मंगलवार, 21 जुलाई 2020

👉 क्रोध पर नियंत्रण:-

एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता। प्यास से उसका गला सुखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।

काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिराके वापस सामने बैठ गया।

अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो  इसे खत्म कर दूंगा।

इसप्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है। काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहा से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

क्योकि उस डाली पर एक भयंकर अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

राजा के मन में पश्चॉत्ताप  का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु! मैने यह  क्या कर दिया। जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया।

काश मैने सन्तों  के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता, अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती। हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है।

इसीलिये कहते हैं कि..

क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा वीर होता है।
क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ साथ अपने खुद का ही बहुत नुकसान कर देता है।
क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पाश्चाताप से होता है। इसलिए हमेशा क्रोध पर नियंत्रण  रखना चाहिए।

👉 नवयुग का आगमन अतिनिकट है।

जो संकट इन दिनों सामने खड़े दृष्टिगोचर हो रहे हैं, विज्ञजनों ने जिन सम्भावनाओं का अनुमान लगाया है, वे काल्पनिक नहीं हैं। विभीषिकाएँ वास्तविक हैं, इतने पर भी विश्वासियों को यह विश्वास करना चाहिए कि समय चक्र को बदला जायेगा और जो संकट सामने खड़े दीखते हैं, उन्हें उलटा जायेगा।

सामान्य स्तर के लोगों की इच्छा शक्ति भी काम करती है। जनमत का भी दबाव पड़ता है। जिन लोगों के हाथ में इन दिनों विश्व की परिस्थितियाँ बिगाड़ने की क्षमता है, उन्हें जागृत लोकमत के सामने झुकना ही पड़ेगा। लोकमत को जागृत करने का अभियान “प्रज्ञा आन्दोलन” द्वारा चल रहा है। यह क्रमशः बढ़ता और सशक्त होता जायेगा। इसका दबाव हर प्रभावशाली क्षेत्र के समर्थ व्यक्तियों पर पड़ेगा और उनका मन बदलेगा कि अपने कौशल, चातुर्य को विनाश की योजनाएं बनाने की अपेक्षा विकास के निमित्त लगाना चाहिए। प्रतिभा एक महान शक्ति है। वह जिधर भी अग्रसर होती है, उधर ही चमत्कार प्रस्तुत करती जाती है।

वर्तमान समस्याएँ एक दूसरे से गुँथी हुई हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा युद्ध सामग्री का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी आपदाएं। एक को सुलझा लिया जाय और बाकी सब उलझी पड़ी रहें, ऐसा नहीं हो सकता। समाधान एक मुश्त खोजने पड़ेंगे और यदि इच्छा सच्ची है तो उनके हल निकल कर ही रहेंगे।

शक्तियों में दो ही प्रमुख हैं। इन्हीं के माध्यम से कुछ बनता या बिगड़ता है। एक शस्त्र बल-धन-बल। दूसरा बुद्धि बल संगठन बल। पिछले बहुत समय से शस्त्र बल और धन बल के आधार पर मनुष्य को गिराया और अनुचित रीति से दबाया और जो मन आया, सो कराया जाता रहा है। यही दानवी शक्ति है। अगले दिनों दैवी शक्ति को आगे आना है और बुद्धिबल तथा संगठन बल का प्रभाव अनुभव कराना है। सही दिशा में चलने पर यह दैवी सामर्थ्य क्या कुछ कर दिखा सकती हैं, इसकी अनुभूति सबको करानी है।

न्याय की प्रतिष्ठा हो, नीति को सब ओर से मान्यता मिले, सब लोग हिलमिल कर रहें और मिल बांटकर खायें, इस सिद्धांत को जन भावना द्वारा सच्चे मन से स्वीकारा जायेगा, तो दिशा मिलेगी, उपाय सूझेंगे, नयी योजनाएं बनेंगी, प्रयास चलेंगे और अंततः लक्ष्य तक पहुंचने का उपाय बन ही जायेगा।

‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’’ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ यह दो ही सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें अपना लिये जाने के उपरांत तत्काल यह सूझ पड़ेगा कि इन दिनों किस अवांछनीयताओं को अपनाया गया है और उन्हें छोड़ने के लिए क्या साहस अपनाना पड़ेगा, किस स्तर का संघर्ष करना पड़ेगा। मनुष्य की सामर्थ्य अपार है। वह जिसे करने की यदि ठान ले और उसे औचित्य के आधार पर अपना ले तो कोई कठिन कार्य ऐसा नहीं है, जिसे पूरा न किया जा सके। नव निर्माण का प्रश्न भी ऐसा ही है। मनुष्य कुछ बनाने पर उतारू हो तो वह क्या नहीं बना सकता? मिश्र के पिरामिड, चीन के दीवार, ताजमहल, स्वेज तथा पनामा की नहर, पीसा की मीनार उसी के प्रयासों से ही तो बन पड़े हैं। जलयान, थलयान, नभयान के रूप में उसी की सूझ-बूझ दौड़ती है। नवयुग निर्माण के लिए प्रतिभाशाली लोगों को लोकमत के दबाव से विवश यदि किया जाय तो कोई कारण नहीं कि “मनुष्य में देवत्व” के उदय और “धरती पर स्वर्ग” के अवतरण की प्रक्रिया कुछ ही समय में सरलतापूर्वक सम्पन्न न की जा सके।

अगले दिनों एक विश्व, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति का प्रावधान बनने जा रहा है। जाति, लिंग, वर्ण और धन के आधार पर बरती जाने वाली विषमता का अन्त समय अब निकट आ गया। इसके लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वह सूझेगा भी और विचारशील लोगों के द्वारा पराक्रम पूर्वक किया भी जायेगा। यह समय निकट है। इसकी हम सब उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1985

👉 Win Yourself

A life driven by cravings or aimed at sensual joys alone is useless; it is a blot on the glory of human life, a burden on the earth. Despite being endowed with superior powers, immense potentials, such a person lives a life not different from beasts. He has chosen disgraceful decline… It is pathetic to see a fellow human remaining dormant and letting his life be ruined without any effort, and suffering the consequent miseries. He also makes others related to him face adversities, insult and pains in different forms.

Sensual passions and luxuries without hard work are worse then ‘death’ whereas self-restrain, awareness and disciplined alacrity are real signs of life. A true winner is the one who transforms the ‘wrought iron’ of ambitions and cravings into the ‘gold’ of enlightened potentials. Such a fellow finds joy in every element of Nature.

The dignity of human life lies in uprooting the beastly tendencies, winning over the passions and rising for higher goals. You should be the master and not a slave of your body and mind. A wise man rules over his sense organs and makes constructive use of them as per the directions of wisdom. It is only such farsighted people who awaken the divine potentials indwelling in the human body and mind. The secret of unalloyed bliss, luminous success lies in chiseled refinement and evolution of the inherited physical and mental abilities.

📖  Akhand Jyoti, Dec. 1945

👉 सफलताओं का मूल आधार

बुद्धिमानों का यह कथन सर्वांश में सत्य है कि धर्म−अर्थ, काम मोक्ष का मूल आधार शरीर है। दुर्बल और रुग्ण शरीर वाला अपनी जीवन यात्रा का भार भी स्वयं वहन नहीं कर पाता, उसे पग−पग पर दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। दूसरे लोग सहायता न करें तो अपना ही काम न चले ऐसे लोग धर्म कार्य कर सकने के लिए श्रम कैसे कर पावेंगे? धन कमाने के योग्य पुरुषार्थ भी उनसे कैसे बन पड़ेगा? कामोपभोग के लिए इन्द्रियों में सक्षमता कैसे स्थिर रहेगा? और फिर मोक्ष के योग्य श्रद्धा, विश्वास, धैर्य, श्रम और संकल्प का बल भी उनमें कहाँ से रहेगा? इसलिए बीमार और कमजोर आदमी इस संसार में कुछ भी प्राप्त कर सकने की स्थिति में नहीं रहता। रोग को पाप का फल माना गया है। वस्तुतः वह प्रत्यक्ष नरक ही है। नरक में पापी लोग जाते हैं।

स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करना भी सदाचार के, धर्म के अन्य नियमों को तोड़ने के समान ही अनुचित है। जब झूठ, हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि दुष्कर्मों द्वारा सामाजिक एवं नैतिक नियमों का उल्लंघन करने वाले ईश्वरीय और राजकीय दंड भोगते हैं तो स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करने वाले क्यों पापी न माने जायेंगे? क्यों उन्हें प्रकृति दंड न देगी? शरीर में भीतर व्यथा और बाह्य जीवन में असफलता, यह दुहरा दंड उन लोगों के लिए सुनिश्चित है जो पेट पर अत्याचार करके उसे शक्तिहीन बना देते हैं। चटोरेपन की बुरी आदतें ही स्वास्थ्य की बर्बादी का एकमात्र कारण है, इसलिए इन आदतों को भले ही राजकीय दंड विधान में अपराध न माना गया हो पर प्रकृति की दंडसंहिता में अपराध ही गिना गया है और उसके लिए वह दंड सुनिश्चित है जिसे आज सब ही भुगत रहे हैं। भीतर व्यथा और बाहर असफलता के दंड हम में से अधिकाँश को आज सहन करने पड़ रहे हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया (अन्तिम भाग)

महामानवों के पास भौतिक सम्पदायें भले ही न रही हो पर उनकी चरित्र निष्ठा, आदर्शवादिता और उदारता की पूँजी इतनी प्रचुर मात्रा में उन्हें विभूतिवान बनाये रही है और वह वैभव इतना बढ़ा रहा है, जिसके ऊपर धन कुबेरों की सम्पन्नता को न्यौछावर किया जा सके। ऋषियों के चरणों में राजमुकुट रखे देखकर यह समझा जा सकता है कि सन्मार्गगामी सर्वथा निर्धन नहीं होते, उनके पास अपने ढंग की ऐसी सम्पदा होती है जिसे पाकर मानव जीवन को सब प्रकार सार्थक एवं धन्य हुआ माना जा सके।
  
भौतिक विज्ञानियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है कि शारीरिक स्वास्थ्य का आधार मात्र पौष्टिक आहार एवं व्यायाम नहीं है वरन् मनःक्षेत्र की समस्वरता पर आरोग्य एवं दीर्घ जीवन की नींव रखी हुई है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय रोगों के विशेषज्ञ यह कहते हैं कि अधिक मानसिक श्रम करने आदि के कारण वे रोग उत्पन्न नहीं होते वरन् छल, प्रपंच, क्रूर दुराचरण जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ही मनःसंस्थान में अन्तर्द्वन्द्व मचाती हैं और उन्हीं के फलस्वरूप अनिद्रा एवं सनक से लेकर उन्माद जैसे रोग अपने विभिन्न आकार- प्रकार में उठ खड़े होते है। कोई समय था जब वात, पित्त, कफ़, आहार- विहार, कृमि कीटाणु, छूत संक्रमण, ऋतु प्रभाव, गृहदशा, भाग्य प्रारब्ध आदि को विभिन्न रोगों का कारण माना जाता था। वे बातें पुरानी हो गई। मनःशास्त्र के विज्ञानी अब उस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अनैतिक, असामाजिक और अवांछनीय चिन्तन से, इस प्रकार की घुटन से भरा आन्तरिक विग्रह उत्पन्न होता है जो ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से अपने विद्रोह की कोशिकाओं तक पहुँच कर उन्हें रुग्ण कर देता है। इस मानसिक विद्रोह को शान्त करने के लिए अपनी रीति- नीति को सन्मार्गगामी बना लेना ही रोग निवृत्ति का एक मात्र उपाय है। इस आधार पर मनोविज्ञानवेत्ता रोगियों से उनकी भूलें कबूल कराते हैं पश्चाताप और परिवर्तन के संकल्प कराते हैं तदनुसार रोग निवृत्ति का लाभ भी मिलता है।
  
भारतीय धर्म शास्त्र आधि और व्याधि का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध मानता रहा है। आधि अर्थात् मनःक्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ जिस व्यक्ति में भरी होंगी वह शरीर और मस्तिष्क के रोगों से ग्रसित होता चला जायेगा और वे रोग मात्र औषधि चिकित्सा से कदापि अच्छे न हो सकेंगे। कष्टसाध्य रोगों की एक श्रेणी कर्मजन्य भी होती है। उन्हें अन्तःक्षेत्र में जमी हुई दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। इन्हें पश्चाताप और प्रायश्चित द्वारा उखाड़ने का विधान है। असाध्य महारोगों के लिए यह प्रायश्चित्त चिकित्सा प्राचीन अध्यात्म विज्ञान और भौतिक मनोविज्ञान के आधार पर समान रूप से उपयुक्त मानी गई है। मन की निर्मलता से बढ़कर शारीरिक रोगों की निवृत्ति का और कोई कारगर उपाय नहीं है।
  
निश्चित रूप से मनुष्य एक स्वसंचालित यन्त्र है जो कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए परिणाम भोगने की शृंखला में मजबूती के साथ जकड़ा हुआ है। यदि हम सद्भावनाओं का, सत्प्रवृत्तियों का चिन्तन और कर्तृत्व अपनायें तो सहज ही सुख- शान्ति की परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसके प्रतिकूल चलना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह है। सुख और दुःख ईश्वर प्रदत्त दण्ड पुरस्कार नहीं वरन् अपने ही सत्कर्म- दुष्कर्म के प्रतिफल हैं।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

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