भव्य भवन थोड़े से या झोंपड़े बहुत से, इन दोनों में से एक का चयन जन कल्याण की दृष्टि से करना है, तो बहुलता वाली बात को प्रधानता देनी पड़ेगी। राम के पीछे वानर, कृष्ण के पीछे ग्वाल-बाल, शिव के भूत- पलीत वाले चयन का उद्देश्य समझने पर तथ्य स्पष्ट होता है कि बहुजन सुखाय बहुजन हिताय की नीति ही वरिष्ठ है। विद्वानों को निष्णात बनाने में भी हर्ज नहीं, पर निरक्षरों को साक्षर बनाना ही लोक हित की दृष्टि से प्रमुखता पाने योग्य ठहरता है।
विशालकाय गायत्री शक्तिपीठों और बड़े प्रज्ञा पीठों को अब क्षेत्रीय गतिविधियों का मध्य केन्द्र बना कर चला जायेगा। वे अपने- अपने मंडलों के केन्द्रीय कार्यालय रहेंगे। हर गाँव मुहल्ले में सृजन और सुधार व्यवस्था के लिए बिना इमारत के स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करेंगे। विशालकाय समारोहों की व्यवस्था दूर- दूर से जन समुदाय एकत्रित करके उत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से आवश्यक है, पर जब जन- जन से सम्पर्क साधने और घर- घर का द्वार खटखटाने की आवश्यकता पड़े तो निजी परिवार जैसे छोटे विचार परिवार ही काम देते हैं। इस प्रयोजन की पूर्ति स्वाध्याय मंडल ही कर सकते हैं।
एक अध्यापक प्रायः तीस छात्रों तक को पढ़ाने में समर्थ हो पाता है। स्वाध्याय मंडली को एक अध्यापक माना गया है और संस्थापक को चार अन्य भागीदारों की सहायता से एक छोटे विचार परिवार का गठन करके युगान्तरीय चेतना से उस समुदाय को अवगत अनुप्राणित करने के लिए कहा गया है। यही है स्वाध्याय मंडलों का संगठन।
प्रज्ञा परिजनों में से जिनमें भी प्रतिभा, कर्मठता, साहसिकता हो उसे इसी स्वाध्याय संगठनों में तत्काल नियोजित करना चाहिए। इसमें उनकी सृजन शक्ति को प्रकट प्रखर होने का अवसर मिलेगा। बड़े संगठनों में आये दिन खींचतान और दोषारोपण के झंझट चलते हैं। निजी सम्पर्क और निजी प्रयत्न से एक प्रकार का निजी विचार परिवार बना लेने में किसी प्रकार के विग्रह की आशंका नहीं है। हर दम्पत्ति अपना नया परिवार बनाता और नया वंश चलाता है। प्रज्ञा परिजनों में से जो भी मानसिक बौनेपन से बढ़कर प्रौढ़ता परिपक्वता की स्थिति तक पहुँच चुके हैं, उन्हें अपने निजी पुरुषार्थ का विशिष्ट परिचय देना चाहिए। हर प्रौढ़ होने पर अपना एक नया घोंसला बनाता है।
स्वाध्याय मंडल के संस्थापन संचालन की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। इस सृजन के लिए जिसकी भी श्रद्धा उमगे, उसे अपने प्रभाव क्षेत्र के और अपने जैसी प्रकृति के चार साथी ढूँढ़ निकालने चाहिए। पाँच की संचालक मंडली गठित करनी चाहिए। इन पाँच पाण्डवों में से प्रत्येक को बीस- बीस पैसा नित्य अंशदान और न्यूनतम एक घंटा समयदान करते रहने के लिए सहमत करना चाहिए इतनी भर पूँजी जुटाने पर स्वाध्याय मंडल की निर्धारित गतिविधियाँ निर्बाध रूप से चल पड़ेंगी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)