सोमवार, 27 अगस्त 2018
👉 जिस मरने से जग डरे, सो मेरे आनन्द
🔶 प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जब फाँसी की सजा सुनाई गई, तो उनके आँखे डबडबा गईं। माँ बोली, "राम, देश की आजादी के लिए तेरे जैसे बलिदानी बेटे को जन्म देने के लिए मैं स्वयं को धन्य मानती थी। पर तेरी आँखो के आँसुओं ने मुझे निराश कर दिया। मैं तो सोच रही थी कि मेरा बेटा हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढे़गा, पर…….."।
🔷 वीर बिस्मिल ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "माँ, भले ही दूसरे लोग 'मृत्यु' शब्द सुनते ही भय से काँप उठते हो, पर मैं उनके समान कायर नहीं हूँ। तुमने मुझे उन्हीं के जैसा कैसे मान लियी? मैंने तुम जैसी वीर माता के कोख से जन्म लिया है। ऐसा पुत्र फाँसी की पूर्वसन्ध्या पर मुझे विदा करने तुम्हें आया देख और तेरी आँखों में हर्ष और उमंग की झलक पाकर मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल आए। माँ मैं वचन देता हूँ कि अगले जन्म में भी तुम्हारी ही कोख से जन्म लूँगा।" इतिहास साक्षी है कि मृत्यु से अभय यह वीर सपूत फाँसी के फन्दे पर हँसते-हँसते झूल गया।
🔷 वीर बिस्मिल ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "माँ, भले ही दूसरे लोग 'मृत्यु' शब्द सुनते ही भय से काँप उठते हो, पर मैं उनके समान कायर नहीं हूँ। तुमने मुझे उन्हीं के जैसा कैसे मान लियी? मैंने तुम जैसी वीर माता के कोख से जन्म लिया है। ऐसा पुत्र फाँसी की पूर्वसन्ध्या पर मुझे विदा करने तुम्हें आया देख और तेरी आँखों में हर्ष और उमंग की झलक पाकर मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल आए। माँ मैं वचन देता हूँ कि अगले जन्म में भी तुम्हारी ही कोख से जन्म लूँगा।" इतिहास साक्षी है कि मृत्यु से अभय यह वीर सपूत फाँसी के फन्दे पर हँसते-हँसते झूल गया।
👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 39)
👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ
🔶 प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं टपकती। उसे पुरुषार्थपूर्वक, मनोबल के सहारे अर्जित करना पड़ता है। अब तक के प्रतिभाशालियों के प्रगतिक्रम पर दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अपनाए गये काम में उल्लास भरी उमंगें उमड़ती रहीं, मानसिक एकाग्रता के साथ तन्मयता जुटाई गई, पुरुषार्थ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अवरोधों से जूझा गया तथा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलकर अपनी प्रखरता का परिचय दिया गया। सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं। सफलता मिलने पर हौसले बुलंद होते हैं। दूने उत्साह से काम करने को जी करता है। इस प्रयास में प्रतिभा विकसित होती है और परिपक्व भी बनती है, उत्कर्ष यही है। अभ्युदय का श्रेय इसी आधार पर आँका जाता है। इक्कीसवीं सदी प्रतिभावानों की क्रीड़ास्थली होगी। उन्हीं के द्वारा वह कर दिखाया जाएगा जो असंभव नहीं तो कष्टसाध्य तो कहा ही जाता रहा है।
🔷 हवा का रुख पीठ पीछे हो तो गति में अनायास ही तेजी आ जाती है। वर्षा के दिनों में बोया गया बीज सहज ही अंकुरित होता है और उस अंकुर को पौधे के रूप में लहलहाते देर नहीं लगती। वसंत में मादाएँ गर्भधारण के कीर्तिमान बनाती हैं। किशोरावस्था बीतते-बीतते जोड़ा बनाने की उमंग अनायास ही उभरने लगती है। वातावरण की अनुकूलता में, उस प्रकार के प्रयास गति पकड़ते हैं और प्राय: सफल भी होते हैं।
🔶 दिव्यदर्शी अंत: स्फुरणा के आधार पर यह अनुभव करते हैं कि समय के परिवर्तन की ठीक यही वेला है। नवयुग के अरुणोदय में अब अधिक विलंब नहीं है। जनमानस वर्तमान अवांछनीयताओं से खीझ और ऊब उठा है। उसकी आकुलता, आतुरता के साथ वह दिशा अपना रही है, जिस पर चलने से घुटन से मुक्ति मिल सके और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। साथ ही विश्व वातावरण ने भी अपना ऐसा निश्चय बनाया है कि अनौचित्य को उलटकर औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अनावश्यक विलंब न किया जाए। उथल-पुथल के ऐसे चिह्न प्रकट हो रहे हैं जो बताते हैं कि नियति की अवधारणा-सदाशयता की ज्ञानगंगा का अवतरण, आज की आवश्यकता के अनुरूप इन्हीं दिनों बन पड़ना सुनिश्चित है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 49
🔶 प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं टपकती। उसे पुरुषार्थपूर्वक, मनोबल के सहारे अर्जित करना पड़ता है। अब तक के प्रतिभाशालियों के प्रगतिक्रम पर दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि अपनाए गये काम में उल्लास भरी उमंगें उमड़ती रहीं, मानसिक एकाग्रता के साथ तन्मयता जुटाई गई, पुरुषार्थ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अवरोधों से जूझा गया तथा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलकर अपनी प्रखरता का परिचय दिया गया। सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं। सफलता मिलने पर हौसले बुलंद होते हैं। दूने उत्साह से काम करने को जी करता है। इस प्रयास में प्रतिभा विकसित होती है और परिपक्व भी बनती है, उत्कर्ष यही है। अभ्युदय का श्रेय इसी आधार पर आँका जाता है। इक्कीसवीं सदी प्रतिभावानों की क्रीड़ास्थली होगी। उन्हीं के द्वारा वह कर दिखाया जाएगा जो असंभव नहीं तो कष्टसाध्य तो कहा ही जाता रहा है।
🔷 हवा का रुख पीठ पीछे हो तो गति में अनायास ही तेजी आ जाती है। वर्षा के दिनों में बोया गया बीज सहज ही अंकुरित होता है और उस अंकुर को पौधे के रूप में लहलहाते देर नहीं लगती। वसंत में मादाएँ गर्भधारण के कीर्तिमान बनाती हैं। किशोरावस्था बीतते-बीतते जोड़ा बनाने की उमंग अनायास ही उभरने लगती है। वातावरण की अनुकूलता में, उस प्रकार के प्रयास गति पकड़ते हैं और प्राय: सफल भी होते हैं।
🔶 दिव्यदर्शी अंत: स्फुरणा के आधार पर यह अनुभव करते हैं कि समय के परिवर्तन की ठीक यही वेला है। नवयुग के अरुणोदय में अब अधिक विलंब नहीं है। जनमानस वर्तमान अवांछनीयताओं से खीझ और ऊब उठा है। उसकी आकुलता, आतुरता के साथ वह दिशा अपना रही है, जिस पर चलने से घुटन से मुक्ति मिल सके और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। साथ ही विश्व वातावरण ने भी अपना ऐसा निश्चय बनाया है कि अनौचित्य को उलटकर औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अनावश्यक विलंब न किया जाए। उथल-पुथल के ऐसे चिह्न प्रकट हो रहे हैं जो बताते हैं कि नियति की अवधारणा-सदाशयता की ज्ञानगंगा का अवतरण, आज की आवश्यकता के अनुरूप इन्हीं दिनों बन पड़ना सुनिश्चित है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 49
👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 6)
🔶 The second step in the sadhana is to assimilate in practice what has been learnt. Observation and analysis of the lower self cluttered with impurities is of no avail unless it is coupled with simultaneous attempts at cleansing out and refinement. Japa-sadhana helps in developing the inner strength and determination towards self-cleansing and self-refinement. The advanced spiritual masters affirm that the japa of Gayatri Mantra brings about rapid removal of ingrained vices and evil tendencies. Progress in this direction further accelerates inner purification, as it deepens the sadhaka's meditation and thus reinforces the linkage of the sadhaka's higher inner self with the indwelling divinity which the mantra invokes. During this process one experiences ups and downs in the mental and emotional domains.
🔷 The baser instincts and tendencies accumulated during innumerable births of the fallen soul in different forms before the present life are not easy to be uprooted and thrown out. These kusamskaras, coupled with the ignorance-driven ego, struggle hard to obstruct the process of inner purification in the initial phases.
🔶 However, with the continuity of the japa- sadhana the devotee realizes that he is not the body but the eternal soul and therefore gains the light and courage to fight and eliminate all the hurdles in the path of self-realization. He consciously and gladly undergoes the prescribed austerities to loosen the hold of internal evils and passions. He understands that only the path of selfless service leads to true happiness, and that spiritual life is far more superior to life wasted in the pursuit of materialistic success and power.
📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003
🔷 The baser instincts and tendencies accumulated during innumerable births of the fallen soul in different forms before the present life are not easy to be uprooted and thrown out. These kusamskaras, coupled with the ignorance-driven ego, struggle hard to obstruct the process of inner purification in the initial phases.
🔶 However, with the continuity of the japa- sadhana the devotee realizes that he is not the body but the eternal soul and therefore gains the light and courage to fight and eliminate all the hurdles in the path of self-realization. He consciously and gladly undergoes the prescribed austerities to loosen the hold of internal evils and passions. He understands that only the path of selfless service leads to true happiness, and that spiritual life is far more superior to life wasted in the pursuit of materialistic success and power.
📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003
👉 First Give, Then Gain
🔶 Great personalities always appeal and motivate people in their contact to give something for noble causes. They themselves sacrifice everything they had. This is what makes them great. Thorough pondering over this fact has taught me that there is no religious duty greater than giving or sacrificing (for others’ welfare), which we can do any time (provided we have the will and attitude). There is no better mode than renunciation (of selfish possessions and attachments) for elimination of evil tendencies and untoward accumulation in the mind.
🔷 If you want to acquire precious knowledge, attain people’s respect, achieve something great, then first learn to give what best you can for the society, for altruistic service. Donate your talents, intellect, time, labor, wealth, whatever potentials or resources you have for the betterment of the world…; you will get manifold of that in return… Gautam Buddha had renounced the royal throne; Gandhi had left the brilliant career, wealth, comforts… As the world has witnessed, what they were rewarded in return was indeed immeasurable, immortal…
🔶 It is worth recalling the beautiful verse of renowned poet Rabindranath Tagore here, which says – He spread his hands open and asked for something… I took out a tiny piece of grain from my bag and kept on His palm. At the end of the day, I found a golden piece of same size in my bag. I cried – why didn’t I empty my bag for Him, which would have transformed me, the poor man into a King of Wealth?
📖 Akhand Jyoti, March. 1940
🔷 If you want to acquire precious knowledge, attain people’s respect, achieve something great, then first learn to give what best you can for the society, for altruistic service. Donate your talents, intellect, time, labor, wealth, whatever potentials or resources you have for the betterment of the world…; you will get manifold of that in return… Gautam Buddha had renounced the royal throne; Gandhi had left the brilliant career, wealth, comforts… As the world has witnessed, what they were rewarded in return was indeed immeasurable, immortal…
🔶 It is worth recalling the beautiful verse of renowned poet Rabindranath Tagore here, which says – He spread his hands open and asked for something… I took out a tiny piece of grain from my bag and kept on His palm. At the end of the day, I found a golden piece of same size in my bag. I cried – why didn’t I empty my bag for Him, which would have transformed me, the poor man into a King of Wealth?
📖 Akhand Jyoti, March. 1940
👉 पहले दो, पीछे पाओ
🔶 यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरंत फलदायी और कोई धर्म नहीं है। त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन में जमे हुए कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हलका करने के लिए त्याग से बढ़कर अन्य साधन हो नहीं सकता।
🔷 आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। ये चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामक लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो, मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया।
🔶 विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, ``उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1940/March/v1.9
🔷 आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। ये चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामक लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो, मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया।
🔶 विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, ``उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1940/March/v1.9
👉 शांति और सौन्दर्य अपने ही अन्दर निहित
🔶 उनसे प्यार करो, जिन्हें लोग पतित, गर्हित और हेय समझते हैं। जिन्हें केवल निन्दा और भर्त्सना ही मिलती है। जो अपने ऊपर लदे हुए पिछड़ेपन के कारण न किसी के मित्र बन पाते हैं और न जिन्हें कोई प्यार करता है। प्यार करने योग्य वही लोग हैं, जिन्हें स्नेह- सद्भाव देकर तुम अपने को गौरवान्वित करोगे। मांगो मत, चाहो मत, देकर ही अपने को गौरवान्वित अनुभव करो।
🔷 उन्हें देखने के लिए मत दौड़ो, जिनकी त्वचा चमकीली और गठन में सुन्दरता भरी है। ऐसा तो तितलियाँ और भौंरे भी कर सकते हैं। तुम उन्हें निहारो जो दरिद्रता और रुग्णता की चक्की में पिसकर कुरूप लगने लगे हैं। अभावों के कारण जिनकी अस्थियाँ उभर रही हैं और आँखों की चमक छिन गयी है। निराश दिलों में आशा का संचार करके तुम अपने को धन्य अनुभव करोगे।
🔶 कोलाहल और क्रंदन के साथ जुड़ी हुई विपन्नताओं को देखकर न डरो और न भागो। वरन् वह करो, जिससे अशान्ति को निरस्त और शान्ति को प्रशस्त कर सको। शांति पाने के लिए न एकान्त ढूँढ़ो और न उद्यानों में भटको। वह तो तुम्हारे अन्दर है और तब प्रकट होती है जब तुम कोई ऐसा काम करते हो, जिससे अनीतियों और भ्रांतियों का निराकरण हो सके। सत्प्रयत्नों के साथ ही शांति जुड़ी हुई है।
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
🔷 उन्हें देखने के लिए मत दौड़ो, जिनकी त्वचा चमकीली और गठन में सुन्दरता भरी है। ऐसा तो तितलियाँ और भौंरे भी कर सकते हैं। तुम उन्हें निहारो जो दरिद्रता और रुग्णता की चक्की में पिसकर कुरूप लगने लगे हैं। अभावों के कारण जिनकी अस्थियाँ उभर रही हैं और आँखों की चमक छिन गयी है। निराश दिलों में आशा का संचार करके तुम अपने को धन्य अनुभव करोगे।
🔶 कोलाहल और क्रंदन के साथ जुड़ी हुई विपन्नताओं को देखकर न डरो और न भागो। वरन् वह करो, जिससे अशान्ति को निरस्त और शान्ति को प्रशस्त कर सको। शांति पाने के लिए न एकान्त ढूँढ़ो और न उद्यानों में भटको। वह तो तुम्हारे अन्दर है और तब प्रकट होती है जब तुम कोई ऐसा काम करते हो, जिससे अनीतियों और भ्रांतियों का निराकरण हो सके। सत्प्रयत्नों के साथ ही शांति जुड़ी हुई है।
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
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