शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 25) 31 Dec
🌹 समग्र समाधान— मनुष्य में देवत्व के अवतरण से
🔴 इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। इसलिए यदि परिस्थितियों की विपन्नता को सचमुच ही सुधारना हो, तो जनसमुदाय की मन:स्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को उगाया, उभारा और गहराई तक समाविष्ट किया जाए। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि मन:क्षेत्र एवं बुद्धि संस्थान भी स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें भावनाओं, आकांक्षाओं, मान्यताओं के आधार पर अपनी दिशाधारा विनिर्मित करनी होती है। उनका आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप अन्त:करण में भाव-संवेदना बनकर रहता है।
🔵 यही है वह सूत्र, जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति ऋषिकल्प, देवमानव बन सकता है। यह एक ही तत्त्व इतना समर्थ है कि अन्यान्य असमर्थताएँ बने रहने पर भी मात्र इस अकेली विभूति के सहारे न केवल अपना वरन् समूचे संसार की शालीनता का पक्षधर कायाकल्प किया जा सकता है। इक्कीसवीं-सदी के साथ जुड़े उज्ज्वल भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव-संवेदनाओं को उत्कृष्ट, आदर्श एवं उदात्त बनाया जाए। इस सदाशयता की अभिवृद्धि इस स्तर तक होनी चाहिए कि सब अपने और अपने को सबका मानने की आस्था उभरती और परिपक्व होती रहे।
🔴 सम्पदा संसार में इस अनुपात में ही विनिर्मित हुई है कि उसे मिल-बाँटकर खाने की नीति अपनाकर सभी औसत नागरिक स्तर का जीवन जी सकें। साथ ही बढ़े हुए पुरुषार्थ के आधार पर जो कुछ अतिरिक्त अर्जन कर सकें, उससे पिछड़े हुओं को बढ़ाने, गिरते हुओं को उठाने एवं समुन्नतों को सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु प्रोत्साहित कर सकें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। इसलिए यदि परिस्थितियों की विपन्नता को सचमुच ही सुधारना हो, तो जनसमुदाय की मन:स्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को उगाया, उभारा और गहराई तक समाविष्ट किया जाए। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि मन:क्षेत्र एवं बुद्धि संस्थान भी स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें भावनाओं, आकांक्षाओं, मान्यताओं के आधार पर अपनी दिशाधारा विनिर्मित करनी होती है। उनका आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप अन्त:करण में भाव-संवेदना बनकर रहता है।
🔵 यही है वह सूत्र, जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति ऋषिकल्प, देवमानव बन सकता है। यह एक ही तत्त्व इतना समर्थ है कि अन्यान्य असमर्थताएँ बने रहने पर भी मात्र इस अकेली विभूति के सहारे न केवल अपना वरन् समूचे संसार की शालीनता का पक्षधर कायाकल्प किया जा सकता है। इक्कीसवीं-सदी के साथ जुड़े उज्ज्वल भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव-संवेदनाओं को उत्कृष्ट, आदर्श एवं उदात्त बनाया जाए। इस सदाशयता की अभिवृद्धि इस स्तर तक होनी चाहिए कि सब अपने और अपने को सबका मानने की आस्था उभरती और परिपक्व होती रहे।
🔴 सम्पदा संसार में इस अनुपात में ही विनिर्मित हुई है कि उसे मिल-बाँटकर खाने की नीति अपनाकर सभी औसत नागरिक स्तर का जीवन जी सकें। साथ ही बढ़े हुए पुरुषार्थ के आधार पर जो कुछ अतिरिक्त अर्जन कर सकें, उससे पिछड़े हुओं को बढ़ाने, गिरते हुओं को उठाने एवं समुन्नतों को सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु प्रोत्साहित कर सकें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सार्वभौमिक-उपासना
🔵 दुनियाँ में जितने धर्म, सम्प्रदाय, देवता और भगवानों के प्रकार हैं उन्हें कुछ दिन मौन हो जाना चाहिये और एक नई उपासना पद्धति का प्रचलन करना चाहिए जिसमें केवल “माँ” की ही पूजा हो, माँ को ही भेंट चढ़ाई जाये?
🔴 माँ बच्चे को दूध ही नहीं पिलाती, पहले वह उसका रस, रक्त और हाड़-माँस से निर्माण भी करती है, पीछे उसके विकास, उसकी सुख-समृद्धि और समुन्नति के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है। उसकी एक ही कामना रहती है मेरे सब बच्चे परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, मित्रता का आचरण करें, न्यायपूर्वक सम्पत्तियों का उपभोग करें, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष का कारण न बनें। चिर शान्ति, विश्व-मैत्री और “सर्वे भवन्ति सुखिनः” वह आदर्श है, जिनके कारण माँ सब देवताओं से बड़ी है।
🔵 हमारी धरती ही हमारी माता है यह मानकर उसकी उपासना करें। अहंकारियों ने, दुष्ट-दुराचारियों स्वार्थी और इन्द्रिय लोलुप जनों ने मातृ-भू को कितना कलंकित किया है इस पर भावनापूर्वक विचार करते समय आंखें भर आती है। हमने अप्रत्यक्ष देवताओं को तो पूजा की पर प्रत्यक्ष देवी धरती माता के भजन का कभी ध्यान ही नहीं आया। आया होता तो आज हम अधिकार के प्रश्न पर रक्त न बहाते, स्वार्थ के लिये दूसरे भाई का खून न करते, तिजोरियाँ भरने के लिये मिलावट न करते, मिथ्या सम्मान के लिये अहंकार का प्रदर्शन न करते।
🔴 संसार भर के प्राणी उसकी सन्तान-हमारे भाई हैं। यदि हमने माँ की उपासना की होती तो छल-कपट ईर्ष्या-द्वेष दम्भ, हिंसा, पाशविकता, युद्ध को प्रश्रय न देते। स्वर्ग और है भी क्या, जहाँ यह बुराइयाँ न हों वहीं तो स्वर्ग है। माँ की उपासना से स्वर्गीय आनंद की अनुभूति इसीलिये यहीं प्रत्यक्ष रूप से अभी मिलती है। इसलिये मैं कहता हूँ कि कुछ दिन और सब उपासना पद्धति बंद कर केवल “माँ” की मातृ-भूमि की उपासना करनी चाहिये।
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1969 पृष्ठ 1
🔴 माँ बच्चे को दूध ही नहीं पिलाती, पहले वह उसका रस, रक्त और हाड़-माँस से निर्माण भी करती है, पीछे उसके विकास, उसकी सुख-समृद्धि और समुन्नति के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है। उसकी एक ही कामना रहती है मेरे सब बच्चे परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, मित्रता का आचरण करें, न्यायपूर्वक सम्पत्तियों का उपभोग करें, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष का कारण न बनें। चिर शान्ति, विश्व-मैत्री और “सर्वे भवन्ति सुखिनः” वह आदर्श है, जिनके कारण माँ सब देवताओं से बड़ी है।
🔵 हमारी धरती ही हमारी माता है यह मानकर उसकी उपासना करें। अहंकारियों ने, दुष्ट-दुराचारियों स्वार्थी और इन्द्रिय लोलुप जनों ने मातृ-भू को कितना कलंकित किया है इस पर भावनापूर्वक विचार करते समय आंखें भर आती है। हमने अप्रत्यक्ष देवताओं को तो पूजा की पर प्रत्यक्ष देवी धरती माता के भजन का कभी ध्यान ही नहीं आया। आया होता तो आज हम अधिकार के प्रश्न पर रक्त न बहाते, स्वार्थ के लिये दूसरे भाई का खून न करते, तिजोरियाँ भरने के लिये मिलावट न करते, मिथ्या सम्मान के लिये अहंकार का प्रदर्शन न करते।
🔴 संसार भर के प्राणी उसकी सन्तान-हमारे भाई हैं। यदि हमने माँ की उपासना की होती तो छल-कपट ईर्ष्या-द्वेष दम्भ, हिंसा, पाशविकता, युद्ध को प्रश्रय न देते। स्वर्ग और है भी क्या, जहाँ यह बुराइयाँ न हों वहीं तो स्वर्ग है। माँ की उपासना से स्वर्गीय आनंद की अनुभूति इसीलिये यहीं प्रत्यक्ष रूप से अभी मिलती है। इसलिये मैं कहता हूँ कि कुछ दिन और सब उपासना पद्धति बंद कर केवल “माँ” की मातृ-भूमि की उपासना करनी चाहिये।
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति फरवरी 1969 पृष्ठ 1
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 9) 31 Dec
🌹 उच्चारण-क्रम
🔴 गायत्री मंत्र का किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उच्चारण करें इस सन्दर्भ में कई बातें जानने योग्य हैं। गायन उच्चारण सस्वर किया जाता है। प्रत्येक वेद मन्त्र के साथ स्वर विधान जुड़ा हुआ है कि उसे किस लय, ध्वनि में,, किस उतार-चढ़ाव के साथ गाया जाय। वेद-मन्त्र को छन्द भी कहते हैं। वे सभी पद्य में हैं और गायन में जो स्वर लहरी उत्पन्न करते हैं उसका प्रभाव ध्वनि-तरंगें उत्पन्न करता है। वे तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण करती और सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। इसलिए सहगान में—यज्ञ-हवन में, मंगल प्रयोजनों में, शुभारम्भ में, गायत्री मन्त्र उच्चारण सहित—निर्धारित स्वर विधान के साथ—निर्धारित ध्वनि प्रक्रिया के साथ गाया जाता है। तीन वेदों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख है। तीनों में स्वर-लिपी अलग-अलग है। इनमें से एक ही चुनना ठीक है। यजुर्वेदीय गान उच्चारण सर्व साधारण के लिए अधिक उपयुक्त है।
🔵 नियमित जप मन्द स्वर से किया जाता है। उसमें होंठ, कण्ठ, जीभ में स्पन्दन तो रहना चाहिए पर ध्वनि इतनी मन्द होनी चाहिए कि अन्य कोई उसे सुन समझ न सके। मात्र हलका गुंजन जैसा कुछ अनुभव कर सके।
🔴 यदि रास्ता चलते, बिना नहाये—काम-काज करते अनियमित जप करना हो तो होंठ, कण्ठ, जीभ सभी बन्द रखने चाहिए और मन ही मन ध्वनि-ध्यान की तरह उसे करते रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में जो जप किया जाता है, उसकी माला के समान गणना नहीं की जाती। घड़ी देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी जप-गति क्या थी और कितने समय में कितना मानसिक जप हो गया होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 गायत्री मंत्र का किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उच्चारण करें इस सन्दर्भ में कई बातें जानने योग्य हैं। गायन उच्चारण सस्वर किया जाता है। प्रत्येक वेद मन्त्र के साथ स्वर विधान जुड़ा हुआ है कि उसे किस लय, ध्वनि में,, किस उतार-चढ़ाव के साथ गाया जाय। वेद-मन्त्र को छन्द भी कहते हैं। वे सभी पद्य में हैं और गायन में जो स्वर लहरी उत्पन्न करते हैं उसका प्रभाव ध्वनि-तरंगें उत्पन्न करता है। वे तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण करती और सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। इसलिए सहगान में—यज्ञ-हवन में, मंगल प्रयोजनों में, शुभारम्भ में, गायत्री मन्त्र उच्चारण सहित—निर्धारित स्वर विधान के साथ—निर्धारित ध्वनि प्रक्रिया के साथ गाया जाता है। तीन वेदों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख है। तीनों में स्वर-लिपी अलग-अलग है। इनमें से एक ही चुनना ठीक है। यजुर्वेदीय गान उच्चारण सर्व साधारण के लिए अधिक उपयुक्त है।
🔵 नियमित जप मन्द स्वर से किया जाता है। उसमें होंठ, कण्ठ, जीभ में स्पन्दन तो रहना चाहिए पर ध्वनि इतनी मन्द होनी चाहिए कि अन्य कोई उसे सुन समझ न सके। मात्र हलका गुंजन जैसा कुछ अनुभव कर सके।
🔴 यदि रास्ता चलते, बिना नहाये—काम-काज करते अनियमित जप करना हो तो होंठ, कण्ठ, जीभ सभी बन्द रखने चाहिए और मन ही मन ध्वनि-ध्यान की तरह उसे करते रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में जो जप किया जाता है, उसकी माला के समान गणना नहीं की जाती। घड़ी देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी जप-गति क्या थी और कितने समय में कितना मानसिक जप हो गया होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 3) 31 Dec
🌹 प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
🔵 लोग मूर्तिकार को देखने के लिए आतुर हो रहे थे। इतने में स्थानीय आयोजक एक लड़की को पकड़कर लाये जिसके कपड़े जरा-जीर्ण हो रहे थे, और बाल बिखरे वे। रक्षकों ने बताया कि यह लड़की कलाकार का नाम जानती है किन्तु बताती नहीं। स्थानीय कानून के अनुसार गुलाम व्यक्ति कला में कोई रुचि नहीं ले सकता। लड़की की चुप्पी पर उसे जेलखाने में डाल देने का आदेश हुआ। इतने में एक किशोर सामने आया और ‘क्रियो’ नाम से अपना परिचय दिया और दृढ़ता के साथ बोला मैंने कला को भगवान मानकर पूजा की है, आपका कानून यदि अपराध मानता है तो हम अपराधी हैं।
🔴 किशोर की दृढ़ता, अल्पायु में कला के प्रति अपार लगन और कलाकृति के अनुपम सौन्दर्य ने अध्यक्ष पेरी क्लीज को मुग्ध कर दिया कानून की कठोरता हृदय को द्रवीभूत होने से रोक न सकी और पेरी क्लीज ने घोषणा की ‘क्रियो’ दण्ड का नहीं सम्मान और पुरस्कार का पात्र है। हमें यह कानून बदलना होगा जिससे कला देवता का अपमान होता हो। उस दिन से पेरी क्लीज के प्रयत्नों से कानून बदला गया। गरीबी और विपन्न परिस्थितियों में भी किशोर कलाकार की कला के प्रति अपार लगन ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा ने न केवल उसे विश्व के मूर्धन्य कलाकारों की श्रेणी में पहुंचा दिया वरन् उस कानून में भी परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जो अमानवीय था।
🔵 सच तो यह है कि प्रतिकूलताएं मानवी पुरुषार्थ की परीक्षा लेने आती हैं। और व्यक्तित्व भी अधिक प्रखर परिपक्व विपन्न परिस्थितियों में ही बनता है। लायोन्स नगर में एक भोज आयोजित था। नगर के प्रमुख विद्वान साहित्यकार एवं कलाकार आमन्त्रित थे। प्राचीन ग्रीस की पौराणिक कथाओं के चित्रों के सम्बन्ध में उपस्थित विद्वानों के बीच बहस छिड़ गयी और विवादों का रूप लेने लगी। गृह स्वामी ने इस स्थिति को देखकर नौकर को बुलाया और सम्बन्धित विषय में विवाद को निपटाने के लिए कहा सभी को आश्चर्य हुआ कि भला नौकर क्या समाधान देगा। साथ ही उन्हें अपनी विद्वता का अपमान भी अनुभव हो रहा था। किन्तु नौकर की विश्लेषणात्मक तार्किक विवेचना को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये और तत्काल ही अपनी इस गलती का ज्ञान हुआ कि विद्वता प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 लोग मूर्तिकार को देखने के लिए आतुर हो रहे थे। इतने में स्थानीय आयोजक एक लड़की को पकड़कर लाये जिसके कपड़े जरा-जीर्ण हो रहे थे, और बाल बिखरे वे। रक्षकों ने बताया कि यह लड़की कलाकार का नाम जानती है किन्तु बताती नहीं। स्थानीय कानून के अनुसार गुलाम व्यक्ति कला में कोई रुचि नहीं ले सकता। लड़की की चुप्पी पर उसे जेलखाने में डाल देने का आदेश हुआ। इतने में एक किशोर सामने आया और ‘क्रियो’ नाम से अपना परिचय दिया और दृढ़ता के साथ बोला मैंने कला को भगवान मानकर पूजा की है, आपका कानून यदि अपराध मानता है तो हम अपराधी हैं।
🔴 किशोर की दृढ़ता, अल्पायु में कला के प्रति अपार लगन और कलाकृति के अनुपम सौन्दर्य ने अध्यक्ष पेरी क्लीज को मुग्ध कर दिया कानून की कठोरता हृदय को द्रवीभूत होने से रोक न सकी और पेरी क्लीज ने घोषणा की ‘क्रियो’ दण्ड का नहीं सम्मान और पुरस्कार का पात्र है। हमें यह कानून बदलना होगा जिससे कला देवता का अपमान होता हो। उस दिन से पेरी क्लीज के प्रयत्नों से कानून बदला गया। गरीबी और विपन्न परिस्थितियों में भी किशोर कलाकार की कला के प्रति अपार लगन ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा ने न केवल उसे विश्व के मूर्धन्य कलाकारों की श्रेणी में पहुंचा दिया वरन् उस कानून में भी परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जो अमानवीय था।
🔵 सच तो यह है कि प्रतिकूलताएं मानवी पुरुषार्थ की परीक्षा लेने आती हैं। और व्यक्तित्व भी अधिक प्रखर परिपक्व विपन्न परिस्थितियों में ही बनता है। लायोन्स नगर में एक भोज आयोजित था। नगर के प्रमुख विद्वान साहित्यकार एवं कलाकार आमन्त्रित थे। प्राचीन ग्रीस की पौराणिक कथाओं के चित्रों के सम्बन्ध में उपस्थित विद्वानों के बीच बहस छिड़ गयी और विवादों का रूप लेने लगी। गृह स्वामी ने इस स्थिति को देखकर नौकर को बुलाया और सम्बन्धित विषय में विवाद को निपटाने के लिए कहा सभी को आश्चर्य हुआ कि भला नौकर क्या समाधान देगा। साथ ही उन्हें अपनी विद्वता का अपमान भी अनुभव हो रहा था। किन्तु नौकर की विश्लेषणात्मक तार्किक विवेचना को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये और तत्काल ही अपनी इस गलती का ज्ञान हुआ कि विद्वता प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 60)
🌹 राजनीति और सच्चरित्रता
🔴 91. सस्ता, शीघ्र और सरल न्याय— आज का न्याय बहुत पेचीदा, बहुत लम्बा, बहुत व्ययसाध्य और ऐसी गुत्थियों से भरा है कि बेचारा निर्धन और भोला भाला व्यक्ति न्याय से वंचित ही रह जाता है। धूर्तों के लिए ऐसी गुंजाइश मिल जाती है कि वे पैसे के बल पर सीधे को उलटा कर सकें। न्यायतंत्र में से ऐसे सारे छिद्र बन्द किये जाने चाहिये और ऐसी व्यवस्था बननी चाहिये और ऐसा परिवर्तन होना चाहिए कि सरल रीति से ही व्यक्ति को शीघ्र और सस्ता न्याय प्राप्त हो सके। इस विभाग के कर्मचारियों के हाथ में जनता को परेशान करने की क्षमता न रहे तो रिश्वत सहज ही बन्द हो सकती है।
🔵 92. अपराधों के प्रति कड़ाई— अपराधियों के प्रति कड़ाई की कठोर नीति रखने की प्रेरणा सरकार को करनी चाहिये। स्वल्प दण्ड और जेलों में असाधारण सुविधायें मिलने से बन्दी सुधरते नहीं वरन् निर्भय होकर आते हैं। सुधारने वाला वातावरण जेलों में कहां है? यदि वहां असुविधा भी न रहेंगी तो अपराधी लोग उसकी परवाह न करते हुए दुस्साहसपूर्ण अपराध करते ही रहेंगे। रूस आदि जिन देशों में अपराधी को कड़ी सजा मिलती है वहां के लोग अपराध करते हुए डरते हैं। यह डर घट जाय या मिट जाय तो अपराध बढ़ेंगे ही। इसलिये स्वल्प दण्ड देने वाले कानून और जेल में अधिक सुविधाएं मिलना चरित्र निर्माण की दृष्टि से हानिकारक है, इस तथ्य को सरकार से मनवाने का प्रयत्न किया जाय।
🔴 कानूनी पकड़ से जो लोग बच जाते हैं उन असामाजिक गुण्डातत्वों की अपराध वृत्ति रोकने के लिए विशेष तन्त्र गठित रहे, जिसमें उच्च आदर्शवान परखे हुए लोग ही गुप्तचरों के रूप में वस्तु स्थिति का पता लगाते रहें। इनकी जांच के आधार पर गुण्डा-तत्वों को नजरबन्द किया जा सके ऐसी व्यवस्था रहे। आज अपराधी लोग कानून की पकड़ से आतंक, धन और चतुरता के आधार पर बच निकलते हैं। यह सुविधा बन्द की जाय। न्यायालयों से ही नहीं वस्तुस्थिति जांच करने वाली उच्चस्तरीय जांच समिति की सूचना के आधार पर भी दण्ड व्यवस्था की जा सके, ऐसी व्यवस्था की जाय।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 91. सस्ता, शीघ्र और सरल न्याय— आज का न्याय बहुत पेचीदा, बहुत लम्बा, बहुत व्ययसाध्य और ऐसी गुत्थियों से भरा है कि बेचारा निर्धन और भोला भाला व्यक्ति न्याय से वंचित ही रह जाता है। धूर्तों के लिए ऐसी गुंजाइश मिल जाती है कि वे पैसे के बल पर सीधे को उलटा कर सकें। न्यायतंत्र में से ऐसे सारे छिद्र बन्द किये जाने चाहिये और ऐसी व्यवस्था बननी चाहिये और ऐसा परिवर्तन होना चाहिए कि सरल रीति से ही व्यक्ति को शीघ्र और सस्ता न्याय प्राप्त हो सके। इस विभाग के कर्मचारियों के हाथ में जनता को परेशान करने की क्षमता न रहे तो रिश्वत सहज ही बन्द हो सकती है।
🔵 92. अपराधों के प्रति कड़ाई— अपराधियों के प्रति कड़ाई की कठोर नीति रखने की प्रेरणा सरकार को करनी चाहिये। स्वल्प दण्ड और जेलों में असाधारण सुविधायें मिलने से बन्दी सुधरते नहीं वरन् निर्भय होकर आते हैं। सुधारने वाला वातावरण जेलों में कहां है? यदि वहां असुविधा भी न रहेंगी तो अपराधी लोग उसकी परवाह न करते हुए दुस्साहसपूर्ण अपराध करते ही रहेंगे। रूस आदि जिन देशों में अपराधी को कड़ी सजा मिलती है वहां के लोग अपराध करते हुए डरते हैं। यह डर घट जाय या मिट जाय तो अपराध बढ़ेंगे ही। इसलिये स्वल्प दण्ड देने वाले कानून और जेल में अधिक सुविधाएं मिलना चरित्र निर्माण की दृष्टि से हानिकारक है, इस तथ्य को सरकार से मनवाने का प्रयत्न किया जाय।
🔴 कानूनी पकड़ से जो लोग बच जाते हैं उन असामाजिक गुण्डातत्वों की अपराध वृत्ति रोकने के लिए विशेष तन्त्र गठित रहे, जिसमें उच्च आदर्शवान परखे हुए लोग ही गुप्तचरों के रूप में वस्तु स्थिति का पता लगाते रहें। इनकी जांच के आधार पर गुण्डा-तत्वों को नजरबन्द किया जा सके ऐसी व्यवस्था रहे। आज अपराधी लोग कानून की पकड़ से आतंक, धन और चतुरता के आधार पर बच निकलते हैं। यह सुविधा बन्द की जाय। न्यायालयों से ही नहीं वस्तुस्थिति जांच करने वाली उच्चस्तरीय जांच समिति की सूचना के आधार पर भी दण्ड व्यवस्था की जा सके, ऐसी व्यवस्था की जाय।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 28)
🌹 दुःख का कारण पाप ही नहीं है
🔵 आमतौर से दुःख को नापसंद किया जाता है। लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुःख आते हैं, परंतु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। दुःखों का एक कारण पाप भी है यह तो ठीक है, परंतु यह ठीक नहीं कि समस्त दुःख-पापों के कारण ही आते हैं।
🔴 कई बार ऐसा भी होता है कि ईश्वर की कृपा के कारण, पूर्व संचित पुण्यों के कारण और पुण्य संचय की तपश्चर्या के कारण भी दुःख आते हैं। भगवान को किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण लेना होता है, कल्याण के पथ की ओर ले जाना होता है तो उसे भव-बंधन से, कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुःखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं, जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल समझ जाय, निद्रा को छोड़कर सावधान हो जाय।
🔵 सांसारिक मोह, ममता और विषय-वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। एक हलका-सा विचार आता है कि जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ काम में करना चाहिए, परंतु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके कारण वह हलका विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार की कीचड़ में से निकालने के लिए भगवान अपने भक्त को झटका मारते हैं, सोते हुए को जगाने के लिए बड़े जोर से झकझोरते हैं। यह झटका और झकझोरना हमें दुःख जैसा प्रतीत होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/dukh
🔵 आमतौर से दुःख को नापसंद किया जाता है। लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुःख आते हैं, परंतु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। दुःखों का एक कारण पाप भी है यह तो ठीक है, परंतु यह ठीक नहीं कि समस्त दुःख-पापों के कारण ही आते हैं।
🔴 कई बार ऐसा भी होता है कि ईश्वर की कृपा के कारण, पूर्व संचित पुण्यों के कारण और पुण्य संचय की तपश्चर्या के कारण भी दुःख आते हैं। भगवान को किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण लेना होता है, कल्याण के पथ की ओर ले जाना होता है तो उसे भव-बंधन से, कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुःखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं, जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल समझ जाय, निद्रा को छोड़कर सावधान हो जाय।
🔵 सांसारिक मोह, ममता और विषय-वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। एक हलका-सा विचार आता है कि जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ काम में करना चाहिए, परंतु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके कारण वह हलका विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार की कीचड़ में से निकालने के लिए भगवान अपने भक्त को झटका मारते हैं, सोते हुए को जगाने के लिए बड़े जोर से झकझोरते हैं। यह झटका और झकझोरना हमें दुःख जैसा प्रतीत होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/dukh
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 12)
🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
🔴 हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लम्बी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था ‘‘साधना से सिद्धि’’ का अन्वेषण-पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा सम्भव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातन काल से चली आ रही ‘‘साधना से सिद्धि’’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत?
🔵 इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए। यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘‘गायत्री दीक्षा’’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघु कौमुदी सिद्धांत के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत् की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत् का आद्योपान्त वृत्तांत याद हो गया।
🔴 इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासन प्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए। संध्या वंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.3
🔴 हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लम्बी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था ‘‘साधना से सिद्धि’’ का अन्वेषण-पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा सम्भव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातन काल से चली आ रही ‘‘साधना से सिद्धि’’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत?
🔵 इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए। यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘‘गायत्री दीक्षा’’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघु कौमुदी सिद्धांत के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत् की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत् का आद्योपान्त वृत्तांत याद हो गया।
🔴 इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासन प्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए। संध्या वंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 12)
🌞 हिमालय में प्रवेश
मृत्यु सी भयानक सँकरी पगडण्डी
🔵 आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था। पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की सँकरी सी पगडण्डी थी। उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था। पैर भी इधर- उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी। जरा बचकर चले, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था। यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। सँकरी सी पगडण्डी पर सँभाल- सँभाल कर एक- एक कदम रखना पड़ता था; क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ फुट का अन्तर था।
🔴 मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने शुकदेव जी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ में देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और: साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूँद भी तेल फैला तो वही गरदन काट दी जायेगी। शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले। सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा। जनक ने तब उन से कहा कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूँद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा उसी प्रकार मैं भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूँ, जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता और न मन व्यर्थ की बातों में भटक कर चंचल होता है।
🔵 इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस सँकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया। हम लोग कई पथिक साथ थे। वैसे खूब हँसते- बोलते चलते थे; पर जहाँ वह सँकरी पगडण्डी आई कि सभी चुप हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था। चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े। एक हाथ से हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से यदि शरीर की झोंक गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़- पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा। इन डेढ़- दो मील की यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की। दिल हर घड़ी धड़कता रहा । जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है- यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा।
🔴 यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ- साथ उठ रहे हैं। सोचता हूँ यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं। जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिसमें हर कदम साध- साधकर रखा जाना जरूरी है। यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय, तो मानव जीवन के महान् लक्ष्य से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं। जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस सँकरी पगडण्डी से पार ले चले, जहाँ से शान्तिपूर्ण यात्रा पर चल पड़े। मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का। उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की साँस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे। कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी सँकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम अपना यह सन्तुलन बनाये रह सकते हैं जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय। आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ सहायक मानी जायेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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मृत्यु सी भयानक सँकरी पगडण्डी
🔵 आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था। पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की सँकरी सी पगडण्डी थी। उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था। पैर भी इधर- उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ देर न थी। जरा बचकर चले, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊँचा पर्वत सीधा तना खड़ा था। यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। सँकरी सी पगडण्डी पर सँभाल- सँभाल कर एक- एक कदम रखना पड़ता था; क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ फुट का अन्तर था।
🔴 मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने शुकदेव जी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ में देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और: साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूँद भी तेल फैला तो वही गरदन काट दी जायेगी। शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले। सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा। जनक ने तब उन से कहा कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूँद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा उसी प्रकार मैं भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूँ, जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता और न मन व्यर्थ की बातों में भटक कर चंचल होता है।
🔵 इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस सँकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया। हम लोग कई पथिक साथ थे। वैसे खूब हँसते- बोलते चलते थे; पर जहाँ वह सँकरी पगडण्डी आई कि सभी चुप हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था। चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े। एक हाथ से हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से यदि शरीर की झोंक गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़- पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा। इन डेढ़- दो मील की यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की। दिल हर घड़ी धड़कता रहा । जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है- यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा।
🔴 यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ- साथ उठ रहे हैं। सोचता हूँ यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं। जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिसमें हर कदम साध- साधकर रखा जाना जरूरी है। यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय, तो मानव जीवन के महान् लक्ष्य से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं। जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस सँकरी पगडण्डी से पार ले चले, जहाँ से शान्तिपूर्ण यात्रा पर चल पड़े। मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्ण है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का। उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की साँस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे। कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी सँकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम अपना यह सन्तुलन बनाये रह सकते हैं जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय। आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ सहायक मानी जायेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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