हे महाकाल! तुम्हारी यह कैसी लीला है? आज लाखों आदमी निर्दयता से मारे जा रहे है, करोड़ों आदमी भूखों मर रहे हैं, उन्हें रात में सोने को भी जगह नहीं हैं, जीवनोपयोगी पदार्थों का ध्वंस हो रहा है मनुष्य मनुष्य को खाये जा रहा है, यह सब क्या है! तुम्हारी संहार लीला असमय में ही ऐसा प्रलयंकर रूप क्यों धारण कर रही है?
क्या कहते हो? यह मनुष्य के पापों का ही फल है? मनुष्य दल बाँधकर जब दूसरे मनुष्यों को देशों और वर्गों को चूस डालना चाहता है तब उसकी ऐसी ही दुर्गति होती है।
क्या कहते हो? यह मनुष्य के पापों का ही फल है? मनुष्य दल बाँधकर जब दूसरे मनुष्यों को देशों और वर्गों को चूस डालना चाहता है तब उसकी ऐसी ही दुर्गति होती है।
हे भयंकर! आदमियत पढ़ाने का तुम्हारा यह तरीका बड़ा निर्दय है पर क्या तुम समझते हो कि आदमी में इस प्रकार शैतानियत बढ़ाकर नंगा चित्र खींचकर तुम उसे दूर कर सकोगे? अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ, शैतानियत बढ़ती ही जा रही है।
क्या कहते हो? जब तक आँच से लोहा गलेगा नहीं तब तक ढाला न जायगा! क्या इसीलिये मनुष्य जाति को इस प्रकार भट्टी में झोंके जाते हो। क्या मनुष्य जाति के भाग्य में और भी भयंकर विपदाएं वदी हैं? पर करोड़ों आदमी इतने में भी घबरा उठे है- उन्हें अभी भी यह सब असह्य है!
क्या कहते हो? जब वेदना असह्य होगी तब सब गल जायेंगे? क्या तभी अक्ल आयेगी? पर बहुतों को अक्ल आ चुकी है-वे गल भी गये हैं। अब तो थोड़े के पीछे बहुतों को गलना पड़ा रहा है।
ऐ! क्या कहते हो! बहुतों ने थोड़ों को छोड़ा नहीं है? तो क्या जब तक थोड़े न गलेंगे तब तक बहुतों को भी गलना पड़ेगा! हे न्याय मूर्ति! बात तो सच कहते हो। संसार पर शैतानियत का ताँडव करने वाले मुट्ठीभर लोग ही है, पर उनको उन लोगों का भी पीठ बल है जो उनकी शैतानियत से पिस रहे हैं। इन लड़ाकू स्वभाव के लोगों के पीछे उन मजबूरों, गरीबों तक का बल है जो खुद पूँजीवाद से कराह रहे हैं! पर दूसरे देशों के गरीबों को सताने में अपने नेताओं का साथ दे रहे हैं। तब तुम्हारा कहना ठीक ही है कि भस्म होकर भी बहुतों ने थोड़ों को छोड़ा नहीं है। पर हे शिव, ऐसे भी तो लोग हैं देश हैं जिनके न थोड़े न बहुत, किसी को पीसना नहीं चाहते है वे तो गले हुए हैं उन्हें भट्टी में क्यों डाल रक्खा है?
क्या कहा? वे कच्चा लोहा हैं? उनमें बहुत-सा भाग ऐसा है जिसे जलाकर नष्ट कर देना है। तो क्या उन्हें भी बहुत देर तक भट्टी में रहना पड़ेगा? हे शंकर यह क्या कहते हो? वे तो बहुत निर्बल हैं, दीन हैं, न्याय चाहते हैं। उन्हें यह दण्ड क्यों?
क्या कहते हो! निर्बलता का नाम या संयम नहीं है! ओह! तुम बड़े कठोर हो। पर मैं मानता हूँ कि तुम्हारे कहने में जरा भी झूठ नहीं है। निर्बल निर्बल नरों को चूसते हैं वहाँ हैवानियत है-संयम नहीं है। जब तक हैवानियत भस्म न हो जायेगी तब तक तुम उन्हें भी भट्टी में झोंके रहोगे। हे महादेव! तुम्हीं सत्य हो। जैसा समझो करो। तुम महाकाल हो, अनन्त हो। हम चार दिन के कीड़े तुम्हारी अनन्त गम्भीर, अनन्त उन्नति और अनन्त व्यापक नीति को क्या समझें! -संगम
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1943 पृष्ठ 10