बुधवार, 6 नवंबर 2019

👉 प्रतिस्पर्धा :-

राजा ने मंत्री से कहा- मेरा मन प्रजाजनों में से जो वरिष्ठ हैं उन्हें कुछ बड़ा उपहार देने का हैं। बताओ ऐसे अधिकारी व्यक्ति कहाँ से और किस प्रकार ढूंढ़ें जाय?

मंत्री ने कहा - सत्पात्रों की तो कोई कमी नहीं, पर उनमें एक ही कमी है कि परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा वे एक दूसरे की टाँग पकड़कर खींचते हैं। न खुद कुछ पाते हैं और न दूसरों को कुछ हाथ लगने देते हैं। ऐसी दशा में आपकी उदारता को फलित होने का अवसर ही न मिलेगा।

राजा के गले वह उत्तर उतरा नहीं। बोले! तुम्हारी मान्यता सच है यह कैसे माना जाय? यदि कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हो तो करो।

मंत्री ने बात स्वीकार करली और प्रत्यक्ष कर दिखाने की एक योजना बना ली। उसे कार्यान्वित करने की स्वीकृति भी मिल गई।

एक छः फुट गहरा गड्ढा बनाया गया। उसमें बीस व्यक्तियों के खड़े होने की जगह थी। घोषणा की गई कि जो इस गड्ढे से ऊपर चढ़ आवेगा उसे आधा राज्य पुरस्कार में मिलेगा।

बीसों प्रथम चढ़ने का प्रयत्न करने लगे। जो थोड़ा सफल होता दीखता उसकी टाँगें पकड़कर शेष उन्नीस नीचे घसीट लेते। वह औंधे मुँह गिर पड़ता। इसी प्रकार सबेरे आरम्भ की गई प्रतियोगिता शाम को समाप्त हो गयी। बीसों को असफल ही किया गया और रात्रि होते-होते उन्हें सीढ़ी लगाकर ऊपर खींच लिया गया। पुरस्कार किसी को भी नहीं मिला।

मंत्री ने अपने मत को प्रकट करते हुए कहा - यदि यह एकता कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे। पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सकें। एक दूसरे की टाँग खींचते रहे और सभी खाली हाथ रहे।

संसार में प्रतिभावानों के बीच भी ऐसी ही प्रतिस्पर्धा चलती हैं और वे खींचतान में ही सारी शक्ति गँवा देते है। अस्तु उन्हें निराश हाथ मलते ही रहना पड़ता है।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 6 Nov 2019


👉 मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें (भाग २)

यह मान्यता अनगढ़ों की है कि वैभव के आधार पर ही समुन्नत बना जा सकता है, इसलिए उसे हर काम छोड़कर हर कीमत पर अर्जित करने में अहर्निश संलग्न रहना चाहिए। सम्पन्नता से मात्र सुविधाएँ खरीदी जा सकती है और वे मात्र मनुष्य के विलास, अहंकार का ही राई रत्ती समाधान कर पाती है। राई रत्ती का तात्पर्य है, क्षणिक तुष्टि। उतना जितना कि आग पर ईंधन डालते समय प्रतीत होता है कि वह बुझ चली। किन्तु वह स्थिति कुछ ही समय में बदल जाती है और पहले से भी अधिक ऊँची ज्वालाएँ लहराने लगती हैं। दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने में वैभव काम आ सकता है। दर्प दिखाने, विक्षोभ उभारने के अतिरिक्त उससे और कोई बड़ा प्रयोजन सधता नहीं है। अनावश्यक संचय के ईर्ष्या द्वेष से लेकर दुर्व्यसनों तक के अनेकानेक ऐसे विग्रह खड़े होते है, जिन्हें देखते हुए कई बार तो निर्धनों की तुलना में सम्पन्नों को अपनी हीनता अनुभव करते देखा गया है।

उत्कृष्टता के आलोक की आभा यदि अन्तराल तक पहुँचे तो व्यक्ति को नए सिरे से सोचना पड़ता है और अपनी दिशाधारा का निर्धारण स्वतन्त्र चिन्तन एवं एकाकी विवेक के आधार पर करना पड़ता है। प्रस्तुत जन समुदाय द्वारा अपनायी गयी मान्यताओं और गतिविधियों से इस प्रयोजन के लिए तनिक भी सहायता नहीं मिलती। वासना, तृष्णा के लिए मरने खपने वाले नर पामरों की तुलना में अपना स्तर ऊँचा होने की अनुभूति होते ही परमार्थ के लिए मात्र दो ही मनीषियों का आश्रय लेना पड़ता है, इनमें से एक को आत्मा दूसरे को परमात्मा कहते हैं। इन्हीं को ईमान और भावना भी कहा जा सकता है। उच्चस्तरीय निर्धारणों में इन्हीं का परामर्श प्राप्त होता है। व्यामोह ग्रस्त तो ‘कोढ़ी और संघाती चाहे’ वाली बात ही कर सकते हैं। नरक में रहने वालों को भी साथी चाहिए। अस्तु वे संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में उन्हीं की तरह बुलबुलाते रहने में ही सरलता, स्वाभाविकता देखते हैं। तदनुसार परामर्श भी वैसा ही देते हैं, आग्रह भी वैसा ही करते हैं।

इस रस्साकशी में विवेक का कर्तव्य है कि औचित्य का समर्थन करें। अनुचित के लिए मचलने वालों की बालबुद्धि को हँसकर टाल दें। गुड़ दे सकना सम्भव न हो तो, गुड़ जैसी बात कहकर भी सामयिक संकट को टाला जा सकता है। लेकिन बहुधा ऐसा होता नहीं। निकृष्टता का अभाव सहज ही मानव को अपनी ओर खींचता है। इसका निर्धारण स्वयं औचित्य, विवेक के आधार पर करना होता है। निषेधात्मक परामर्शों को इस कान सुनकर दूसरे कान से निकाल देना अथवा ऐसा परामर्श देने वाले व्यक्ति के चिन्तन का परिष्कार करना भी एक ऐसा प्रबल पुरुषार्थ है, जो बिरलों से ही बन पड़ता है। लेकिन यह संभव है क्योंकि मानवी गरिमा उसे सदा ऊँचा उठने, ऊँचा ही सोचने का संकेत करती है। कौन, कितना इस पुकार को सुन पाता है, यह उस पर, उसकी मन की संरचना, अन्तश्चेतना पर निर्भर है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (अंतिम भाग)

👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ

५. उदार बनने से चूके नहीं- आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उदारता से कभी नहीं चूकता। कृपणता व विलासिता दोनों ही आध्यात्मिक रोगी होने के चिह्न हैं। उदारता तो स्वयं के अस्तित्व का विस्तार है। अपने परम प्रिय प्रभु से साझेदारी है। उनके इस विश्व उद्यान को सजाने- संवारने का भावभरा साहस है। जो भक्त हैं, वे उदार हुए बिना रह नहीं सकते। इसी तरह जो शिष्ट हैं, वे अपना समय- श्रम सद्गुरू को सौंपे बिना नहीं रह सकते। हमारे भण्डार भरे रहे और गुरुदेव की योजनाएँ श्रम और अर्थ के अभाव में अधूरी ही रहे, यह भला किन्हीं सुयोग्य शिष्यों के रहते किस तरह सम्भव है। यह न केवल सेवा की दृष्टि से बल्कि स्वयं की आध्यात्मिक चिकित्सा के लिए भी उपयोगी है। उदार भावनाएँ, उदार कर्म स्वयं ही हमारी मनोग्रन्थियों को खोल देते हैं। मनोग्रन्थियों से छुटकारे के लिए भावभरी उदारता एक समर्थ चिकित्सा विधि का काम करती है।

आध्यात्मिक चिकित्सा के इन पंचशीलों को अपनी जीवन साधना में आज और अभी से समाविष्ट कर लेना चाहिए। यदि इन्हें अपने जीवन में सतत उतारने के लिए सतत कोशिश की जाती रहे तो आध्यात्मिक दृष्टि से असामान्य व असाधारण बना जा सकता है। हम सबके आराध्य परम पूज्य गुरुदेव सदा ही इसी पथ पर चलते हुए आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञ बने थे। उनके द्वारा निर्देशित यही पथ अब हमारे लिए है। ऐसा करके हम अपने आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सदा के लिए प्राप्त कर सकते हैं। और भविष्य में एक समर्थ आध्यात्मिक चिकित्सक की भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। विश्वास है अपने भावनाशील परिजन इससे चूकेंगे नहीं। वे स्वयं तो इस पथ पर आगे बढ़ेंगे ही, दूसरों में भी आन्तरिक उत्साह जगाने में सहयोगी- सहायक बनेंगे। ऐसा होने पर अपने भारत देश की आध्यात्मिक चिकित्सा की परम्परा को नवजीवन मिल सकता है।

.... समाप्त
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२४

👉 आत्मचिंतन के क्षण 6 Nov 2019

★ "मेरे मन! दुर्गानाम जपो। जो दुर्गानाम जपता हुआ रास्ते में  चला जाता है, शूलपाणि शूल लेकर उसकी रक्षा करते है। तुम दिवा हो, तुम सन्ध्या हो, तुम्ही रात्रि हो; कभी तो तुम पुरुष का रूप धारण करती हो, कभी कामिनी बन जाती हो। तुम तो कहती हो कि मुझे छोड़ दो, परन्तु  मैं कदापि न छोडूँगा, - मैं तुम्हारे चरणों में नूपुर होकर बजता रहूँगा, - जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहता हुआ! माँ, जब शंकरी होकर तुम आकाश में उड़ती रहोगी तब मैं मीन बनकर पानी में रहूँगा तुम अपने नखों पर मुझे उठा लेना। हे ब्रह्ममयीं, नखों के आघात से यदि मेरे प्राण निकल जायें, तो कृपा करके अपने अरुण चरणों का स्पर्श मुझे कर देना।"

◆ भोग की शान्ति हुए बिना वैराग्य नहीं होता। छोटे बच्चे  को खाना और खिलौना देकर अच्छी तरह से भुलाया जा सकता है, परन्तु जब खाना हो गया और खिलौने के साथ खेल भी समाप्त हो गया तब वह कहता है, 'माँ के पास जाऊँगा।' माँ के पास न ले जाने पर खिलौना पटक देता है और चिल्लाकर रोता है। "मनुष्य उनकी माया में पड़कर अपने स्वरूप को भूल जाता है। इस बात को भूल जाता है कि वह अपने पिता के अनन्त ऐश्वर्य का अधिकारी है। उनकी माया त्रिगुणमयी है। ये तीनों ही गुण डाकू हैं। सब कुछ हर लेते हैं, हमारे स्वरूप को भुला देते हैं। सत्त्व, रज, तम तीन गुण हैं। इनमें से केवल सत्त्वगुण ही ईश्वर का रास्ता बताता है; परन्तु ईश्वर के पास सत्त्वगुण भी नहीं ले जा सकता।

रामकृष्ण परमहंस

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...