मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
महर्षि पतंजलि के इस सूत्र में योग साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना है, गहरा संदेश है इसमें। और वह संदेश यह है कि ज्ञान का अधिष्ठान तो अपनी आत्मा है। अपने अस्तित्व के केन्द्र में पहुँचे बगैर सही ज्ञान, सही बोध सम्भव नहीं है। जब तक साधक की केन्द्र तक पहुँच नहीं, तब तक उसे ज्ञान के अनुमान मिलते हैं या फिर ज्ञान का आभास। और बहुत हुआ तो ज्ञान की झलकियों की स्थिति बनती है। इन्द्रियाँ जो देखती-सुनती हैं, उससे सच की सही समझ नहीं बन पड़ती। बुद्धि ठहरी अंधे की लाठी। जिस प्रकार अंधा लाठी के सहारे टटोलता है, अनुमान लगाता है, कुछ उसी तरह का। अंधे की समझ हमेशा शंकाओं से भरी होती है। बार-बार वह सच्चे-झूठे तर्कों व शब्दों के सहारे अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए कोशिश करता है। परन्तु देखे बिना, सम्यक् साक्षात्कार के बिना भला सच कैसे जाना जा सकता है।
इसके बाद की अवस्था है-बुद्धि के पार की, अंतर्प्रज्ञा के जागरण की। यहाँ मिलती है झलकियाँ, यहाँ खुलता है दिव्य अनुभूतियों का द्वार। यहाँ झलक दिखाता है सच। कुछ यूँ जैसे कि घिरी बदलियों के बीच सूरज अपनी झलक दिखाये और फिर छुप जाये। एक पल का पुण्य आलोक और फिर बदलियों का छत्र अँधेरा। जिसे सवितर्क समाधि कहते हैं, वहाँ ऐसी झलकियों की लुका-छिपी चलती है। बड़ी अद्भुत भावदशा है यह। अंतश्चेतना की विचित्र भावभूमि है यहाँ।
यहाँ ज्ञान की कई धाराओं का संगम है। इन्द्रियों का सच, बुद्धि के सच, अंतर्प्रज्ञा का सच, लोकान्तरों के सच और आत्मा का सच। सभी यहाँ घुलते-मिलते हैं। सवितर्क समाधि में कई रंग उभरते और विलीन होते हैं। समझ में ही नहीं आता कि असली रंग कौन सा है? किसे कहें और किससे कहें कि वास्तविक यही है। जो इससे गुजरे हैं अथवा जो इसमें जी रहे हैं, उन्हीं को इस अवस्था का दर्द मालूम है। क्योंकि बड़े भारी भ्रमों का जाल यहाँ साधक को घेरता है। और अंतस् में होती है गहरी छटपटाहट। समझ में ही नहीं आता कि सच यह है कि वह। यहाँ तक कि स्वयं अपने जीवन, चरित्र एवं चेतना के बारे कई तरह की शंकाएँ घर करने लगती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या