🌹 संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य-प्रसार के लिए, अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
🔴 परमार्थ परायण जीवन जीना है तो उसके नाम पर कुछ भी करने लगना उचित नहीं। परमार्थ के नाम पर अपनी शक्ति ऐसे कार्यों में लगानी चाहिए जिनमें उसकी सर्वाधिक सार्थकता हो। स्वयं अपने अंदर से लेकर बाहर समाज में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करना, बढ़ाना इस दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त है। संसार में जितना कुछ सत्कार्य बन पड़ रहा है, उन सबके मूल में सत्प्रवृत्तियाँ ही काम करती हैं। लहलहाती हुई खेती तभी हो सकती है, जब बीज का अस्तित्व मौजूद हो। बीज के बिना पौधा कहाँ से उगेगा? भले या बुरे कार्य अनायास ही नहीं उपज पड़ते, उनके मूल में सद्विचारों और कुविचारों की जड़ जमी होती है।
🔵 समय पाकर बीज जिस प्रकार अंकुरित होता और फलता-फूलता है, उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियाँ भी अगणित प्रकार के पुण्य-परमार्थों के रूप में विकसित एवं परिलक्षित होती हैं। जिस शुष्क हृदय में सद्भावनाओं के लिए, सद्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं मिला, उसके द्वारा जीवन में कोई श्रेष्ठ कार्य बन पड़े, यह लगभग असंभव ही मानना चाहिए। जिन लोगों ने कोई सत्कर्म किए हैं, आदर्श का अनुकरण किया है, उनमें से प्रत्येक को उससे पूर्व अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने योग्य सद्विचारों का लाभ किसी न किसी प्रकार मिल चुका होता है।
🔴 कुकर्मी और दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्यों के इस घृणित स्थिति में पड़े रहने की जिम्मेदारी उनकी उस भूल पर है, जिसके कारण वे सद्विचारों की आवश्यकता और उपयोगिता को समझने से वंचित रहे, जीवन के इस सर्वोपरि लाभ की उपेक्षा करते रहे, उसे व्यर्थ मानकर उससे बचते और कतराते रहे। मूलतः मनुष्य एक प्रकार का काला कुरूप लोहा मात्र है। सद्विचारों का पारस छूकर ही वह सोना बनता है। एक नगण्य तुच्छ प्राणी को मानवता का महान् गौरव दिला सकने की क्षमता केवल मात्र सद्विचारों में है। जिसे यह सौभाग्य नहीं मिल सका, वह बेचारा क्यों कर अपने जीवन-लक्ष्य को समझ सकेगा और क्यों कर उसके लिए कुछ प्रयत्न-पुरुषार्थ कर सकेगा?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.72
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.13
🔴 परमार्थ परायण जीवन जीना है तो उसके नाम पर कुछ भी करने लगना उचित नहीं। परमार्थ के नाम पर अपनी शक्ति ऐसे कार्यों में लगानी चाहिए जिनमें उसकी सर्वाधिक सार्थकता हो। स्वयं अपने अंदर से लेकर बाहर समाज में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करना, बढ़ाना इस दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त है। संसार में जितना कुछ सत्कार्य बन पड़ रहा है, उन सबके मूल में सत्प्रवृत्तियाँ ही काम करती हैं। लहलहाती हुई खेती तभी हो सकती है, जब बीज का अस्तित्व मौजूद हो। बीज के बिना पौधा कहाँ से उगेगा? भले या बुरे कार्य अनायास ही नहीं उपज पड़ते, उनके मूल में सद्विचारों और कुविचारों की जड़ जमी होती है।
🔵 समय पाकर बीज जिस प्रकार अंकुरित होता और फलता-फूलता है, उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियाँ भी अगणित प्रकार के पुण्य-परमार्थों के रूप में विकसित एवं परिलक्षित होती हैं। जिस शुष्क हृदय में सद्भावनाओं के लिए, सद्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं मिला, उसके द्वारा जीवन में कोई श्रेष्ठ कार्य बन पड़े, यह लगभग असंभव ही मानना चाहिए। जिन लोगों ने कोई सत्कर्म किए हैं, आदर्श का अनुकरण किया है, उनमें से प्रत्येक को उससे पूर्व अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने योग्य सद्विचारों का लाभ किसी न किसी प्रकार मिल चुका होता है।
🔴 कुकर्मी और दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्यों के इस घृणित स्थिति में पड़े रहने की जिम्मेदारी उनकी उस भूल पर है, जिसके कारण वे सद्विचारों की आवश्यकता और उपयोगिता को समझने से वंचित रहे, जीवन के इस सर्वोपरि लाभ की उपेक्षा करते रहे, उसे व्यर्थ मानकर उससे बचते और कतराते रहे। मूलतः मनुष्य एक प्रकार का काला कुरूप लोहा मात्र है। सद्विचारों का पारस छूकर ही वह सोना बनता है। एक नगण्य तुच्छ प्राणी को मानवता का महान् गौरव दिला सकने की क्षमता केवल मात्र सद्विचारों में है। जिसे यह सौभाग्य नहीं मिल सका, वह बेचारा क्यों कर अपने जीवन-लक्ष्य को समझ सकेगा और क्यों कर उसके लिए कुछ प्रयत्न-पुरुषार्थ कर सकेगा?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.72
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.13