करती हूं। पापा मम्मी ‌आप दोनों मुझे प्यार क्यों नही करते।

एक पेज पर था–आइलव यू सरोज आंटी मुझे प्यार करने के लिए। जब मुझे डर लगता है अपने पास सुलाने के लिए।मेरी हर बात सुनने के लिए।

और अंतिम पेज पर था दादी आई लव यू आप मुझे यहां से ‌ले ‌जाओ आइ प्रामिस कभी तंग नहीं करूंगी।
नेहा डायरी को सीने से लगा कर जोर जोर से रो पड़ी।नरेश भी उसके रोने की आवाज सुनकर आ गया था नेहा ने डायरी उसे पकडा़ दी। पेज दर पेज पलटते हुए उसके चेहरे के भाव बदलते जा रहे थे। वह ‌खुद को संभाल नहीं पाया ‌जमीन पर बैठ गया। नेहा रोते हुए बोली नरेश पता है वो एक्सीडेंट नहीं आत्महत्या थी सुसाइड था जिस रिश्ते को हम बोझ समझते थे। हमारी निधि ने उससे ‌हमें आजाद कर‌ दिया। नरेश हम दोनों ने अपनी बच्ची ‌का खून किया है। नरेश फूट-फूट कर रो पड़ा।

ये कहानी हर उस घर की है जहां मां-बाप बच्चों के ‌सामने लड़ते हैं या घर टूट कर बिखरते हैं और उसका सबसे बड़ा खामियाजा बच्चे भरते हैं।अगर आप अच्छी परवरिश नहीं दे सकते तो आपको बच्चे को जन्म देने का कोई अधिकार नहीं है।

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।

अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।

जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुध्दचरित्र हों।

क्या संस्कृत पढ रहे हो? कितनी प्रगति होई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९६)

कुसंग की तरंग बन जाती है महासमुद्र

महर्षि रुक्मवर्ण की अनुभव कथा सुनने वालों के दिलों को गहराई तक छुआ। सभी कहे गए शब्दों के भावों में गहरे डूबे, रोमांचित हुए। इसे सुनते-सुनते किसी की आँखें छलछलाई तो कोई अपनी आँखें मूँदकर स्वयं में खो गया। महर्षि के अपने अतीत की यह अनुभूति थी ही कुछ ऐसी, जो बरबस सभी को स्वयं में घोलती चली गई। इतना ही नहीं, यह स्वयं भी सबमें घुल गई। उन क्षणों में जिन्होंने भी ऋषि रुक्मवर्ण की यह कथा सुनी, उन्हें यह सोचकर सिहरन हो आई कि कितना विषैला फल है कुसंग का। यह कुसंग चिन्तन के द्वार से प्रवेश कर सम्पूर्ण चेतना को विषाक्त कर देता है। फिर क्या है- इसके प्रभाव वाली विषैली मूर्च्छा में व्यक्ति कुछ भी करने लगता है। जो कर रहा है, उसकी दशा एवं उसके दुष्परिणामों के बारे में सोचने की उसकी स्थिति ही नहीं रहती।

अप्रकट रूप से चिंतन की ये लहरें प्रायः सभी के चित्त में उठती-गिरती रहीं, किन्तु प्रकट रूप से सब ओर मौन पसरा रहा। निस्तब्ध पवर्तशिखर मौन साधे खड़े थे। उन्होंने अपनी ओट में झरनों के संगीत को छिपा लिया था। हिमपक्षिों का कलरव भी इस समय शांत था। पशु, जिन्हें बेजुबान कहा जाता है, वे भी अभी इधर-उधर कहीं गुम हो गए थे। ऋषियों, देवों, सिद्धों का यह समुदाय अभी तक इस प्रश्न-कटंक की चुभन कर रहा था कि कुसंग के विषैले काँटों से इस युग को किस तरह से बचाया जाय? लेकिन देवर्षि नारद के मुख मण्डल की भाव ऊर्मियाँ कुछ और ही कह रही थी। उन्हें जैसे अभी कुछ और कहना था। सम्भवतः वे अभी कुसंग के प्रभाव को थोड़ा और अधिक बताया चाहते थे।

उनके इन भावों पर महर्षि पुलह की दृष्टि गई। अपने इस दृष्टि-निक्षेप से अंतर्यामी महर्षि ने देवर्षि के मन का सच जान लिया और उन्होंने लगभग मुस्कराते हुए कहा- ‘‘अपने नवीन सूत्र को कहें देवर्षि! क्योंकि आपका प्रत्येक नवीन सूत्र इस प्रवाहमान भक्ति-सरिता में पवित्र भावों की नई जलधार की भाँति होता है।’’ महर्षि पुलह की मुस्कान और उसके इस कथन ने शून्य नीरवता में सर्वथा नवीन चेतना का संचार किया। सभी की चेतना के उद्यान में अनायास भावों के पुष्प विहँस उठे। इस दश्य ने देवर्षि को भी विभोर किया। उन्होंने प्रसन्नता के साथ अपने नवीन सूत्र का उच्चार करते हुए कहा-

‘‘तरङ्गायिता अपीमे सङ्गात्समुद्रायन्ति’’॥ ४५॥
ये(काम, क्रोध आदि विकार) पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आकार भी (दुःसंग के प्रभाव से) विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

देवों के भी पूज्य ऋषि नारद के मुख से यह सूत्र सुनकर ऋषि पुलह के माथे की लकीरें कुछ गहरी हुईं। उनके मुख की प्रदीप्ति में एक घनापन आया, परन्तु वे मौन रहे। उनके इस सूक्ष्म भाव-परिवर्तन को देवर्षि सहित सभी ने निहारा। देवर्षि कुछ क्षणों तक उन्हें यों ही देखते रहे, फिर  बोले- ‘‘मेरे आज के सूत्र पर आप कुछ कहेंगे ऋषिश्रेष्ठ।’’ उत्तम में महर्षि पुलह ने धीमे स्वर में कहा ‘‘इस बारे में कहने के लिए कुछ नया नहीं है। जो कुछ मैं कहना चाहता हूँ उसे आप सभी जानते हैं। पुराणकथाओं में भी इसका उल्लेख है। मेरी यदि कुछ नवीनता है तो बस इतनी कि मैं इस घटनाक्रम का स्वयं साक्षी रहा हूँ।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८२

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