गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019
👉 हार-जीत का फैसला!
बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ मे निर्णायक थी- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। हार-जीत का निर्णय होना बाक़ी था, इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर जाना पड़ गया।
लेकिन जाने से पहले देवी भारती ने दोनो ही विद्वानो के गले मे एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, ये दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मे आपके हार और जीत का फैसला करेगी। यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गई। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।
कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आई। उन्होने अपनी निर्णायक नजरो से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया। उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।
सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान ने देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थी फिर वापस लौटते ही आपने ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?
देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मे पराजित होने लगता है, और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे है। इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।
विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की।
दोस्तो क्रोध मनुष्य की वह अवस्था है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तो मे दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को मुरझाने मत दीजिये।
लेकिन जाने से पहले देवी भारती ने दोनो ही विद्वानो के गले मे एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, ये दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मे आपके हार और जीत का फैसला करेगी। यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गई। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।
कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आई। उन्होने अपनी निर्णायक नजरो से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया। उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।
सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान ने देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थी फिर वापस लौटते ही आपने ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?
देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मे पराजित होने लगता है, और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे है। इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।
विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की।
दोस्तो क्रोध मनुष्य की वह अवस्था है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तो मे दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को मुरझाने मत दीजिये।
👉 प्रभु की माया
जो जानता है कि मैं नहीं जानता, पर कहता है कि मैं जानता हूँ, वह झूठा है। जो जानता है कि मैं अंश रूप में जानता हूँ और कहता है कि मैं जानता हूँ, वह वास्तव में नहीं जानता है, कारण कि पूर्णरूपेण जानना वास्तव में असंभव ही है।
जो जानता है कि मैं नहीं जानता और कहता है कि मैं नहीं जानता हूँ, वह सत्य कहता है। जो जनता है कि मैं अंश रूप में जानता हूँ और कहता है कि मैं नहीं जानता हूँ, वह कुछ जानता है, पर है वह अधूरा ही। यह भी प्रभु की माया है।
जो जानता है कि मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता और यही कहता भी है, वह औरों से अधिक जानता है, परंतु जो जानता है कि मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता, इसी कारण चुप रहता है, किसी से कुछ नहीं कहता, वह वास्तव में बहुत जानता है। इतना जानकर भी जो प्रभु के प्रेम में सब कुछ भूल जाता है, वह प्रभु में लय हो जाता है। वह धन्य है।
वही पूर्णतया जानता है, जो जानकर भी भूल गया है, जो भक्त है, अनन्य प्रेमी है। वह अब क्या बताए? उसके पास बताने की कोई बात ही नहीं है, उसके द्वंद्व मिट चुके हैं। अब कौन बताए और किसे बताए, बताने को धरा ही क्या है? यही प्रभु की माया है। उसकी माया वही जाने। प्रभु की महिमा अपरंपार है।
📖 अखण्ड ज्योति-जनवरी 1941
जो जानता है कि मैं नहीं जानता और कहता है कि मैं नहीं जानता हूँ, वह सत्य कहता है। जो जनता है कि मैं अंश रूप में जानता हूँ और कहता है कि मैं नहीं जानता हूँ, वह कुछ जानता है, पर है वह अधूरा ही। यह भी प्रभु की माया है।
जो जानता है कि मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता और यही कहता भी है, वह औरों से अधिक जानता है, परंतु जो जानता है कि मैं जानता भी हूँ और नहीं भी जानता, इसी कारण चुप रहता है, किसी से कुछ नहीं कहता, वह वास्तव में बहुत जानता है। इतना जानकर भी जो प्रभु के प्रेम में सब कुछ भूल जाता है, वह प्रभु में लय हो जाता है। वह धन्य है।
वही पूर्णतया जानता है, जो जानकर भी भूल गया है, जो भक्त है, अनन्य प्रेमी है। वह अब क्या बताए? उसके पास बताने की कोई बात ही नहीं है, उसके द्वंद्व मिट चुके हैं। अब कौन बताए और किसे बताए, बताने को धरा ही क्या है? यही प्रभु की माया है। उसकी माया वही जाने। प्रभु की महिमा अपरंपार है।
📖 अखण्ड ज्योति-जनवरी 1941
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ७७)
👉 अचेतन की चिकित्सा करने वाला एक विशिष्ट सैनिटोरियम
आध्यात्मिक चिकित्सा केन्द्र के रूप में शान्तिकुञ्ज द्वारा की जा रही सेवाएँ विश्वविदित हैं। ब्रह्ममुहूर्त से ही यहाँ मानवीय चेतना के जागरण के स्वर ध्वनित होने लगते हैं। गायत्री महामंत्र के जप एवं भगवान् सूर्य के ध्यान के साथ यहाँ रहने वाले व यहाँ आये अनगिन साधक अरुणोदय का अभिनन्दन करते हैं। और इन्हीं क्षणों में मिलती है उन्हें उस प्रकाश दीप की प्रेरणा जिसे शान्तिकुञ्ज के संस्थापक ने सन् १९२६ ई. के वसन्त पर्व पर देवात्मा हिमालय की दिव्य विभूति की साक्षी में जलाया था। जो तब से लेकर अब तक अखण्ड जलते हुए असंख्य जनों को प्रकाशभरी प्रेरणाएँ बाँट रहा है। अनन्त अनुभूतियाँ इसकी साक्षी में उभरीं और चिदाकाश की धरोहर बनी हैं। यह अविरल कथा- गाथा आज भी कही जा रही है।
सूर्योदय के साथ ही इसके मद्धम स्वर मेघमन्द्र हो जाते हैं। शिवालिक पर्वतमालाओं की घाटियों में बसे शान्तिकुञ्ज के मध्य बनी यज्ञशाला में वैदिक मंत्रों के सविधि सस्वर गान के साथ स्वाहा की गूँज उभरती है तो न जाने कितने लोगों की शारीरिक- मानसिक व्याधियाँ एक साथ भस्म हो जाती हैं। यह स्वाहा का महाघोष ऐसा होता है जैसे भगवान् महाकाल ने विश्व के महारोगों को भस्मीभूत करने के लिए महास्वाहा का उच्चारण किया हो। पवित्र यज्ञ के अनन्तर यहाँ आये हुए लोग विशिष्ट साधकों के पवित्र वचनों को सुनते हैं। इससे उनकी विचार चेतना नया प्रशिक्षण पाती है। इन विचार औषधियों के बाद उन्हें माँ गायत्री का महाप्रसाद मिलता है।
महाप्रसाद के अनन्तर साधक- साधिकाएँ यहाँ अपने प्रशिक्षण का नया क्रम प्रारम्भ करते हैं। इसके द्विआयामी दृश्य है। पहले आयाम में नव दिवसीय सत्र के कार्यक्रम हैं जो व्यक्ति की आत्मचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए हैं। दूसरा आयाम एक मासीय सत्र के कार्यक्रमों का है, जो सामूहिक लोकचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए है। यह प्रशिक्षण सम्पूर्ण दिवस चलता रहता है। साँझ होते ही भगवान् भुवन भास्कर तो विश्व के दूसरे गोलार्ध को प्रकाशित करने चले जाते हैं। परन्तु जाते- जाते वे यहाँ के साधकों को आशीष देना नहीं भूलते। उनके आशीष की यह लालिमा काफी समय तक साधकों के मन को अपने रंग में रँगती रहती है।
इसी के साथ साधकों के रंग में रँगी साँझ साधकों के अन्तर्गगन में विलीन होती है। और निशा के प्रथम प्रहर में साधकों के प्रशिक्षण का शेष भाग पूरा होता है। इसके बाद सभी विधाता का स्मरण करते हुए निद्रालीन होने लगते हैं। लेकिन इनमें कुछ ऐसे होते हैं, जो अपने अन्तराल में सद्गुरु के संकेतों को पल- पल अवतरित होते हुए अनुभव करते हैं। इस अकथनीय अनुभवों के साथ उनकी निशीथ कालीन साधना प्रारम्भ होती है। ये साधक अपने आराध्य गुरुदेव को दिये गये वचन के अनुसार महानिशा में शयन को महापाप समझते हैं। जो सचमुच में साधक हैं वे महानिशा में कभी सोते नहीं। उनके लिए यह समय सघन साधना में विलीन विसर्जित होने के लिए है, न कि मोह निद्रा के महापाश में बँधने के लिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १०७
आध्यात्मिक चिकित्सा केन्द्र के रूप में शान्तिकुञ्ज द्वारा की जा रही सेवाएँ विश्वविदित हैं। ब्रह्ममुहूर्त से ही यहाँ मानवीय चेतना के जागरण के स्वर ध्वनित होने लगते हैं। गायत्री महामंत्र के जप एवं भगवान् सूर्य के ध्यान के साथ यहाँ रहने वाले व यहाँ आये अनगिन साधक अरुणोदय का अभिनन्दन करते हैं। और इन्हीं क्षणों में मिलती है उन्हें उस प्रकाश दीप की प्रेरणा जिसे शान्तिकुञ्ज के संस्थापक ने सन् १९२६ ई. के वसन्त पर्व पर देवात्मा हिमालय की दिव्य विभूति की साक्षी में जलाया था। जो तब से लेकर अब तक अखण्ड जलते हुए असंख्य जनों को प्रकाशभरी प्रेरणाएँ बाँट रहा है। अनन्त अनुभूतियाँ इसकी साक्षी में उभरीं और चिदाकाश की धरोहर बनी हैं। यह अविरल कथा- गाथा आज भी कही जा रही है।
सूर्योदय के साथ ही इसके मद्धम स्वर मेघमन्द्र हो जाते हैं। शिवालिक पर्वतमालाओं की घाटियों में बसे शान्तिकुञ्ज के मध्य बनी यज्ञशाला में वैदिक मंत्रों के सविधि सस्वर गान के साथ स्वाहा की गूँज उभरती है तो न जाने कितने लोगों की शारीरिक- मानसिक व्याधियाँ एक साथ भस्म हो जाती हैं। यह स्वाहा का महाघोष ऐसा होता है जैसे भगवान् महाकाल ने विश्व के महारोगों को भस्मीभूत करने के लिए महास्वाहा का उच्चारण किया हो। पवित्र यज्ञ के अनन्तर यहाँ आये हुए लोग विशिष्ट साधकों के पवित्र वचनों को सुनते हैं। इससे उनकी विचार चेतना नया प्रशिक्षण पाती है। इन विचार औषधियों के बाद उन्हें माँ गायत्री का महाप्रसाद मिलता है।
महाप्रसाद के अनन्तर साधक- साधिकाएँ यहाँ अपने प्रशिक्षण का नया क्रम प्रारम्भ करते हैं। इसके द्विआयामी दृश्य है। पहले आयाम में नव दिवसीय सत्र के कार्यक्रम हैं जो व्यक्ति की आत्मचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए हैं। दूसरा आयाम एक मासीय सत्र के कार्यक्रमों का है, जो सामूहिक लोकचेतना को परिष्कृत व प्रशिक्षित करने के लिए है। यह प्रशिक्षण सम्पूर्ण दिवस चलता रहता है। साँझ होते ही भगवान् भुवन भास्कर तो विश्व के दूसरे गोलार्ध को प्रकाशित करने चले जाते हैं। परन्तु जाते- जाते वे यहाँ के साधकों को आशीष देना नहीं भूलते। उनके आशीष की यह लालिमा काफी समय तक साधकों के मन को अपने रंग में रँगती रहती है।
इसी के साथ साधकों के रंग में रँगी साँझ साधकों के अन्तर्गगन में विलीन होती है। और निशा के प्रथम प्रहर में साधकों के प्रशिक्षण का शेष भाग पूरा होता है। इसके बाद सभी विधाता का स्मरण करते हुए निद्रालीन होने लगते हैं। लेकिन इनमें कुछ ऐसे होते हैं, जो अपने अन्तराल में सद्गुरु के संकेतों को पल- पल अवतरित होते हुए अनुभव करते हैं। इस अकथनीय अनुभवों के साथ उनकी निशीथ कालीन साधना प्रारम्भ होती है। ये साधक अपने आराध्य गुरुदेव को दिये गये वचन के अनुसार महानिशा में शयन को महापाप समझते हैं। जो सचमुच में साधक हैं वे महानिशा में कभी सोते नहीं। उनके लिए यह समय सघन साधना में विलीन विसर्जित होने के लिए है, न कि मोह निद्रा के महापाश में बँधने के लिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १०७
👉 The Illusive Reality
One who knows that he knows not, but claims he knows – is a liar. One who knows little bit but thinks he knows – is ignorant. One who knows not and knows and accepts that he knows not – is sincere. One who knows partially and knows that he knows not – is a learner. But none can know it because it is impossible to know it. This is what, is the maya – the ‘grand illusion’ of our perception of the gigantic creation of God.
One who knows that he knows and also knows that he does not – is wise. He does not say it despite knowing a lot. Because he knows a lot and therefore knows that nothing could be said or discussed about it. One who knows that it is undecipherable infinity and immerses and ‘illusion’ of self-identity into devotion of the Omniscient – is enlightened…
His existence is unified with the devotion and love of god. He has realized the absolute void in the infinity (of maya – the illusive creation) and the infinity (of God) in the void (sublime). What doubts or queries he would have? Nothing! What he would know and about what? Nothing! He says nothing. What he would say and to whom? He knows God and knows that God alone knows his maya.
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941
One who knows that he knows and also knows that he does not – is wise. He does not say it despite knowing a lot. Because he knows a lot and therefore knows that nothing could be said or discussed about it. One who knows that it is undecipherable infinity and immerses and ‘illusion’ of self-identity into devotion of the Omniscient – is enlightened…
His existence is unified with the devotion and love of god. He has realized the absolute void in the infinity (of maya – the illusive creation) and the infinity (of God) in the void (sublime). What doubts or queries he would have? Nothing! What he would know and about what? Nothing! He says nothing. What he would say and to whom? He knows God and knows that God alone knows his maya.
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941
👉 दो मित्र की की गति परिणति
दो मित्र एक साथ खेले, बड़े हुए। पढ़ाई में भी दोनों आगे रहते थे। एक धनी घर का था और उसे खर्च की खुली छूट थी। दूसरा निर्धन पर संस्कारवान घर से आया था व सदैव सीमित खर्च करता। धनी मित्र जब तक साथ रहा उसे अपनी फिजूलखर्ची में साथ रहने को आमंत्रित करता रहा। पर उसने उसकी यही बात न मानी शेष बातों पर सदैव परामर्श लेता भी रहा और उसे सुझाव देता भी कि अक्षय सम्पदा होते हुए भी तुम्हें खर्च अनावश्यक नहीं करना चाहिए।
दोनों कालान्तर में अलग हुए। निर्धन मित्र ने अध्यापक की नौकरी स्वीकार कर ली व धनी मित्र ने व्यापार में धन लगाकर अपना कारोबार अलग बना लिया। १० वर्ष बाद दोनों की सहसा मुलाकात एक औषधालय में हुई। धनी मित्र अपना धन तो चौपट कर ही चुका था, अन्य दुव्यर्सनों के कारण जिगर खराब होने से औषधालय में चिकित्सार्थ भर्ती था। दूसरी ओर उसका मित्र अब एक विद्यालय का प्रधानाचार्य था। पति-पत्नी व एक बालक सीमित खर्च में निर्वाह करते थे। प्रसन्न उल्लास युक्त जीवन जीते थे। दोनों ने एक दूसरे की कथा-गाथा सुनी। धनी मित्र की आँखों से आँसू लुढ़क पड़े "मित्र ! मैंने तुम्हारा कहा माना होता तो आज मेरी यह स्थिति न होती। अनावश्यक खर्च की मेरी वृत्ति ने आज मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया।'' दूसरे ने सहानुभूति दर्शायी, यथा सम्भव आर्थिक सहयोग देकर उसे नये सिरे से जीवन जीने योग्य बना दिया।
धनार्जने यथा बुद्धेरपेक्षा व्ययकर्मणि।
ततोऽधिकैव सापेक्ष्या तत्रौचित्सस्य निश्चये।। प्रज्ञा पुराण ।।
धन कमाने में जितनी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता पड़ती है, उससे अनेक गुनी व्यय के औचित्य का निर्धारण करते समय लगनी चाहिए।।
सही तरीके से कमाना व सही कामों में औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखकर खर्च करना ही लक्ष्मी का सम्मान है। इसलिए अर्थ संतुलन के मितव्ययिता पक्ष को प्रधानता दी जाती है। ध्यान यही रखा जाय कि जो भी बचाया जाय उसको उचित प्रयोजनों में नियोजित कर दें।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग १ से
दोनों कालान्तर में अलग हुए। निर्धन मित्र ने अध्यापक की नौकरी स्वीकार कर ली व धनी मित्र ने व्यापार में धन लगाकर अपना कारोबार अलग बना लिया। १० वर्ष बाद दोनों की सहसा मुलाकात एक औषधालय में हुई। धनी मित्र अपना धन तो चौपट कर ही चुका था, अन्य दुव्यर्सनों के कारण जिगर खराब होने से औषधालय में चिकित्सार्थ भर्ती था। दूसरी ओर उसका मित्र अब एक विद्यालय का प्रधानाचार्य था। पति-पत्नी व एक बालक सीमित खर्च में निर्वाह करते थे। प्रसन्न उल्लास युक्त जीवन जीते थे। दोनों ने एक दूसरे की कथा-गाथा सुनी। धनी मित्र की आँखों से आँसू लुढ़क पड़े "मित्र ! मैंने तुम्हारा कहा माना होता तो आज मेरी यह स्थिति न होती। अनावश्यक खर्च की मेरी वृत्ति ने आज मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया।'' दूसरे ने सहानुभूति दर्शायी, यथा सम्भव आर्थिक सहयोग देकर उसे नये सिरे से जीवन जीने योग्य बना दिया।
धनार्जने यथा बुद्धेरपेक्षा व्ययकर्मणि।
ततोऽधिकैव सापेक्ष्या तत्रौचित्सस्य निश्चये।। प्रज्ञा पुराण ।।
धन कमाने में जितनी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता पड़ती है, उससे अनेक गुनी व्यय के औचित्य का निर्धारण करते समय लगनी चाहिए।।
सही तरीके से कमाना व सही कामों में औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखकर खर्च करना ही लक्ष्मी का सम्मान है। इसलिए अर्थ संतुलन के मितव्ययिता पक्ष को प्रधानता दी जाती है। ध्यान यही रखा जाय कि जो भी बचाया जाय उसको उचित प्रयोजनों में नियोजित कर दें।
📖 प्रज्ञा पुराण भाग १ से
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