सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग १)

भव्य भवन थोड़े से या झोंपड़े बहुत से, इन दोनों में से एक का चयन जन कल्याण की दृष्टि से करना है, तो बहुलता वाली बात को प्रधानता देनी पड़ेगी। राम के पीछे वानर, कृष्ण के पीछे ग्वाल-बाल, शिव के भूत- पलीत वाले चयन का उद्देश्य समझने पर तथ्य स्पष्ट होता है कि बहुजन सुखाय बहुजन हिताय की नीति ही वरिष्ठ है। विद्वानों को निष्णात बनाने में भी हर्ज नहीं, पर निरक्षरों को साक्षर बनाना ही लोक हित की दृष्टि से प्रमुखता पाने योग्य ठहरता है।

विशालकाय गायत्री शक्तिपीठों और बड़े प्रज्ञा पीठों को अब क्षेत्रीय गतिविधियों का मध्य केन्द्र बना कर चला जायेगा। वे अपने- अपने मंडलों के केन्द्रीय कार्यालय रहेंगे। हर गाँव मुहल्ले में सृजन और सुधार व्यवस्था के लिए बिना इमारत के स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करेंगे। विशालकाय समारोहों की व्यवस्था दूर- दूर से जन समुदाय एकत्रित करके उत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से आवश्यक है, पर जब जन- जन से सम्पर्क साधने और घर- घर का द्वार खटखटाने की आवश्यकता पड़े तो निजी परिवार जैसे छोटे विचार परिवार ही काम देते हैं। इस प्रयोजन की पूर्ति स्वाध्याय मंडल ही कर सकते हैं।
   
एक अध्यापक प्रायः तीस छात्रों तक को पढ़ाने में समर्थ हो पाता है। स्वाध्याय मंडली को एक अध्यापक माना गया है और संस्थापक को चार अन्य भागीदारों की सहायता से एक छोटे विचार परिवार का गठन करके युगान्तरीय चेतना से उस समुदाय को अवगत अनुप्राणित करने के लिए कहा गया है। यही है स्वाध्याय मंडलों का संगठन।

प्रज्ञा परिजनों में से जिनमें भी प्रतिभा, कर्मठता, साहसिकता हो उसे इसी स्वाध्याय संगठनों में तत्काल नियोजित करना चाहिए। इसमें उनकी सृजन शक्ति को प्रकट प्रखर होने का अवसर मिलेगा। बड़े संगठनों में आये दिन खींचतान और दोषारोपण के झंझट चलते हैं। निजी सम्पर्क और निजी प्रयत्न से एक प्रकार का निजी विचार परिवार बना लेने में किसी प्रकार के विग्रह की आशंका नहीं है। हर दम्पत्ति अपना नया परिवार बनाता और नया वंश चलाता है। प्रज्ञा परिजनों में से जो भी मानसिक बौनेपन से बढ़कर प्रौढ़ता परिपक्वता की स्थिति तक पहुँच चुके हैं, उन्हें अपने निजी पुरुषार्थ का विशिष्ट परिचय देना चाहिए। हर प्रौढ़ होने पर अपना एक नया घोंसला बनाता है।
   
स्वाध्याय मंडल के संस्थापन संचालन की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। इस सृजन के लिए जिसकी भी श्रद्धा उमगे, उसे अपने प्रभाव क्षेत्र के और अपने जैसी प्रकृति के चार साथी ढूँढ़ निकालने चाहिए। पाँच की संचालक मंडली गठित करनी चाहिए। इन पाँच पाण्डवों में से प्रत्येक को बीस- बीस पैसा नित्य अंशदान और न्यूनतम एक घंटा समयदान करते रहने के लिए सहमत करना चाहिए इतनी भर पूँजी जुटाने पर स्वाध्याय मंडल की निर्धारित गतिविधियाँ निर्बाध रूप से चल पड़ेंगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ७९)

प्रभु के भजन का, स्मरण का क्रम अखण्ड बना रहे

अखण्ड भजन का यह सूत्र विलक्षण था क्योंकि भजन अखण्ड हो सके यह व्यवस्था जरा कठिन है। क्योंकि कोई कितना भी तप करे, कितना भी जप करे, कितनी देर भी ध्यान लगाए परन्तु कभी न कभी, कहीं न कहीं तो विराम लेगा ही। एक पल के लिए ही सही, रुकाव-ठहराव तो आएगा ही। यह ठहराव न आए, भजन की भक्तिधारा अविराम प्रवाहित रहे यह तो तभी सम्भव है, जब भक्त मिट जाए और रहे केवल भगवान ही। यह तभी सम्भव है, जब भगवान का स्मरण, भक्त के अन्य कृत्यों में से एक कृत्य न हो, नहीं तो व्याघात पड़ेगा ही। क्योंकि जब कभी भक्त अन्य कृत्यों में उलझेगा तो परमात्मा भूल जाएगा। देवस्थान पर जाओ तो भगवान की याद, कृषि कर्म में लगो तो भगवान की याद, नहीं तो फिर अखण्ड न रह सकेगा- भगवान का स्मरण। स्मरण तो ऐसा हो कि देव मन्दिर में रहें या फिर कृषि कर्म में, मित्र से मिलें या फिर शत्रु से, परमात्मा की याद में कोई फर्क न पड़े। उनकी याद सदा ही घेरे रहे। उनकी याद ही चारों तरफ का एक माहौल बन जाय। श्वास-श्वास में समा जाए। क्योंकि परमात्मा की याद विविध स्मृतियों में से एक स्मृति नहीं है, यह तो महास्मृति है।

देवर्षि का सूत्र सुनकर ऋषि धौम्य के अन्तःसरोवर में भाव-चिन्तन की ये उर्मियाँ उमगती रहीं। वे काफी समय तक स्वयं में खोए रहे। तभी हिमपक्षी के स्वरों ने उनकी स्मृति को कुरेदा और उनके स्मृतिपटल पर महारानी कुन्ती का भावप्रवण मुख दमक उठा। हालांकि उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। बस मौन भाव से अपनी स्मृतियों मे मन को भक्तिसूत्र में पिरोते रहे। ऋषि धौम्य की इस भावदशा ने देवर्षि सहित अनेकों ऋषियों के मर्म को छुआ। इस छुअन ने उनके मनों में एक भक्तिपूर्ण सिहरन पैदा की और उनमें से एक महर्षि पुलह कह उठे- ‘‘महर्षि अपनी स्मृति कथा से हम सबको भी अनुगृहीत करें।’’

उत्तर में धौम्य मुस्कराए और कह उठे- ‘‘हमें तो बस महारानी कुन्ती का स्मरण हो आया। पाण्डवों की माता कुन्ती, महाराज पाण्डु की धर्मपरायणा पत्नी कुन्ती, श्रीकृष्ण की बुआ कुन्ती, और सर्वेश्वर लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की परमभक्त कुन्ती। कुन्ती के कितने ही रूप मैंने अनेक अवसरों पर देखे हैं परन्तु कभी भी मैंने उनके अन्तःसरोवर को भक्ति से रिक्त नहीं देखा। हमेशा ही विपद में, सम्पद में, उनका अन्तःसरोवर भावों से, भक्ति से उफनता-उमगता ही रहा है। इस समय मुझे जिस घटना का स्मरण हो रहा है, वह महाभारत युद्ध के पश्चात् की है। महाभारत का महासमर समाप्त हो चुका था। गंगापुत्र भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर को तत्त्वोपदेश देने के पश्चात्, राजधर्म-नीतिज्ञान की शिक्षा देने के पश्चात, महाप्रयाण कर चुके थे। महर्षि वेदव्यास सहित अन्य ऋषियों ने युधिष्ठिर को सम्राट के पद पर अभिषिक्त कर दिया था।

यह सम्राट युधिष्ठिर का द्वितीय अभिषेक था। पहले वह राजसूय यज्ञ करने के बाद इन्द्रप्रस्थ नगरी में सम्राट पद ग्रहण कर चुके थे। उस समय चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ थीं। ऋषियों, भक्तों एवं ज्ञानियों, तपस्वियों का महासमुदाय भी आ जुटा था। उल्लास जैसे सब ओर बिखरा पड़ रहा था। इस महोल्लास के बीच धर्मराज युधिष्ठिर, महारानी द्रौपदी के साथ राजसिंहासन पर आसीन हुए थे। अवसर आज भी कुछ वैसा ही था, फिर से महाराज युधिष्ठिर एवं महारानी द्रौपदी राजसिंहासन पर आसीन थे। बन्दीजन सम्राट का जयघोष कर रहे थे। महावीरों, महाज्ञानियों, महातपस्वियों से सुदा सुशोभित रहने वाली हस्तिनापुर की राजसभा में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने राजामाता कुन्ती से पूछा- बुआ! अब तुम्हारे पुत्र विजेता हैं। आप राजमाता हैं। ऐसे में आपको और क्या चाहिए?

राजमाता कुन्ती ने श्रीकृष्ण की ओर देखा और मुस्कराई। फिर कुछ क्षण रुककर वह बोली- हे कृष्ण! यदि तुम मुझे देना ही चाहते हो, तो मुझे दुःखों का वरदान दो। श्रीकृष्ण ने पूछा- वह क्यों बुआ, आपने तो सारे जीवन दुःख ही उठाए हैं। दीर्घकाल के बाद ये सुख के क्षण आए हैं, तब ऐसा क्यों कह रही हैं? इसके उत्तर में कुन्ती बोलीं- वह इसलिए क्योंकि दुःखों में तुम्हारे भजन का क्रम अखण्ड बना रहता है। परिस्थितियों में भले ही दुःखों की काली छाया बनी रहे, परन्तु मनःस्थिति में भक्ति का उजाला निरन्तर बना रहता है। कुन्ती के इस कथन पर श्रीकृष्ण मौन रहे। परन्तु कुन्ती ने आगे बढ़ कर युधिष्ठिर से कहा- पुत्र! तुम अपने राजधर्म का पालन करो और ज्येष्ठश्री धृतराष्ट्र, जेठानीजी गान्धारी एवं देवर विदुर के साथ मैं वन को प्रस्थान करूँगी। कुन्ती के इस कथन में जो दृढ़ता थी, उसे सभी ने अनुभव किया। उन्होंने जो कहा, वही किया भी। उन्होंने धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुर के साथ वन को प्रस्थान किया। प्रस्थान करते समय उन्होंने बस एक नजर श्रीकृष्ण को निहारा और बोली, हे कृष्ण तुम्हारा भजन निरन्तर बना रहे, यही वर देना। उत्तर में परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिय भक्त कुन्ती की ओर बस आँसू भरी आँखों से देखा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४८

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...