सोमवार, 13 दिसंबर 2021

👉 माँसाहार या शवाहार

मित्रों !! जिसे हम मांस कहते हैं वह वास्तव में क्या है?आत्मा के निकल जाने के बाद पांच तत्व का बना आवरण अर्थात शरीर निर्जीव होकर रह जाता है।यह निर्जीव,मृत अथवा निष्प्राण शरीर ही लाश या शव कहलाता है। यह शव आदमी का भी हो सकता है और पशु का भी।इस शव को बहुत अशुभ माना जाता है।

इसकी भूत मिट्टी आदि निकृष्ट चीजों से तुलना की जाती है।

यदि कोई इसे छू लेता है तो उसे स्नान करना पड़ता है। जिस घर में यह रखा रहता है उस घर को अशुद्ध माना जाता है। और वहां खाना बनना तो दूर कोई पानी भी नहीं पीना चाहता। इसको देखकर कई लोग तो डर भी जाते हैं क्योंकि आत्मा के निकल जाने पर यह अस्त-व्यस्त और डरावना हो जाता है।

मांसाहार करने वाले लोग इसी शव को  या लाश को खाते हैं। इसलिए यह मांसाहार !! शवाहार या लाशाहार ही है।

आधुनिक पात्रों में जंगली खाना
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कहा जाता हैं कि प्राचीन समय में जब सभ्यता का विस्तार नहीं हुआ था उस समय मानव जंगल में रहता था। तो उसके पास जीवन में उपयोगी साधनों का अभाव था। उस समय पेट भरने के लिए वह जंगली जानवरों का कच्चा मांस खा लेता था।

धीरे-धीरे कृषि प्रारंभ हुई अनेक प्रकार के खादों का उत्पादन हुआ, शहर बसे और मानव ने अनेक जीवन उपयोगी साधनों का आविष्कार कर उस  आदिम जंगली जीवन को तिलांजलि दे दी। उस समय की भेंट में आज उसके पास मकान, वस्त्र, जूते, बर्तन, मोटर, कम्प्यूटर आदि सब उत्तम प्रकार के आरामदायक साधन है।

उपरोक्त तथ्य यदि सत्य है तो मानव ने काफी विकास कर लिया है। वह हाथ में लेकर खाने के बजाए, पत्तों ऊपर रखकर खाने के बजाय आधुनिक डिजाइन की प्लेस में चम्मच के प्रयोग से खाता है। डाइनिंग टेबल पर बैठना भी उसने सीख लिया। परंतु प्रश्न यह है कि वह खाता क्या है? उसकी प्लेट में है क्या?

यदि इतनी साज सज्जा, रखरखाव को अपना कर, इतना विकास करके भी उसकी प्लेट पर रखा आहार यदि आदिम काल वाला ही है, यदि इतना विकास करके भी वह उस जंगली मानव वाले खाने को ही अपनाए हुए हैं तो विकास क्या किया?

यह तो वही बात हुई कि मटका मिट्टी के स्थान पर सोने का हो गया पर अंदर पड़ा पदार्थ जहर का जहर ही रहा।यदि सभ्यता ने विकास किया तो क्या सिर्फ बर्तनों और डाइनिंग टेबल कुर्सियों तक ही विकास किया?

क्‍या खाने के नाम पर सभ्यता नहीं आई? फर्क  इतना ही तो है उस समय जानवर को मारने के तरीके दूसरे थे और आजकल तीव्रगति वाली मशीनें यह कार्य कर देती है परंतु मुख तो अपने को मानव कहलाने वाले का ही है। मारने के हथियार बदल गए परंतु खाने वाला मुख तो नहीं बदला। मुख तो मानव का ही है।

पेट बन गया शमशान
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शव को जब श्मशान में ले जाते हैं तो उसे चिता पर लिटा कर आग लगाई जाती है। परंतु मानव को देखिए, वह शव को अथवा शव के टुकड़ों को रसोईघर में ले जाता है। फिर उस को रसोईघर के बर्तनों में पकाता है। तो उसकी रसोई क्या हो गई? श्मशान ही बन गई ना! तो फिर उस लाश को मुंह के माध्यम से पेट में डालता हैं। सच पूछो तो ऐसे व्यक्ति के घर की हवा भी पतित बनाने वाली है।

संत तुकाराम कहते हैं कि पापी मनुष्य यह नहीं देख पाता है कि सभी प्राणियों में प्राण एक सरीका होता है। जो व्यक्ति ना तो स्वयं कष्ट पाना चाहता है, ना मरना चाहता है वह निष्ठुरता पूर्वक दूसरों पर हाथ कैसे उठाता है?

वास्तव में मांस खाने वाले को इस शब्द का अर्थ समझना चाहिए मांस अर्थार्थ माम्सः मेरा वह।
जिसको मैं खा रहा हूं वह मुझे खाएगा। यह एक दुष्चक्र है। हिंसा इस चक्र को जन्म
देती है - उसके इस जन्म में मैं उसे खाता हूं,
अगले जन्म में मुझे हिंसा का शिकार होना होगा।
और इस प्रकार मेरा भोजन ही मेरा कॉल बन कर जन्म जन्मांतर तक मेरे पीछे लगा रहेगा।

इसलिए माँ प्रकृति की बड़ी संतान मानव को अपने छोटे भाइयों (मूक प्राणियों) को जीने का अधिकार देते हुए, मैं जिऊँ और अन्य को मरने दो, इस राक्षसी प्रवृत्ति को छोड़ देना चाहिए।

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।

👉 मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति (भाग २)

सहानुभूति का अर्थ वाक्जाल या ऊपरी दिखावा मात्र नहीं। कई सयाने व्यक्ति बातों के थाल परोसने में तो कोई कसर नहीं करते, पर कोई रचनात्मक सद्भाव उनसे नहीं बन पात। अरे भाई! बड़ा बुरा हुआ तुम्हारी तो सारी सम्पत्ति जल गई, अब क्या करोगे, आजीविका कैसे चलेगी, बच्चे क्या खायेंगे आदि-आदि अनेकों प्रकार की मीठी मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें तो करेंगे, पर यह न बन पड़ेगा कि बेचारे को अभी तो खाना खिलादे। जो सामान जलने से बच गया है, उसे कहीं रखवाने का प्रबन्ध करवा दें। कोई ऐसा संकेत भी करे तो नाक भौं सिकोड़ते हैं। भाई-बेबस हूँ, पिछली दालान में तो बकरियाँ बंधती हैं, बरामदे में शहतीर रखे हैं। जबान की जमा-खर्च बनाते देर न लगी, पर सहायता के नाम पर एक कानी कौड़ी भी खर्च करने को जो तैयार न हुआ, ऊपरी दया दिखाई ही तो इससे क्या बनता है। सच्ची सहानुभूति वह है जो दूसरों को उदारतापूर्वक समस्याएँ सुलझाने में सहयोग दे। करुणा के साथ कर्तव्य का सम्मिश्रण ही सहानुभूति है। केवल बातें बनाने से प्रयोजन हल नहीं होता है, उसे तो दिखाया या प्रपंच मात्र ही कह सकते हैं।

प्रशंसा और आत्म-सुरक्षा का सहानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। प्रशंसा एक मूल्य है, जो आप कर्तव्य के बदले में माँगते हैं। मूल्य माँगने से आपकी सेवा की कर्तव्य न रही, कर्म बन गई। इसे नौकरी भी कह सकते हैं । ऐसी सहानुभूति से कोई लाभ नहीं हो सकता क्योंकि आपकी इच्छा पर आघात होते ही आप विचलित हो जायेंगे। प्रशंसा न मिली तो आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में भावना की शालीनता नष्ट हो जाती है। ऐसी सहानुभूति घृत निकाले हुए छाछ जैसी होगी। शहद निकाल लिया तो मोम की क्या कीमत रही। बदले में कुछ चाहने की भावना से सहानुभूति की सार्थकता नहीं होती, इसे तो व्यापार ही कह सकते हैं।

सहानुभूति मानव अन्तःकरण की गहन, मौन और अव्यक्त कोमलता का नाम है। इसमें स्वार्थ और संकीर्णता का कहीं भी भाव नहीं होता। जहाँ ऐसी निर्मल भावनायें होती हैं, वहाँ किसी प्रकार के अनिष्ट के दर्शन नहीं होते। आत्मीयता, आदर, सम्मान और एकता की भावनाएँ, सहानुभूतिपूर्ण व्यक्तियों के अन्तःकरण में पाई जाती हैं। इससे वे हर घड़ी स्वर्गीय सुख की रसानुभूति करते रहते हैं। उन्हें किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। क्लेश उन्हें छू नहीं जाता। उनके लिए सहयोग की कोई कमी न रहेगी। ऐसे व्यक्ति क्या घर, क्या बाहर एक विलक्षण सुख का अनुभव कर रहे होंगे। और भी जो लोग उनके संपर्क में चले जाते हैं, उन्हें भी वैसी ही रसानुभूति होने लगती है।

दूसरों के दुःखों में अपने को दुःख जैसे भावों की अनुभूति हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे अन्तःकरण में सच्ची सहानुभूति का उदय हुआ है। इससे व्यक्तित्व का विकास होता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है। सभी में अपनापन समाया हुआ देखने की भावना सचमुच इतनी उदात्त है कि इसकी शीत छाया में बैठने वाला हर घड़ी अलौकिक सुख का आस्वादन करता है। दीनबन्धु परमात्मा की उपासना करनी हो तो आत्मीयता की उपासना करनी चाहिये। दार्शनिक बालक ने परमात्मा की पूजा का कितना हृदय स्पर्शी चित्र खींचा है। उन्होंने लिखा है- “दीनों के प्रति मैं सहज भाव से खिच जाता हूँ, उनकी भूख मेरी भूख है, उनके पैरों में रहता हूँ, वंचनाओं की पीड़ा सहना है, गले से लगाता हूँ, मैं भी उतनी देर के लिये दीन और ठुकराया हुआ प्राणी बन जाता हूँ।”

सहानुभूति लोगों में एकात्म-भाव पैदा करती है। दूसरे लोगों का आन्तरिक प्रेम और सद्भाव प्राप्त होता है। ऐसे लोगों में विचार-हीनता और कठोरता नहीं आ सकती। वे सदैव मृदुभाषी, उदार, करुणावान और सेवा की कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत बने रहेंगे। जो दूसरों के साथ सहयोग करना नहीं जानते, जो समाज में सदैव अत्याचार और विक्षोभ की गलित-वायु फूँकते रहते हैं, उन्हें इन दुर्गुणों के बुरे परिणाम भी अनिवार्य रूप से भोगने पड़ते हैं। स्वार्थी असंवेदनशील और हिसाबी व्यक्ति चतुराई में कितने ही बड़े चढ़े रहें, कितने ही पढ़े-लिखें, शिक्षित तथा योग्य क्यों न हों, अन्त में सफलता से हाथ धोना ही पड़ेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १६

👉 भक्तिगाथा (भाग ९१)

भक्तों का संग है सर्वोच्च साधना

(अतएव) उस (महत्सङ्ग-भक्तसङ्ग) की ही साधना करो, उसी की साधना करो।’’ देवर्षि का यह सूत्र सुनकर ऋषि रुक्मवर्ण बरबस बाले उठे, ‘‘सुखद! सुन्दर!! सुमनोहर!!!’’ इतना कहने के साथ वह फिर से मौन होकर कहीं खो ग। देवर्षि द्वारा किए गए सूत्र उच्चारण के साथ ऋषि रुक्मवर्ण की प्रसन्नता का अतिरेक सभी ने देखा। उनके उल्लास की आभा सबने निहारी। इसे देखकर सबके अन्तर्भावों में एक ही बात आयी कि महर्षि रुक्मवर्ण की कुछ विशेष स्मृतियाँ अवश्य ही इस सूत्र में पिरोयी हैं। ऋषि रुक्मवर्ण, अवस्था एवं ज्ञान दोनों में ही ज्येष्ठ थे। उनसे कौन आग्रह करे यह तय न हो सका। आखिर सभी विशिष्टजनों ने महर्षि पुलह की ओर देखा। महर्षि पुलह ने सभी का यह दृष्टि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘महर्षि! हम सभी का समवेत आग्रह है कि देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आज आप करें।’’ महर्षि पुलह के इस कथन पर रुक्मवर्ण ने सहजता से हामी भर दी।

कुछ देर उन्होंने अनन्त अन्तरिक्ष की ओर निहारा फिर कहने लगे- ‘‘दरअसल देवर्षि का यह सूत्र मेरी आत्मकथा है। मेरे अपने जीवन की सभी घटनाएँ इस अनूठे सूत्र में स्वाभाविक ढंग से पिरोयी हुई हैं। मेरे जीवन में यदि कुछ भी श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर हो सका है तो वह इसी विधि से हुआ है। देवर्षि ने सम्पूर्णतया सत्य कहा है कि महत्सङ्ग की साधना-भक्तसङ्ग की साधना अकेले ही परम समर्थ है। दैवयोग से बचपन में मेरे माता-पिता न रहे। पड़ोस के लोगों ने तरस खाकर मुझे एक भगवद्भक्त के आश्रम में दे दिया। उन उदारहृदय का आश्रम मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा वरदान बन गया। उनसे मैंने अपने जीवन का सबसे पहला पाठ यह सीखा कि जीवन में कोई भी घटना न तो बुरी है और न व्यर्थ। बुरा तो हमारा अपना मन होता है जो भगवान के मंगलमय विधान में बुराई ढूँढने लगता है।

भगवान तो परम कृपालु हैं, वे तो जीवात्मा की उन्नति के लिए, उसे निखारने-संवारने के लिए, उसके उत्तरोत्तर विकास के लिए उचित, उपयुक्त, आवश्यक एवं अनिवार्य घटनाओं की शृंखला रचते हैं। जिसके लिए जो सही है, उसके जीवन में वही घटित होता है। भगवद्विधान तो हमारे लिए सब कुछ जुटा देता है, बस हम ही अपनी नकारात्मक, निषेधात्मक वृत्तियों के कारण उनका सदुपयोग नहीं कर पाते। इनके सदुपयोग की कला का विकास भक्तसङ्ग से होता है क्योंकि भक्त के जीवन में कुछ नकारात्मक-निषेधात्मक होता ही नहीं है। सच में भक्त तो वही है जो भाव में, विचार में, कर्म में, प्रत्येक पल में सकारात्मक होता है। हमें अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में जिन भगवद्भक्त महामानव का आश्रय मिला, उनसे मैंने यही सीखा कि प्रत्येक पल एवं प्रत्येक घटनाक्रम का सकारात्मक एवं सार्थक उपयोग करो।

उनके इस उपदेश को मानकर मैं जीवनप्रवाह के साथ बहता गया। जीवन की हर चोट, हर पीड़ा हमें गढ़ती गयी, संवारती गयी। भक्तसङ्ग की साधना से एक बात मैंने यह भी सीखी कि कभी कुछ मत मांगो, क्योंकि मांगने वाले को यह पता नहीं है कि यथार्थ में उसे क्या चाहिए? जबकि देने वाले परमेश्वर को यह पता है कि उसके भक्त को सचमुच में कब, क्या आवश्यकता है। सम्पूर्ण शरणागति ही तो भक्ति है, जो संकटों में, विषमताओं में, विपरीतताओं में विकसित होती है। मेरे जीवन में यही घटित होता रहा और भगवान अपने विभिन्न रूपों में मुझे सम्हालते रहे। उनकी ही प्रेरणा से मुझे भक्तों का दुर्लभ सान्निध्य मिलता रहा।

यदा-कदा ऐसा भी हुआ कि विषम घड़ियों में किसी भी भक्त का सान्निध्य न मिला। पर उन पलों में अन्तर्यामी मेरी अन्तर्चेतना में मुखर रहे। मनःस्थिति में कभी वह भाव एवं विचार बनकर प्रकट हुए तो परिस्थिति में सहृदय भक्त बनकर जीवन की राह दिखाते रहे। भक्तों के सङ्ग ने ही मुझे गढ़ा-निखारा। मेरी अपनी अनुभूति यही कहती है कि भक्तों का सङ्ग-साथ तो भक्तिशास्त्र का महाविद्यालय है। यह वह महागुरुकुल है, जहाँ स्वतः जीवनविद्या, भक्तिविद्या का शिक्षण मिल जाता है। भक्तों के संङ्ग में भगवान की सम्पूर्ण चेतना, उनकी अनन्त कृपा स्वाभाविक रीति से प्रकट होती है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक भक्तों का सङ्ग करना चाहिए। यही श्रेष्ठतम साधना है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७१

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