मन की सफाई जितनी आवश्यक है, अक्सर उस पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। बहिरंग उपचार को ही प्रमुख मानने वाले तथा फिर उपासक, साधक अपना ध्यान शरीर शोधन तक ही नियोजित रखते हैं। जबकि उनका मन तरह-तरह भ्रम-जंजालों में तर्क-वितर्कों में भ्रमण करता रहता है। लिप्सा, वासना से मुक्ति पाना ही वास्तविक मोक्ष है। अपने मन की शुद्धि की जा सके एवं कामनाओं को भावनाओं में परिणित किया जा सके तो साधना की दिशा में कदम बढ़ा सकना संभव है। जीवन के साधना के विभिन्न उपचार जिनमें परोपकार व लोकमंगल की अनेकानेक गतिविधियाँ आती हंै—इस दिशा में सहायक होते हैं। मनोयोग से किसी काम को करना जीवन साधना का ही अंग है। ‘वर्क इज वरशिप’ इसी को कहते हैं। सबसे पहले जीवन को सुव्यवथित एवं सुनियोजित बना लें, फिर साधना क्षेत्र में प्रवेश करें। पारिवारिकता का विस्तार, अपने दायरे का फैलाव, अनुदारता का उदारता में परिवर्तन, मानसिक स्वास्थ्य की संपन्नता का परिचायक है। पर यह सबके लिए इतना आसान नहीं है।
इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है, जो त्याग-तप की दृष्टि से आवश्यक साहस कर सके। लोगों की निन्दा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता का विचार किये बिना विवेक, बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुए दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा। मनस्वी और तेजस्वी होने का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।
इन्द्रिय निग्रह में, तितिक्षाओं के अभ्यास में, साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास, सर्दी-गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान, पुण्य, मौन आदि क्रियाकलाप इसीलिए हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए शरीर तथा मन को विवश किया जाए। मनोबल बढ़ाने के लिए ही तपश्चर्यायें विनिर्मित की गई हैं। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम हैं। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिए। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है—आकांक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़कर आत्मिक उद्देश्योंं में नियोजित करना। इसी प्रकार आत्मबल संपन्न होने का अर्थ है—आदर्शवाद के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य। हमें मनस्वी और आत्मबल संपन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिए तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिए। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उससे देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी। कहना न होगा इस लक्ष्य की आपूर्ति की साधना मानसिक परिशोधन के साथ आरंभ करनी है। मलीनताओं के आवरण से ढके मन के परिष्कार के लिए तप और तितिक्षा का मार्ग अपनाना पड़ता है। पवित्र मन को देवता मानकर अभ्यर्थना की गयी है। कुसंस्कारी मन को पतन-पराभव का कारण माना गया है। मनुष्य की प्रगति अथवा अवगति में मन की ही प्रमुख भूमिका होती है। गीताकार इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहता है—
अर्थात् मन मनुष्य के बन्धन अथवा मोक्ष का साधन है। यह बन्धन और मुक्ति और कुछ नहीं मानसिक व्यापार की प्रतिक्रियाएँ मात्र हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे अनेकानेक विकारों से ग्रस्त मन ही बन्धन है। जब वह निर्विकार, निस्पृह और आसक्ति के बन्धनों से रहित होता है तो मुक्ति का साधन बन जाता है। अपने जीवन काल में ही मानसिक स्थिति के अनुरूप बन्धन-मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है और आन्तरिक विकारों के बन्धनों से निकलने तथा मुक्ति के दिव्य आनन्द का रसास्वादन करने के लिए मानसिक परिशोधन का आध्यात्मिक पुरूषार्थ करने का साहस जुटाना चाहिए।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
इस प्रकार के कदम उठा सकना केवल उसी के लिये सम्भव है, जो त्याग-तप की दृष्टि से आवश्यक साहस कर सके। लोगों की निन्दा-स्तुति, प्रसन्नता-अप्रसन्नता का विचार किये बिना विवेक, बुद्धि के निर्णय को शिरोधार्य कर सके। यदि वस्तुतः जीवन के सदुपयोग जैसी कुछ वस्तु पानी हो तो हमें साहस करने का अभ्यास प्रशस्त करते हुए दुस्साहसी सिद्ध होने की सीमा तक आगे बढ़ चलना होगा। मनस्वी और तेजस्वी होने का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।
इन्द्रिय निग्रह में, तितिक्षाओं के अभ्यास में, साधनाओं से इसी दुस्साहस की साधना की जाती है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास, सर्दी-गर्मी सहना, पैदल यात्रा, दान, पुण्य, मौन आदि क्रियाकलाप इसीलिए हैं कि शरीर यात्रा के प्रचलित ढर्रे को तोड़कर आन्तरिक इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए शरीर तथा मन को विवश किया जाए। मनोबल बढ़ाने के लिए ही तपश्चर्यायें विनिर्मित की गई हैं। मनोबल और साहस एक ही गुण के दो नाम हैं। मन को वश में करना एकाग्रता के अर्थ में नहीं माना जाना चाहिए। एकाग्रता बहुत छोटी चीज है। मन को वश में करने का अर्थ है—आकांक्षाओं को भौतिक प्रवृत्तियों से मोड़कर आत्मिक उद्देश्योंं में नियोजित करना। इसी प्रकार आत्मबल संपन्न होने का अर्थ है—आदर्शवाद के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकने का शौर्य। हमें मनस्वी और आत्मबल संपन्न होना चाहिये। आदर्शवाद के लिए तप और त्याग कर सकने का साहस अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में जुटाना चाहिए। तभी हमारा कारण शरीर परिपुष्ट होगा और उससे देवत्व के जागरण की सम्भावना बढ़ेगी। कहना न होगा इस लक्ष्य की आपूर्ति की साधना मानसिक परिशोधन के साथ आरंभ करनी है। मलीनताओं के आवरण से ढके मन के परिष्कार के लिए तप और तितिक्षा का मार्ग अपनाना पड़ता है। पवित्र मन को देवता मानकर अभ्यर्थना की गयी है। कुसंस्कारी मन को पतन-पराभव का कारण माना गया है। मनुष्य की प्रगति अथवा अवगति में मन की ही प्रमुख भूमिका होती है। गीताकार इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहता है—
अर्थात् मन मनुष्य के बन्धन अथवा मोक्ष का साधन है। यह बन्धन और मुक्ति और कुछ नहीं मानसिक व्यापार की प्रतिक्रियाएँ मात्र हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे अनेकानेक विकारों से ग्रस्त मन ही बन्धन है। जब वह निर्विकार, निस्पृह और आसक्ति के बन्धनों से रहित होता है तो मुक्ति का साधन बन जाता है। अपने जीवन काल में ही मानसिक स्थिति के अनुरूप बन्धन-मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है और आन्तरिक विकारों के बन्धनों से निकलने तथा मुक्ति के दिव्य आनन्द का रसास्वादन करने के लिए मानसिक परिशोधन का आध्यात्मिक पुरूषार्थ करने का साहस जुटाना चाहिए।
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✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य