मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

👉 कौन थी शबरी

शबरी की कहानी रामायण के अरण्य काण्ड मैं आती है। वह भीलराज की अकेली पुत्री थी। जाति प्रथा के आधार पर वह एक निम्न जाति मैं पैदा हुई थी। विवाह मैं उनके होने वाले पति ने अनेक जानवरों को मारने के लिए मंगवाया। इससे दुखी होकर उन्होंने विवाह से इनकार कर दिया। फिर वह अपने पिता का घर त्यागकर जंगल मैं चली गई और वहाँ ऋषि मतंग के आश्रम मैं शरण ली। ऋषि मतंग ने उन्हें अपनी शिष्या स्वीकार कर लिया। इसका भारी विरोध हुआ। दूसरे ऋषि इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि किसी निम्न जाति की स्त्री को कोई ऋषि अपनी शिष्या बनाये। ऋषि मतंग ने इस विरोध की परवाह नहीं की।

ऋषि मतंग जब परम धाम को जाने लगे तब उन्होंने शबरी को उपदेश किया कि वह परमात्मा मैं अपना ध्यान और विश्वास बनाये रखें। उन्होंने कहा कि परमात्मा सबसे प्रेम करते हैं। उनके लिए कोई इंसान उच्च या निम्न जाति का नहीं है। उनके लिए सब समान हैं। फिर उन्होंने शबरी को बताया कि एक दिन प्रभु राम उनके द्वार पर आयेंगे।

ऋषि मतंग के स्वर्गवास के बाद शबरी ईश्वर भजन मैं लगी रही और प्रभु राम के आने की प्रतीक्षा करती रहीं। लोग उन्हें भला बुरा कहते, उनकी हँसी उड़ाते पर वह परवाह नहीं करती। उनकी आंखें बस प्रभु राम का ही रास्ता देखती रहतीं। और एक दिन प्रभु राम उनके दरवाजे पर आ गए।

शबरी धन्य हो गयीं। उनका ध्यान और विश्वास उनके इष्टदेव को उनके द्वार तक खींच लाया। भगवान् भक्त के वश मैं हैं यह उन्होंने साबित कर दिखाया। उन्होंने प्रभु राम को अपने झूठे फल खिलाये और दयामय प्रभु ने उन्हें स्वाद लेकर खाया। फ़िर वह प्रभु के आदेशानुसार प्रभुधाम को चली गयीं।

शबरी की कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? आइये इस पर विचार करें।
कोई जन्म से ऊंचा या नीचा नहीं होता। व्यक्ति के कर्म उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं। हम किस परिवार मैं जन्म लेंगे इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं हैं पर हम क्या कर्म करें इस पर हमारा पूरा अधिकार है। जिस काम पर हमारा कोई अधिकार ही नहीं हैं वह हमारी जाति का कारण कैसे हो सकता है। व्यक्ति की जाति उसके कर्म से ही तय होती है, ऐसा भगवान् ख़ुद कहते हैं।

कहे रघुपति सुन भामिनी बाता,
मानहु एक भगति कर नाता।

प्रभु राम ने शबरी को भामिनी कह कर संबोधित किया। भामिनी शब्द एक अत्यन्त आदरणीय नारी के लिए प्रयोग किया जाता है। प्रभु राम ने कहा की हे भामिनी सुनो मैं केवल प्रेम के रिश्ते को मानता हूँ। तुम कौन हो, तुम किस परिवार मैं पैदा हुईं, तुम्हारी जाति क्या है, यह सब मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। तुम्हारा मेरे प्रति प्रेम ही मुझे तम्हारे द्वार पर लेकर आया है।

👉 परिवर्तन जो होकर रहेगा

सर्वनाश से पूर्व ही मनुष्य संभल जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर इसके अगणित प्रमाण विद्यमान है। इस बार भी ऐसा ही होना है। अणुयुद्ध, प्रदूषण, प्रजनन, विस्फोट, पूँजी का एकत्रीकरण, अपराधों का अभिवर्धन, प्रमाद और विलास का विस्तार जैसी अनेकों समस्याऐं औद्योगिक क्रान्ति की देन है। इसे इस रूप में नहीं चलना है जैसे अब तक चलती रही है। कटु अनुभव को बार-बार दुहराते नहीं रहा जा सकता।

अगले दिनों महान परिवर्तन की प्रक्रिया प्रचण्ड होगी। उसे दैवी निर्धारण, साँस्कृतिक पुनरुत्थान, विचार क्रान्ति आदि भी कहा जा सकता है, पर वह होगी वस्तुतः समाजक्रान्ति ही। समाज, जन समुदाय को एक सूत्र में बाँधे रहने वाली व्यवस्था को कहते हैं। यह व्यवस्था बदलेगी तो प्रचलन और स्वभावों में समान रूप से एक साथ परिवर्तन प्रस्तुत होंगे।

व्यक्ति सादगी सीखेगा। सरल बनेगा और सन्तोषी रहेगा। श्रमशीलता गौरवास्पद बनेगी। हिल−मिलकर रहने की सहकारिता और मिल बाँटकर खाने की उदारता बदले हुए स्वभाव की विशेषता होगी। महत्त्वाकाँक्षाएँ उद्विग्न न करेंगी। उद्धत प्रदर्शन का अहंकार तब बड़प्पन का नहीं पिछड़ेपन का चिन्ह समझा जायेगा। विलासी और संग्रही भी अपराधियों की पंक्ति में खड़े किये जायेंगे और उन्हें सराहा नहीं दबाया जाएगा।  कुटिलता अपनाने की गुंजाइश जागृत एवं परिवर्तित समाज में रहेगी ही नहीं। छद्म आवरणों को उघाड़ने में ऐसा ही उत्साह उभरेगा जैसा कि इन दिनों विनोद मंचों के निमित्त पाया जाता है।

इन दिनों अधिक कमाने, अधिक उड़ाने और ठाट-बाट दिखाने की जिस दुष्प्रवृत्ति का बोलबाला है उसे भविष्य में अमान्य ही नहीं, हेय भी ठहरा दिया जायेगा। थोड़े में निर्वाह होने से कम समय में उपार्जन के साधन जुट जायेंगे। बचा हुआ समय तब आलस्य-प्रमाद में नहीं वरन् सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगा करेगा। सार्वजनिक सुव्यवस्था और मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले तब ऐसे अनेकानेक कार्य सामने होंगे जिनमें व्यस्त रहते हुए व्यक्ति हर घड़ी प्रसन्नता, प्रगति और सुसम्पन्नता का अनुभव करता रहें।

📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1984 पृष्ठ 59

👉 Watch Your Attitude

To most of us the hardships, adversities and challenges of life seem to be intractable like gigantic mountains, dreadful like wild giants, and frightening like impenetrable darkness. But this is all subject to how we take them. In reality nothing is so hard or to tackle; it is mostly our delusion that regards it so and suffers the pains and fears.

Just change your attitude and you will find hope, courage and enthusiasm in all circumstances. Don’t lose your morale that you failed in your repeated attempts. Don’t worry. There are many other avenues. Look at them. There is no dead-end to trying harder again with better preparation. Move ahead. You just have to try your level best in transacting your duties. Every sincere effort is a step towards the goal; if not today, tomorrow you will succeed. This is the law of Nature.

There is always certain consequence, some result of every action. Don’t feel helpless. Don’t count upon other’s support. No one really would have the capacity to help you if you can’t help yourself. Never blame anyone for anything wrong or harmful happening to you. Because no one can rule over you and make you suffer. You alone are the friend and the enemy of yourself. The circumstances around you are in fact your own creation. They are neither supportive nor obstructive in reality; this all depends upon your own attitude, how you accept and make use of them.

Refine your attitude, your thinking and your aspirations and let virtuous instincts awaken in yourself. It is the accumulation of the inscriptions of positive thinking and good actions over several lives that awaken devotion in the human self.

📖 Akhand Jyoti, March 1941

👉 ज्ञान

ज्ञान प्रकाश है, जबकि अज्ञान अँधियारा है। जीवन का पथ इस अज्ञान के अँधियारे से पूरी तरह आपूरित है। इस पर सफलतापूर्वक चलने के लिए ज्ञान के प्रकाश की जरूरत है। लेकिन याद रहे कि इस अँधियारे में औरों का प्रकाश काम नहीं आता, प्रकाश अपना ही हो तो भरोसेमन्द साथी है। जो किसी भी कारण दूसरों के प्रकाश पर भरोसा कर लेते हैं, वे हमेशा धोखा खाते हैं।
  
सूफियों में बाबा फरीद के कथा प्रसंग में एक कथा आती है, उन्होंने अपने शिष्य से कहा- ज्ञान को उपलब्ध करो। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है। यह सुनने पर वह शिष्य नम्र भाव से बोला; बाबा, रोगी तो हमेशा वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र का ज्ञान अर्जित करने के फेर में नहीं पड़ता। आप मेरे मार्गदर्शक हैं, गुरु हैं। यह मैं जानता हूँ कि आप मेरा उद्धार करेंगे। तब फिर स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता है।
  
यह सुनकर बाबा फरीद ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक एक कथा सुनायी। वह बोले, एक गाँव में एक वृद्ध रहता था। वह अंधा हो गया, तो उसके बेटों ने उसकी आँखों की चिकित्सा करवानी चाही। लेकिन वृद्ध ने अस्वीकार कर दिया। वह बोला; भला मुझे आँखों की क्या जरूरत है। तुम आठ मेरे पुत्र हो, आठ पुत्र वधुएँ हैं, तुम्हारी माँ है। ऐसे चौंतीस आँखें तो मुझे मिली हैं। मेरी दो नहीं हुई तो क्या हुआ? पिता ने पुत्रों की बात न मानी। स्थिति जस की तस बनी रही। कुछ दिनों के बाद अचानक एक रात घर में आग लग गयी। सभी अपनी जान बचाने के लिए भागे, वृद्ध की याद किसी को न रही। वह उस आग में भस्म हो गया।
  
यह कथा सुनाने के बाद शेख फरीद ने अपने शिष्य से कहा, बेटा! अज्ञान का आग्रह मत करो। ज्ञान स्वयं की आँखें हैं। इसका कोई विकल्प नहीं है। सत्य न तो शास्त्रों से मिलता है, न शास्ताओं से। इसे तो स्वयं से ही पाना होता है। स्वयं का ज्ञान ही असहाय मनुष्य का एक मात्र सहारा है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१२

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