सोमवार, 19 अप्रैल 2021

👉 हे श्री राम तुम कब आओगे


आज रावण फिर शीश उठाता, सीता का दामन बच न पाता,
हर मन का असुर फिर पाँव बढ़ाता, घड़ा पाप का भरता ही जाता,
पापी का समूल नाश कर, क्या धर्म ध्वजा ना फहराओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

आज धरा फिर अकुलाती है, पाप का बोझ सह ना पाती है,
दंभ, लोभ तो सह भी जाती, पर अधर्म ना सह पाती है,
हे मर्यादा पुरूषोत्तम क्या तुम, धर्म हेतु भी ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

देखो मंथरा की कुटिल चाल से, कैकेयी का प्रेम फिर हारा है,
मां के प्रेम बिना बच्चों को, किसका यहां सहारा है,
बचपन खोने के द्वार खड़ी है, क्या इसे नही बचाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

फिर मित्रता की पड़ी परीक्षा, कौन करेगा पूरी इच्छा,
सच्चा मित्र, हितैषी कैसा हो, कौन देगा फिर इसकी शिक्षा,
क्या केंवट और सुग्रीव की, नैय्या पार ना लगवाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

भाई बन बैठा शत्रु भाई का, खुद का ही वंश मिटाता है,
अपनों से ही छल करता वो, भ्रातृ प्रेम समझ न पाता है,
भरत, लखन की त्याग कथा को, क्या फिर से नही सुनाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

मात-पिता की हालत ना पूछो, वृद्धाश्रम में शोभा पाते हैं,
पुत्रों के सक्षम होते ही, मात-पिता बोझ हो जाते हैं,
हे मात-पिता के प्रिय पुत्र तुम, क्या पुत्र धर्म ना बतलाओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

मानव पतन की गर्त में जा रहा, एक दूजे को न कोई भा रहा,
प्रेम, समर्पण और त्याग की, जैसे कोई लंका जला रहा,
क्या मानव उत्थान के लिए, अब भी तुम ना आओगे?
हे श्रीराम तुम कब आओगे, हे श्रीराम तुम कब आओगे।

- डॉ आरती कैवर्त 'रितु'

👉 भक्तिगाथा (भाग ७)

पराम्बा के प्रति परमप्रेमरूपा है भक्ति

देवर्षि के शब्दों ने न केवल उनकी बल्कि सभी सप्तऋषियों की स्मृतियों को कुरेद दिया। आखिर वे भी तो पार्वती के प्रेममय स्वरूप के साक्षी थे। महर्षि अंगिरा ने उन पुरानी स्मृतियों के सूत्रों को सुलझाते हुए कहा- ‘‘यह सच है देवर्षि! हम सबमें सबसे पहले आप ने ही उन्हें माँ के रूप में पहचाना था और उनको शिवप्रेम के महातप में तपने की सलाह दी थी और फिर चली थी उनकी कठिन कठोर और दारुण तपश्चर्या। गंगाद्वार (हरिद्वार) का विल्व वन, विल्वकेश्वर मंदिर आज भी उन जगदम्बा के उस महातप का साक्षी है।’’
    
महर्षि अंगिरा के कथन से सहमति व्यक्त करते हुए देवर्षि ने कहा- ‘‘महर्षिगणों! यह सच सभी को, आज के प्रत्येक मानव को समझना होगा कि तप की आग के बिना प्रेम शुद्ध नहीं होता है। जहाँ तप नहीं है वहाँ प्रेम पनप नहीं सकता। वहाँ तो प्रेम के नाम पर वासनाएँ ही नर्तन करती हैं। जिसे प्रेम का अनुभव करना है, प्रेम का स्वाद चखना है उसे तप करना चाहिए। प्रेममयी माँ ने यही किया।’’ ‘‘हाँ, देवर्षि!’’ महामुनि वेदशिरा कहने लगे, ‘‘मैं भी साक्षी था माँ के उस तप का।’’
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गँवाए॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किये कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भवउ अपरना॥
    
देवर्षि नारद आगे बोले- ‘‘तप में माँ ऐसी रमीं कि देह की सुध-बुध भूल गयीं। दैहिक कामनाएँ विसर्जित होती गयीं और अन्तर की भक्ति प्रगाढ़ होती गयी। उस समय साक्षात् सघन सौदामिनी की भाँति प्रचण्ड तेजस्विता थी माँ की।’’ नारद के इन स्वरों में साम्य बिठाते हुए महामुनि वेदशिरा बोले- ‘‘देवर्षि! उन्हीं दिनों देवाधिदेव भगवान महादेव ने काम-दहन किया था। उसे देवराज ने उन परमेश्वर की समाधि में व्याघात डालने के लिए भेजा था। बेचारा काम सर्वथा निष्काम परमेश्वर को सकाम करने चला था। शिव के तृतीय नेत्र की ज्वाला में जलकर राख हो गया। उसके बाद सप्तऋषिगण माँ की परीक्षा लेने के लिए गये थे।’’
    
इस प्रसंग के स्मरण से सप्तर्षियों के मन में भावों के कई उतार-चढ़ाव आये। उनमें से एक ने इस प्राचीन कथा के सूत्र को पकड़ते हुए कहा- ‘‘हम सबने माँ पार्वती को जाकर काम-दहन का संवाद सुनाते हुए कहा था कि जब काम ही नहीं बचा तो विवाह का क्या प्रयोजन और तब उन प्रेममयी ने लगभग फटकारते हुए कहा था-
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म बन बानी॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
    
हे ऋषियों! तुम्हारे ज्ञान के अनुसार भगवान शिव ने अब काम को जलाया है। अभी तक तो सकाम ही थे। पर मेरे ज्ञान के अनुसार भगवान शिव सदा से ही योगी हैं। यदि मैंने ऐसे शिव की मन, कर्म, वाणी से भक्ति की  है तो हे मुनिश्वरों! करुणामय भगवान हमारा प्रण अवश्य पूर्ण करेंगे।

महर्षि वेदशिरा सप्त ऋषियों के कथन को आगे बढ़ाते हुए बोले- ‘‘यही हुआ। माँ का प्रण पूरा हुआ। क्योंकि उनकी भक्ति प्रेममयी थी। जिसे उन्होंने तप के साँचे में ढाला था। जिसमें किसी भी कामना की कालिख नहीं थी। जो सभी साँसारिक भावों के भद्देपन से अछूती थी। इस भक्ति के प्रभाव से माँ का अंतस् भगवान शिव से एकाकार हुआ था।’’

ऋषि के इस प्रसंग का सब भावभरा स्मरण कर ही रहे थे कि हिमालय के उस दिव्य परिसर में एक अलौकिक आध्यात्मिक छटा छा गयी। सभी ने सिर उठा कर देखा, यह माँ जगदम्बा का प्राकट्य हुआ। अष्टभुजा भवानी, माँ सिंहवाहिनी की ज्योतिर्मयी छवि हिमालय के आकाश में प्रकाशित हो रही थी। सभी के मुख से स्वतः ही उच्चारित हो उठा-
या देवि सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै! नमस्तस्यै!! नमस्तस्यै नमो नमः!!!

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ७)


👉 प्रत्यक्ष लगने पर भी सत्य कहां

दार्शनिक विवेचनाओं से देश, काल का उल्लेख होता रहता है। उसे कोई मुल्क या घण्टा मिनट वाला समय नहीं समझ लेना चाहिये। यह पारिभाषिक शब्द है। वस्तुओं की लम्बाई चौड़ाई मोटाई को ‘देश’ कहा जाता है और उनके परिवर्तन को ‘काल’। आमतौर से वस्तुएं देश की अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई के आधार पर ही देखी जाती है जब कि उनकी व्याख्या विवेचना करते हुये काल का चौथा ‘आयाम’ भी सम्मिलित किया जाना चाहिये। किन्तु गतियां और दिशाएं अनिश्चित भी हैं और भ्रामक भी। काल तो उन्हीं पर आश्रित है यदि आधार ही गड़बड़ा रहा है तो काल का परिमाण कैसे निश्चित हो। अस्तु वस्तुओं को तीन आयाम की अपेक्षा चार आयाम वाली भी कहा जाय तो भी बात बनेगी नहीं। वस्तुएं क्या हैं? उनका रूप, गुण, कर्म स्वभाव क्या है? यह कहते नहीं बनता क्योंकि उनके परमाणु जिस द्रुतगति से भ्रमण शील रहते हैं उस अस्थिरता को देखते हुये एक क्षण की गई व्याख्या दूसरे ही क्षण परिवर्तित हो जायगी।

कौन बड़ा कौन छोटा इसका निश्चय भी निःसंकोच नहीं किया जा सकता है। पांच फुट की लकड़ी छह फुट वाली की तुलना में छोटी है और चार फुट वाली की तुलना में बड़ी। एक फुट मोटाई वाले तने की तुलना में दो फुट वाला मोटा ‘अधिक’ है और दो फुट वाले की तुलना में एक फुट वाला पतला। वह वस्तुतः मोटा है या पतला ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता। तुलना बदलते ही यह छोटा और बड़ा होता—पतला और मोटा होता सहज ही बदल जायेगा।

कौन धनी है और कौन निर्धन, कौन सुखी है कौन दुःखी, कौन सन्त है, कौन ज्ञानी है कौन अज्ञानी, कौन सदाचारी है कौन दुराचारी, इसका निर्णय अनायास ही कर सकना असम्भव है। इस प्रकार का निर्धारण करने से पूर्व यह देखना होगा कि किस की तुलना में निर्णय किया जाय। नितान्त निर्धन की तुलना में वह धनी है जिसके पास पेट भरने के साधन हैं। किन्तु लक्षाधीश की तुलना में वह निर्धन ही है। जिसे दस कष्ट हैं उसकी तुलना में तीन कष्ट वाला सुखी है, पर एक कष्ट वाले की तुलना में वह भी दुःखी है। वस्तुतः कौन सुखी और कौन दुःखी हैं यह नहीं कहा जा सकता। डाकू की तुलना में चोर सहृदय है किन्तु उठाईगीरे की तुलना में वह भी अधिक दुष्ट है। एक सामान्य नागरिक की तुलना में उठाईगीरा भी दुष्ट है, जबकि वह सामान्य नागरिक भी सन्त की तुलना में पिछड़ा हुआ और गया-गुजरा है। सन्त भी किसी महा सन्त आत्मत्यागी शहीद की तुलना में हलका बैठेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ११
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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