मंगलवार, 12 नवंबर 2019
👉 मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें (अन्तिम भाग)
सन्तुलित मस्तिष्क का तात्पर्य भावना रहित बन जाना नहीं है। भले-बुरे को एक दृष्टि से देखने जैसी समदर्शिता की दुहाई देना भी सन्तुलन नहीं है। बुरे के प्रति सुधार और भले के प्रति उदार रहकर ही सन्तुलन बना रह सकता है। आँखों के सामने तात्कालिक लाभ का पर्दा उठ जाने, शरीर को ही सब कुछ मानकर उसी के परिकर को पोषित करते रहने की मोह माया ही भ्रान्तियों के ऐसे भण्डार जमा करती है जिन्हें विकृतियों का रूप धारण करते देर नहीं लगती। यही वह आँधी और तूफान है जिसके कारण उठने वाले चक्रवात समस्वरता बिगाड़कर रख देते है और ऐसा कर गुजरते हैं जिनके कुचक्र में फँसने के उपरान्त मनुष्य न जीवितों में रहे न मृतकों में, न बुद्धिमानों में गिना जा सके और व विक्षिप्तों में।
मलीनताएँ हर कहीं कुरूपता उत्पन्न करती है। गन्दगी जहाँ भी जमा होगी वहीं सड़न उत्पन्न करेगी। इस तथ्य को समझने वालों को एक और भी जानकारी नोट करनी चाहिए कि मनःक्षेत्र पर चढ़ी हुई मलीनता जिसे मल, आवरण या कषाय कल्मष के नाम से जाना जाता है, अन्य सभी मलीनताओं की तुलना में अधिक भयावह है। अन्य क्षेत्रों की गन्दगी मात्र पदार्थों को ही प्रभावित करती है, पर मनःक्षेत्र की गन्दगी न केवल मनुष्य को स्वयं दीन दयनीय, पतित और घृणित बनाती है वरन् उसका सम्पर्क क्षेत्र भी विषाक्त होता है। छूत की संक्रामक बीमारियों की तरह चिन्तन की निकृष्टता भी ऐसी है, जो जहाँ उपजती है उसका विनाश करने के अतिरिक्त जहाँ तक उसकी पहुँच है वहाँ भी विनाशकारी वातावरण उत्पन्न करती है।
मानसिक स्वच्छता के लिए जागरूकता बरती जानी चाहिए और विचारणा को श्रेष्ठ कार्यों में, सदुद्देश्य में नियोजित करने की बात सोचनी चाहिए। इसी में दूरदर्शी और सराहनीय विवेकशीलता है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
मलीनताएँ हर कहीं कुरूपता उत्पन्न करती है। गन्दगी जहाँ भी जमा होगी वहीं सड़न उत्पन्न करेगी। इस तथ्य को समझने वालों को एक और भी जानकारी नोट करनी चाहिए कि मनःक्षेत्र पर चढ़ी हुई मलीनता जिसे मल, आवरण या कषाय कल्मष के नाम से जाना जाता है, अन्य सभी मलीनताओं की तुलना में अधिक भयावह है। अन्य क्षेत्रों की गन्दगी मात्र पदार्थों को ही प्रभावित करती है, पर मनःक्षेत्र की गन्दगी न केवल मनुष्य को स्वयं दीन दयनीय, पतित और घृणित बनाती है वरन् उसका सम्पर्क क्षेत्र भी विषाक्त होता है। छूत की संक्रामक बीमारियों की तरह चिन्तन की निकृष्टता भी ऐसी है, जो जहाँ उपजती है उसका विनाश करने के अतिरिक्त जहाँ तक उसकी पहुँच है वहाँ भी विनाशकारी वातावरण उत्पन्न करती है।
मानसिक स्वच्छता के लिए जागरूकता बरती जानी चाहिए और विचारणा को श्रेष्ठ कार्यों में, सदुद्देश्य में नियोजित करने की बात सोचनी चाहिए। इसी में दूरदर्शी और सराहनीय विवेकशीलता है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 अन्तःलोक का आलोक
हवा के एक झोंके ने मिट्टी का दीया बुझा दिया। मिट्टी के दीयोंं का भरोसा भी क्या? कब टूटे और बिखरकर मिट्टी में मिल गए। उन ज्योतियों का साथ भी कितना, जिन्हें हवाएँ जब-तब बुझा सकती हैं। ज्योति के बिना जीवन अँधेरों में डूब जाता है। ये अँधेरे सदा ही भयावह होते हैं। जिन्हें अनुभव है, वे जानते हैं कि अँधेरे में प्राण कँप जाते हैं और साँसें लेना भी कठिन हो जाता है।
जीवन ही नहीं जगत् भी अँधेरे से घिरा है। ऐसी कोई भी ज्योति इस जगत् में नहीं है, जो अँधेरे को पूरी तरह मिटा दे। जो भी ज्येातियाँ हैं, उन्हें देर-सबेर हवाओं के झोंके अँधेरों में डुबा देते हैं। ये जलती है और बुझ जाती हैं, पर अँधेरे की सघनता जस की तस बनी रहती है। जगत् में फैला हुआ अँधेरा शाश्वत है। जो इस जगत् की ज्योतियों पर भरोसा करते हैं, वे नासमझ हैं, क्योंकि ये ज्योतियाँ सब की सब आखिरकार अँधेरे से हार जाती हंैं।
अंधकार से भरे इस जगत् से परे एक और लोक भी है। जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। इस बाहरी जगत् में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है एवं अँधेरा शाश्वत है, तो इस आन्तरिक जगत् में अंधकार क्षणिक व सामयिक है और प्रकाश शाश्वत है। अचरज की बात यह है कि यह प्रकाश लोक हमारे बहुत निकट है, क्योंकि अंधकार बाहर है और प्रकाश भीतर।
याद रहे, जब तक अन्तःलोक के आलोक में जागरण नहीं होता, तब तक कोई भी ज्योति अभय नहीं दे पाती। जरूरत इस बात की है कि मिट्टी के मृण्मय दीपों पर भरोसा छोड़ा जाय और चिन्मय ज्योति को खोजा जाय। क्योंकि यही अभय, आनन्द और आलोक का स्रोत है। अँधेरे से घबराहट और आलोक की चाहत यह जताती है कि हमारी वास्तविकता प्रकाश ही है। क्योंकि आलोक ही आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहाँ से प्रकाश की चाहत पनप रही है, वहीं खोजो, अन्तःलोक का आलोक, चिन्मय ज्योति का स्रोत वहीं छिपा है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १२२
जीवन ही नहीं जगत् भी अँधेरे से घिरा है। ऐसी कोई भी ज्योति इस जगत् में नहीं है, जो अँधेरे को पूरी तरह मिटा दे। जो भी ज्येातियाँ हैं, उन्हें देर-सबेर हवाओं के झोंके अँधेरों में डुबा देते हैं। ये जलती है और बुझ जाती हैं, पर अँधेरे की सघनता जस की तस बनी रहती है। जगत् में फैला हुआ अँधेरा शाश्वत है। जो इस जगत् की ज्योतियों पर भरोसा करते हैं, वे नासमझ हैं, क्योंकि ये ज्योतियाँ सब की सब आखिरकार अँधेरे से हार जाती हंैं।
अंधकार से भरे इस जगत् से परे एक और लोक भी है। जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। इस बाहरी जगत् में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है एवं अँधेरा शाश्वत है, तो इस आन्तरिक जगत् में अंधकार क्षणिक व सामयिक है और प्रकाश शाश्वत है। अचरज की बात यह है कि यह प्रकाश लोक हमारे बहुत निकट है, क्योंकि अंधकार बाहर है और प्रकाश भीतर।
याद रहे, जब तक अन्तःलोक के आलोक में जागरण नहीं होता, तब तक कोई भी ज्योति अभय नहीं दे पाती। जरूरत इस बात की है कि मिट्टी के मृण्मय दीपों पर भरोसा छोड़ा जाय और चिन्मय ज्योति को खोजा जाय। क्योंकि यही अभय, आनन्द और आलोक का स्रोत है। अँधेरे से घबराहट और आलोक की चाहत यह जताती है कि हमारी वास्तविकता प्रकाश ही है। क्योंकि आलोक ही आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहाँ से प्रकाश की चाहत पनप रही है, वहीं खोजो, अन्तःलोक का आलोक, चिन्मय ज्योति का स्रोत वहीं छिपा है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १२२
👉 Gayatri Sadhna truth and distortions (Part 4)
Q.6. Why is the Primordial Divine Energy (Gayatri) represented in so many forms (idols)?
Ans. God is omnipresent. The primordial Divine Energy symbolized as Gayatri take up numerous forms and functions in innumerable ways. The analogy of an actor will illustrate the point. An actor in a play has to wear different costumes on various occasions to portray different roles. For each role, he is made to don specific garments with appropriate ornamentation and adopts suitable histrionics. The person chooses the deity according to one’s need. During Trikal Sandhya for instance, the trinity Brahmi - Vaishnavi - Shambhavi is invoked. Aspirants for strength and success in worldly pursuits worship Durga; for prosperity, Lakhyami; for scholarship and cultural excellence, Saraswati; and so on.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 19
Ans. God is omnipresent. The primordial Divine Energy symbolized as Gayatri take up numerous forms and functions in innumerable ways. The analogy of an actor will illustrate the point. An actor in a play has to wear different costumes on various occasions to portray different roles. For each role, he is made to don specific garments with appropriate ornamentation and adopts suitable histrionics. The person chooses the deity according to one’s need. During Trikal Sandhya for instance, the trinity Brahmi - Vaishnavi - Shambhavi is invoked. Aspirants for strength and success in worldly pursuits worship Durga; for prosperity, Lakhyami; for scholarship and cultural excellence, Saraswati; and so on.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 19
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