पर-दोष दर्शन की दुर्बलता त्यागकर आत्म-दोष दर्शन का साहस विकसित कीजिए। जब दृष्टि देखने में समर्थ है तो वह गुण भी देखेगी और दोष भी। गुण औरों के और दोष अपने देखिए। जीवन में गुणों का विकास करने का यही तरीका है। जब आप स्वयं ही अपने दोष देखने लग जायेंगे तो दूसरों द्वारा इंगित करने पर आपमें कोई अप्रिय या प्रतिकूल प्रतिक्रिया न होगी। ऐसा होने से आप ईर्ष्या-द्वेष, वाद-विवाद, कुंठा एवं कुढ़न के विकारों से बच जायेंगे।
एक ओर जहाँ मनुष्य अपने को दयालु, क्षमाशील, करुण एवं पर-दुःखकातर होने का दावा कर रहा है, अपने को धर्मज्ञाता, अहिंसक तथा सहानुभूति संपन्न बतला रहा है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को मारकर खा रहा है, खाल खींच रहा है, देवताओं के नाम पर उनके प्राण ले रहा है-क्या मनुष्य का यह कुत्सित कर्म उसे इस दावे से नीचे नहीं गिरा देता कि वह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ और धर्मशील प्राणी है?
स्वार्थी व्यक्ति यों किसी का कुछ प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता, किन्तु अपने लिए सम्बद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना एक ऐसा घाटा है, जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पड़ता है जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक स्नेह-सहयोग पर टिके हुए हैं।
एक ओर जहाँ मनुष्य अपने को दयालु, क्षमाशील, करुण एवं पर-दुःखकातर होने का दावा कर रहा है, अपने को धर्मज्ञाता, अहिंसक तथा सहानुभूति संपन्न बतला रहा है, वहीं दूसरी ओर पशुओं को मारकर खा रहा है, खाल खींच रहा है, देवताओं के नाम पर उनके प्राण ले रहा है-क्या मनुष्य का यह कुत्सित कर्म उसे इस दावे से नीचे नहीं गिरा देता कि वह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ और धर्मशील प्राणी है?
स्वार्थी व्यक्ति यों किसी का कुछ प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता, किन्तु अपने लिए सम्बद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना एक ऐसा घाटा है, जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पड़ता है जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक स्नेह-सहयोग पर टिके हुए हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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