ज्ञान यज्ञ के दो पहले हैं- विचार पक्ष और क्रिया पक्ष। दोनों का महत्त्व एक दूसरे से बढ़कर है। विचार हीन क्रिया और क्रियाहीन विचार दोनों को विडम्बना मात्र कहा जाएगा। नवनिर्माण की पुण्य प्रक्रिया विवेक के जागरण और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर निर्भर है। नये युग का महल इन्हीं दोनों को ईंट-चूना मानकर चुना जाएगा। इसलिए दोनों पक्षोंं को प्रखरता से भर देने वाले अपने दो कार्यक्रम हैं और चुनौती देते हैं कि जिन पर हमारे लेखों और प्रवचनों का सान्निध्य और संपर्क का प्रभाव पड़ा हो वे आगे आएँ और जो कहा जा रहा है उसे अपनाएँ।
ईश्वर की महान् कृतियों को देखकर ही उसकी गरिमा का अनुमान लगाया जाता है। हमारा कर्त्तव्य पोला था या ठोस यह अनुमान उन लोगों की परख करके लगाया जाएगा, जो हमारे श्रद्धालु एवं अनुयायी कहे जाते हैं। यदि वे वाचालता भर के प्रशंसक और दण्डवत् प्रणाम भर के श्रद्धालु रहे तो माना जाएगा कि सब कुछ पोला रहा। असलियत कर्म में सन्निहित है। वास्तविकता की परख क्रिया से होती है। यदि अपने परिवार की क्रिया पद्धति का स्तर दूसरे अन्य नर-पशुओं जैसा ही बना रहा तो हमें स्वयं अपने श्रम और विश्वास की निरर्थकता पर कष्ट होगा और लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना पड़ेगा।
हम युग निर्माण योजना की प्रचार और प्रसार की नगण्य जैसी प्रक्रियाएँ पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगों पर पड़ेगा। कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नव निर्माणों के इस महाभारत में भागीदार बने बिना बच नहीं सकता। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत मँहगी पड़ेगी। चिरकाल के बाद युग परिवर्तन की पुनरावृत्ति हो रही है। परिजन एकान्त में बैठकर अपनी वस्तुस्थिति पर विचार करें। वे अन्न-कीट और भोग-कीटों की पंक्ति में बैठने के लिए नहीं जन्मे हैं। उनके पास जो आध्यात्मिक सम्पदा है, वह निष्प्रयोजन नहीं है। अब उसे अभीष्ट विनियोग में प्रयुक्त किये जाने का समय आ गया है, सो उसके लिए अग्रसर होना ही चाहिए।
ईश्वर की महान् कृतियों को देखकर ही उसकी गरिमा का अनुमान लगाया जाता है। हमारा कर्त्तव्य पोला था या ठोस यह अनुमान उन लोगों की परख करके लगाया जाएगा, जो हमारे श्रद्धालु एवं अनुयायी कहे जाते हैं। यदि वे वाचालता भर के प्रशंसक और दण्डवत् प्रणाम भर के श्रद्धालु रहे तो माना जाएगा कि सब कुछ पोला रहा। असलियत कर्म में सन्निहित है। वास्तविकता की परख क्रिया से होती है। यदि अपने परिवार की क्रिया पद्धति का स्तर दूसरे अन्य नर-पशुओं जैसा ही बना रहा तो हमें स्वयं अपने श्रम और विश्वास की निरर्थकता पर कष्ट होगा और लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना पड़ेगा।
हम युग निर्माण योजना की प्रचार और प्रसार की नगण्य जैसी प्रक्रियाएँ पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगों पर पड़ेगा। कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नव निर्माणों के इस महाभारत में भागीदार बने बिना बच नहीं सकता। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत मँहगी पड़ेगी। चिरकाल के बाद युग परिवर्तन की पुनरावृत्ति हो रही है। परिजन एकान्त में बैठकर अपनी वस्तुस्थिति पर विचार करें। वे अन्न-कीट और भोग-कीटों की पंक्ति में बैठने के लिए नहीं जन्मे हैं। उनके पास जो आध्यात्मिक सम्पदा है, वह निष्प्रयोजन नहीं है। अब उसे अभीष्ट विनियोग में प्रयुक्त किये जाने का समय आ गया है, सो उसके लिए अग्रसर होना ही चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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