रविवार, 2 अक्टूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 46)

🔵 बुद्ध तथा ऋषियों के काल तथा आधुनिक युग के मध्य आदर्शवाद और रोमांस का आकर्षण आज भी खड़ा है। पृथ्वी जैसी आज है उस समय भी वैसी ही थी। ग्रीष्म उष्ण तथा शीत ऋतु ठंडी थी। मनुष्य के हृदयों में वासनाएँ थीं। धन और दरिद्रता, स्वास्थ्य और रोग साथ साथ थे। जंगल, पहाड़, नदियाँ, नगर, बाजार, सभी थे और मृत्यु तब भी सभी जगह अकस्मात् व्यक्ति के प्राण हरण कर लेती थी जैसा कि वह आज भी करती हे। उन्हीं कठिनाइयों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता था। बुद्ध ने भी उसी संसार को देखा जिसे आज तुम देख रहे हो। अत: वही अनुभूति संभव है। स्वयं को कार्य में नियोजित कर दो। ठीक उसी मानवीय वातावरण में जैसा कि आज है स्वयं वेद भी नि:सृत हुये थे। वत्स! स्वयं को कार्य में नियोजित कर दो।

🔴 चेतन मन को हाथ में लेना होगा। यही वह उपकरण है, जो कि जब पूर्णतः तैयार हो जायेगा तब तुम उसके द्वारा अपनी अन्तश्चेतना की छिपी गहराइयों को खोज सकोगे और पुराने संस्कारों को भस्म कर सकोगे जो कि अभी यदा कदा भीतर की देहलीज से ऊपर दौड़ आते हैं। तथा इसी चेतन मन के द्वारा जब उनका आध्यात्मीकरण हो जाता हैं, सर्वोच्च चेतना (समाधि) की उपलब्धि की जा सकती है। मनुष्य ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ता है। चेतन मन के द्वारा जीता क्षेत्र ही ज्ञान है। इसके द्वारा विचारों के असीम क्षेत्र का अधिकाधिक उपलब्ध होता जाता है। इसका अन्त सर्वज्ञता है। वत्स, सच्चा ज्ञान भौतिक नहीं आध्यात्मिक होता है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति उद्घाटित होता है, वस्तु नहीं।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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