शनिवार, 18 जुलाई 2020

👉 अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता (अंतिम भाग)

मन की सफाई जितनी आवश्यक है, अक्सर उस पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। बहिरंग उपचार को ही प्रमुख मानने वाले तथा फिर उपासक, साधक अपना ध्यान शरीर शोधन तक ही नियोजित रखते हैं। जबकि उनका मन तरह-तरह भ्रम-जंजालों में तर्क-वितर्कों में भ्रमण करता रहता है। लिप्सा, वासना से मुक्ति पाना ही वास्तविक मोक्ष है। अपने मन की शुद्धि की जा सके एवं कामनाओं को भावनाओं में परिणित किया जा सके तो साधना की दिशा में कदम बढ़ा सकना संभव है। जीवन के साधना के विभिन्न उपचार जिनमें परोपकार व लोकमंगल की अनेकानेक गतिविधियाँ आती हंै—इस दिशा में सहायक होते हैं। मनोयोग से किसी काम को करना जीवन साधना का ही अंग है। ‘वर्क इज वरशिप’ इसी को कहते हैं। सबसे पहले जीवन को सुव्यवथित एवं सुनियोजित बना लें, फिर साधना क्षेत्र में प्रवेश करें। पारिवारिकता का विस्तार, अपने दायरे का फैलाव, अनुदारता का उदारता में परिवर्तन, मानसिक स्वास्थ्य की संपन्नता का परिचायक है। पर यह सबके लिए इतना आसान नहीं है।
   
इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है, जो त्याग-तप की दृष्टि से आवश्यक साहस कर सके। लोगों की निन्दा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता का विचार किये बिना विवेक, बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुए दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा। मनस्वी और तेजस्वी होने का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।
  
इन्द्रिय निग्रह में, तितिक्षाओं के अभ्यास में, साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास, सर्दी-गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान, पुण्य, मौन आदि क्रियाकलाप इसीलिए हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए शरीर तथा मन को विवश किया जाए। मनोबल बढ़ाने के लिए ही तपश्चर्यायें विनिर्मित की गई हैं। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम हैं। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिए। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है—आकांक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़कर आत्मिक उद्देश्योंं में नियोजित करना। इसी प्रकार आत्मबल संपन्न होने का अर्थ है—आदर्शवाद के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य।  हमें मनस्वी और आत्मबल संपन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिए तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिए। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उससे देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी। कहना न होगा इस लक्ष्य की आपूर्ति की साधना मानसिक परिशोधन के साथ आरंभ करनी है। मलीनताओं के आवरण से ढके मन के परिष्कार के लिए तप और तितिक्षा का मार्ग अपनाना पड़ता है। पवित्र मन को देवता मानकर अभ्यर्थना की गयी है। कुसंस्कारी मन को पतन-पराभव का कारण माना गया है। मनुष्य की प्रगति अथवा अवगति में मन की ही प्रमुख भूमिका होती है। गीताकार इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहता है—
  
अर्थात् मन मनुष्य के बन्धन अथवा मोक्ष का साधन है। यह बन्धन और मुक्ति और कुछ नहीं मानसिक व्यापार की प्रतिक्रियाएँ मात्र हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे अनेकानेक विकारों से ग्रस्त मन ही बन्धन है। जब वह निर्विकार, निस्पृह और आसक्ति के बन्धनों से रहित होता है तो मुक्ति का साधन बन जाता है। अपने जीवन काल में ही मानसिक स्थिति के अनुरूप बन्धन-मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है और आन्तरिक विकारों के बन्धनों से निकलने तथा मुक्ति के दिव्य आनन्द का रसास्वादन करने के लिए मानसिक परिशोधन का आध्यात्मिक पुरूषार्थ करने का साहस जुटाना चाहिए।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Immeasurable Power of Truth

You should speak truth, think truthfully and make your character, your actions, your behavior shine with the glow of truth. This will endow you with immense power, which will be stronger than any other force or power of the world. Confucius used to say that ‘truth contains the force of thousand elephants’.

Indeed the force of truth is immeasurable. It can’t be compared with any other force of the world. The wisest, strongest, truly dignified, is the one, who is honest to the soul, whose conduct is pure as per the guidance of the inner self, who has discarded falsehood, show-off, artificialness in all respects. He won’t have any fear, any worries.

On the contrary, those who are dishonest, manipulative or cunning, they remain trapped in some hidden fear and suspicion all the time. Power of wealth, might, power of people’s support, power of intellect, many kinds of powers are there in the world, but none stands before the power of truth. A truthful person is so powerful that even the gods of heavens bow before him.

📖  Akhand Jyoti, Nov. 1945

👉 पहले भूमि तैयार करनी पड़ेगी

युग−निर्माण की दिशा में हमें पहला कार्य एक ही करना होगा कि जन−मानस में स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज के निर्माण की आवश्यकता अनुभव करावें। लोगों को यह बतावें कि इन विभूतियों के बिना मानव जीवन निरर्थक जैसा है, ऐसे अर्धमृत जीवन में साँसों की गिनती पूरी कर लेने में क्या सार है? यदि जीना है तो इंसान की तरह क्यों न जियें, यदि मनुष्य का सुरदुर्लभ शरीर पाया है तो इसे सार्थक क्यों न करें? बीमार शरीर, मलीन मन, पतित समाज में रहना नरक के समान दुखदायी ही रहता है। सो जब उसे बदल सकना संभव है तो उस संभावना को सार्थक क्यों न किया जाय? इस प्रकार के प्रश्न जब जन−मानस के अन्तःकरण में उठने लगेंगे तो वह कुछ सोचने और कुछ करने के लिए भी तत्पर होगा। ऐसा जन−जागरण ही हमारा आज का प्रधान कार्य होना चाहिए।

प्रचार में बड़ी शक्ति है। चाय वालों ने चाय की और बीड़ी वालों ने बीड़ी की गंदी आदतें अपने प्रचार के बल पर घर−घर पहुँचा दी। सिनेमा के गंदे गाने छोटी देहातों में बच्चों की जवानों पर चढ़ गये, यह प्रचार साधनों की ही महत्ता है। हम युग−निर्माण के उपयुक्त संयम की, उदारता की, विवेक की आवश्यकता की ओर जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करना चाहें तो प्रचार के बल पर ही हो सकता है। अखण्ड ज्योति परिवार का एक बड़ा विशाल और शक्तिशाली संगठन है। हम सब मिलकर आज युग−निर्माण के लिए उपयोगी एवं आवश्यक विचारों का प्रसार करें और कल उन आयोजनों, कार्यक्रमों, आन्दोलनों एवं अभियानों की व्यवस्था करें जो आज की अव्यवस्था को उखाड़ दें और उसके स्थान पर स्वर्गीय वातावरण को पृथ्वी पर अवतरित करने के उपकरण उपस्थित कर दें। हमें यही करना है—यही करेंगे भी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया (भाग ३)

सुविधाजनक प्रगतिशील वातावरण में सुसंस्कारी परिवार में जन्म होना पूर्वकृत सत्कर्मों का फल कहा जा सकता है। दुर्भागी व्यक्ति कुसंस्कारी परिस्थितियों में जन्म लेकर असुविधाजनक अड़चन भरे वातावरण में रहते हैं और प्रगति पथ पर बढ़ने में भारी अड़चन अनुभव करते हैं। इस विभेद के पीछे पूर्व जन्मों में संग्रहीत शुभ- अशुभ कर्म के परिणाम झाँकते देख सकते हैं। यों इन अड़चन भरी परिस्थितियों में भी सत्कर्म करने की, आगे बढ़ने की स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रहती है और कोई चाहे तो नियत अवरोधों को सहन करते हुए भी आगे बढ़ने, ऊँचे उठने में सफल हो सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जिनमें अन्धे, अपंग, मूक, बधिर जैसी विषमताओं से ग्रसित लोगों ने इतनी उन्नति कर ली जिसे देखकर सर्व सुविधा सम्पन्न व्यक्तियों को भी आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा।
  
यदि इस संसार में ऐसी व्यवस्था रही होती कि तत्काल कर्मफल मिला करता तो फिर मानवी विवेक एवं चेतना की दूरदर्शिता की विशेषता कुण्ठित अवरुद्ध हो जाती। यदि झूठ बोलते ही जीभ में छाले पड़ जायें, चोरी करते ही हाथ में दर्द उठ खड़ा हो, व्यभिचार करते ही बुखार आ जाय, छल करने वाले को लकवा मार जाय तो फिर किसी के लिए भी दुष्कर्म कर सकना सम्भव न होता। एक ही निर्जीव रास्ता चलने के लिए शेष रह जाता। ऐसी दशा में स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करने की, भले और बुरे में से एक को चुनने की विचारशीलता नष्ट हो जाती और विवेचना, ऊहापोह का बुद्धि प्रयोग सम्भव न रहता। तब दूरदर्शिता और विवेकशीलता की क्या आवश्यकता रहती और इसके अभाव में मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रतिभा का कोई उपयोग ही न हो पाता। बुरे कार्य के दुष्परिणाम और भले कार्य के सत्परिणाम समझने के लिए अन्तःप्रेरणा, अध्यात्म तत्त्वदर्शन, धर्म विज्ञान, नीति सदाचरण, श्रेय साधना का जो उपयोगी एवं आकर्षक सतोगुणी धर्म कलेवर खड़ा किया गया है उसकी कुछ आवश्यकता ही न रहती। सब कुछ नीरस हो जाता यहाँ जो कौतुक कौतूहल दीख रहा है, बहुरंगी, कटु- मधुर अभिव्यंजनाएँ सामने आ रही है उनमें कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर न होता। इन परिस्थितियों में और कुछ लाभ भले ही होता, मनुष्य की वह चेतनात्मक प्रतिभा कुण्ठित ही रह जाती जिसके कारण प्रगति पथ पर इतना आगे तक चल सकना सम्भव हो सका है।
  
कर्म का फल शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से कुछ विलम्ब से भी मिल सकता है, पर आन्तरिक दृष्टि से तुरन्त तत्काल मिलता है। सद्भावनाएँ धारण करने वाला अन्तःकरण अपने आप में अत्यधिक प्रफुल्लित रहता है। सुगन्ध विक्रेता बिना प्रयास किए निरन्तर उस महक का लाभ उठाता रहता है जिसके लिए दूसरे लोग तरसते ललचाते रहते हैं। सत्कर्म का सबसे बहुमूल्य लाभ आत्म- संतोष है जिसे प्राप्त करने में तनिक भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सन्मार्ग पर चलने वाले का अन्तरात्मा अपने आप को प्रोत्साहन भरा आशीर्वाद देता रहता है। इस आधार पर बढ़ता हुआ आत्मबल मनुष्य की वास्तविक शक्ति को इतना अधिक बढ़ा देता है जिसकी तुलना उपनिषद्कार की उक्ति के अनुसार हजार हाथियों के बल से भी नहीं की जा सकती।
 
सद्भाव सम्पन्न सन्मार्गगामी का कोई स्वार्थवश कितना ही विरोध क्यों न हो, पर भीतर ही भीतर उसके लिए गहन श्रद्धा धारण किये रहेगा। महात्मा गाँधी पर आक्रमण करने वाले गोड़से ने गोली दागने से पूर्व उनके चरण स्पर्श करके प्रणाम किया था। ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ाने वाले लोग आँसुओं की धार से अपनी श्रद्धाञ्जलि चढ़ा रहे थे। सुकरात को विष पिलाने वाले जल्लाद ने आत्म प्रताड़ना से अपना माथा पीट लिया था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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