आज रावण फिर शीश उठाता, सीता का दामन बच न पाता,
हर मन का असुर फिर पाँव बढ़ाता, घड़ा पाप का भरता ही जाता,
पापी का समूल नाश कर, क्या धर्म ध्वजा ना फहराओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
आज धरा फिर अकुलाती है, पाप का बोझ सह ना पाती है,
दंभ, लोभ तो सह भी जाती, पर अधर्म ना सह पाती है,
हे मर्यादा पुरूषोत्तम क्या तुम, धर्म हेतु भी ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
देखो मंथरा की कुटिल चाल से, कैकेयी का प्रेम फिर हारा है,
मां के प्रेम बिना बच्चों को, किसका यहां सहारा है,
बचपन खोने के द्वार खड़ी है, क्या इसे नही बचाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
फिर मित्रता की पड़ी परीक्षा, कौन करेगा पूरी इच्छा,
सच्चा मित्र, हितैषी कैसा हो, कौन देगा फिर इसकी शिक्षा,
क्या केंवट और सुग्रीव की, नैय्या पार ना लगवाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
भाई बन बैठा शत्रु भाई का, खुद का ही वंश मिटाता है,
अपनों से ही छल करता वो, भ्रातृ प्रेम समझ न पाता है,
भरत, लखन की त्याग कथा को, क्या फिर से नही सुनाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
मात-पिता की हालत ना पूछो, वृद्धाश्रम में शोभा पाते हैं,
पुत्रों के सक्षम होते ही, मात-पिता बोझ हो जाते हैं,
हे मात-पिता के प्रिय पुत्र तुम, क्या पुत्र धर्म ना बतलाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
मानव पतन की गर्त में जा रहा, एक दूजे को न कोई भा रहा,
प्रेम, समर्पण और त्याग की, जैसे कोई लंका जला रहा,
क्या मानव उत्थान के लिए, अब भी तुम ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
- डॉ आरती कैवर्त 'रितु'
हर मन का असुर फिर पाँव बढ़ाता, घड़ा पाप का भरता ही जाता,
पापी का समूल नाश कर, क्या धर्म ध्वजा ना फहराओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
आज धरा फिर अकुलाती है, पाप का बोझ सह ना पाती है,
दंभ, लोभ तो सह भी जाती, पर अधर्म ना सह पाती है,
हे मर्यादा पुरूषोत्तम क्या तुम, धर्म हेतु भी ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
देखो मंथरा की कुटिल चाल से, कैकेयी का प्रेम फिर हारा है,
मां के प्रेम बिना बच्चों को, किसका यहां सहारा है,
बचपन खोने के द्वार खड़ी है, क्या इसे नही बचाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
फिर मित्रता की पड़ी परीक्षा, कौन करेगा पूरी इच्छा,
सच्चा मित्र, हितैषी कैसा हो, कौन देगा फिर इसकी शिक्षा,
क्या केंवट और सुग्रीव की, नैय्या पार ना लगवाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
भाई बन बैठा शत्रु भाई का, खुद का ही वंश मिटाता है,
अपनों से ही छल करता वो, भ्रातृ प्रेम समझ न पाता है,
भरत, लखन की त्याग कथा को, क्या फिर से नही सुनाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
मात-पिता की हालत ना पूछो, वृद्धाश्रम में शोभा पाते हैं,
पुत्रों के सक्षम होते ही, मात-पिता बोझ हो जाते हैं,
हे मात-पिता के प्रिय पुत्र तुम, क्या पुत्र धर्म ना बतलाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
मानव पतन की गर्त में जा रहा, एक दूजे को न कोई भा रहा,
प्रेम, समर्पण और त्याग की, जैसे कोई लंका जला रहा,
क्या मानव उत्थान के लिए, अब भी तुम ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।
- डॉ आरती कैवर्त 'रितु'