अतिचेतन तक को वश में कर लेता है ध्यान
इसके बाद अगली स्थिति मन की है। मन की गंगा में विचार व भावनाओं का जल बहता है। इसे प्रदूषण मुक्त करना एवं इस प्रवाह को नियंत्रित करना, इसे ऊर्जा केन्द्र के रूप में परिवर्तित करना ध्यानयोग के साधक की अगली चुनौती है। जिस तरह से नदी के जल पर बाँध बनाकर उस जल के वेग को शक्ति में परिवर्तित किया जाता है। कुछ इसी तरह की चुनौती ध्यान के साधक की भी होती है। यदि जलधारा के वेग को नियंत्रित न किया जा सका, तो इससे टरबाइन चलाना सम्भव नहीं होगा और फिर विद्युत् उत्पादन न हो सकेगा। ध्यान के साधक को भी अपने विचार व भाव प्रवाह को ध्येय की लय में बाँधना पड़ता है।
निरन्तर प्रयास से ऐसा हो पाता है। पवित्र ध्येय के साथ जब मन लय पूर्ण होता है, तो न केवल विचार एवं भावनाएँ शुद्ध होती हैं, बल्कि उनमें ऊर्जस्विता आती है और ये सचमुच ही लेजर किरणों के पुञ्ज में बदल जाती है। अभी की स्थिति में तो हमारी ऊर्जा टिमटिमाहट की भाँति है, इससे कोई विशेष कार्य नहीं सध सकता। ध्यान की प्रक्रिया में आध्यात्मिक शल्य चिकित्सा के लिए मन की तरंगों का लेजर किरणों के पुञ्ज में परिवर्तित होना अनिवार्य है। यही वह उपकरण है, जिसके प्रकाश में अचेतन की गहराइयों में उतरना सम्भव हो जाता है। इसी के द्वारा अचेतन के संस्कारों की शल्य क्रिया बन पड़ती है। यह प्रक्रिया जटिल है, कठिन है, दुरूह है, दुष्कर है। यह श्रम साध्य भी है और समय साध्य भी।
चेतन मन की तरंगों से जो लेजर किरणों का पुञ्ज तैयार होता है, उसी से अचेतन के संस्कारों को देखना एवं इन्हें हटाना बन पड़ता है। ये संस्कार परत दर परत होते हैं। इनकी परतों में भारी विविधताएँ होती हैं, जो कालक्रम से प्रकट होती हैं। यह विविधता परस्पर विरोधाभासी भी हो सकती है। उदाहरण के लिए एक परत में साधना के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में वासना के। एक परत में साधुता के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में शैतानियत के। इस सत्य को ठीक तरह से जानने के लिए ध्यान के गहरे अनुभव से गुजरना निहायत जरूरी है।
सामान्य जीवन के उदाहरण से समझना हो, तो यही कहेंगे कि जिस तरह बीज में वृक्ष का समूचा अस्तित्व छिपा होता है, उसी तरह से अचेतन की परतों में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाया होता है। बीज से पहले कोपलें एवं जड़ें निकलती हैं, उसकी कोमलता को देख औसत व्यक्ति यह नहीं सोच सकता कि इस वट बीज में कितना वृहत् आकार छुपा है, परन्तु कालक्रम में धीरे-धीरे सब प्रकट होता है। जेनेटिक्स को जानने वाला कुशल वैज्ञानिक अपने कतिपय प्रक्रियाओं से उसमें कुछ परिवर्तन भी कर सकता है। ठीक यही बात ध्यान के बारे में है-इस प्रयोग में ध्यान विज्ञानी अचेतन के संस्कारों का आवश्यक परिष्कार, परिमार्जन यहाँ तक कि रूपान्तरण तक करने में समर्थ होते हैं।
इतना ही अचेतन के अँधेरों से निकल अतिचेतन के प्रकाशमय लोक में प्रवेश करते हैं। और तब आती है वह स्थिति, जिसके लिए महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योगी हो जाता है मालिक, अतिसूक्ष्म परमाणु से लेकर अपरिसोम तक का। क्योंकि अतिचेतन के पास सारी शक्ति होती है। वह होता है सर्वशक्तिमान, वह होता है सर्वत्र, वह होता है सर्वव्यापी। अतिचेतन के पास वह हर एक शक्ति होती है, जो सम्भव होती है। यह वह स्तर है, जहाँ सारे असम्भव सम्भव बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १५९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या