मंगलवार, 5 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९५)

मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
    
महर्षि पतंजलि के इस सूत्र में योग साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना है, गहरा संदेश है इसमें। और वह संदेश यह है कि ज्ञान का अधिष्ठान तो अपनी आत्मा है। अपने अस्तित्व के केन्द्र में पहुँचे बगैर सही ज्ञान, सही बोध सम्भव नहीं है। जब तक साधक की केन्द्र तक पहुँच नहीं, तब तक उसे ज्ञान के अनुमान मिलते हैं या फिर ज्ञान का आभास। और बहुत हुआ तो ज्ञान की झलकियों की स्थिति बनती है। इन्द्रियाँ जो देखती-सुनती हैं, उससे सच की सही समझ नहीं बन पड़ती। बुद्धि ठहरी अंधे की लाठी। जिस प्रकार अंधा लाठी के सहारे टटोलता है, अनुमान लगाता है, कुछ उसी तरह का। अंधे की समझ हमेशा शंकाओं से भरी होती है। बार-बार वह सच्चे-झूठे तर्कों व शब्दों के सहारे अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए कोशिश करता है। परन्तु देखे बिना, सम्यक् साक्षात्कार के बिना भला सच कैसे जाना जा सकता है।
    
इसके बाद की अवस्था है-बुद्धि के पार की, अंतर्प्रज्ञा के जागरण की। यहाँ मिलती है झलकियाँ, यहाँ खुलता है दिव्य अनुभूतियों का द्वार। यहाँ झलक दिखाता है सच। कुछ यूँ जैसे कि घिरी बदलियों के बीच सूरज अपनी झलक दिखाये और फिर छुप जाये। एक पल का पुण्य आलोक और फिर बदलियों का छत्र अँधेरा। जिसे सवितर्क समाधि कहते हैं, वहाँ ऐसी झलकियों की लुका-छिपी चलती है। बड़ी अद्भुत भावदशा है यह। अंतश्चेतना की विचित्र भावभूमि है यहाँ।
    
यहाँ ज्ञान की कई धाराओं का संगम है। इन्द्रियों का सच, बुद्धि के  सच, अंतर्प्रज्ञा का सच, लोकान्तरों के सच और आत्मा का सच। सभी यहाँ घुलते-मिलते हैं। सवितर्क समाधि में कई रंग उभरते और विलीन होते हैं। समझ में ही नहीं आता कि असली रंग कौन सा है? किसे कहें और किससे कहें कि वास्तविक यही है। जो इससे गुजरे हैं अथवा जो इसमें जी रहे हैं, उन्हीं को इस अवस्था का दर्द मालूम है। क्योंकि बड़े भारी भ्रमों का जाल यहाँ साधक को घेरता है। और अंतस् में होती है गहरी छटपटाहट। समझ में ही नहीं आता कि सच यह है कि वह। यहाँ तक कि स्वयं अपने जीवन, चरित्र एवं चेतना के बारे कई तरह की शंकाएँ घर करने लगती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 चिंतन के क्षण Chintan Ke Kshan

🔸 हमारे चिन्तन में गहराई हो, साथ ही श्रद्धायुक्त नम्रता भी। अंतरात्मा में दिव्य-प्रकाश की ज्योति जलती रहे। उसमें प्रखरता और पवित्रता बनी रहे तो पर्याप्त है। पूजा के दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते हैं। आवश्यक नहीं उनका प्रकाश बहुत दूर तक फैले। छोटे-से क्षेत्र में पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है। परमात्मा के प्रति अत्यन्त उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अंत:करण स्वत: पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है, जिसे देखकर श्रद्धावान स्वयं संतुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है, जो श्रेष्ठ पथ की सिद्धि कराती है।                       

🔹 जीवन का सम्मान ही आचार शास्त्र है। अनीति ही जीवन को नष्ट करती है। मूर्खता और लापरवाही से तो उसका अपव्यय भर होता है। बुरी तो बर्बादी भी है पर विनाश तो पूरी विपत्ति है। बर्बादी के बाद तो सुधरने के लिए कुछ बच भी जाता है पर विनाश के साथ तो आशा भी समाप्त हो जाती है। अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता। पाप अनेकों हैं उनमें प्राय: आर्थिक अनाचार और शरीरों को क्षति पहुँचाने जैसी घटनाएं ही प्रधान होती हैं। इनमें सबसे बड़ा पातक जीवन का तिरस्कार है। अनीति अपनाकर हम उसे क्षतिग्रस्त, कुंठित, हेय और अप्रमाणिक बनाते हैं। दूसरों को हानि पहुँचाना जितनी बुरी बात है – दूसरों के ऊपर पतन और पराभव थोपना जितना निंदनीय है, उससे कम पातक यह भी नहीं है कि हम जीवन का गला अपने हाथों घोटें और उसे कुत्सित, कुंठित, बाधित, अपंगों एवं तिरस्कृत स्तर का ऐसा बना दें जो मरण से भी अधिक कष्टदायक हो। 
    
🔸 श्रद्धा तप है। वह ईश्वरीय आदेशों पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा देती है। आलस से बचाती है। कर्तव्यपालन में प्रमाद से बचाती है। सेवा धर्म सिखाती है। अंतरात्मा को प्रफुल्ल, प्रसन्न रखती है। इस प्रकार के तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के हृदय मॆं पवित्रता एवं शक्ति का भंडार अपने आप भरता चला जाता है। गुरु कुछ भी न दे  तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है, जो अनन्त आकाश से अपनी सफलता में तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, अज, दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अंत:करण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उसकी परख की थी। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए, लोग पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जाएं तो विश्वशांति, चिर-संतोष और अनन्त समृद्धि की परिस्थितियाँ बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्य का उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यंभावी हो जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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