बुधवार, 9 जून 2021

👉 समय का सदुपयोग

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा-तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

शिक्षा:-
जो व्यक्ति काम को टालता रहता है, समय का सदुपयोग नहीं करता और केवल भाग्य भरोसे रहता है वह हमेशा दुःखी रहता है।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३०)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

तत्वदर्शी ऋषियों ने अनन्त सुख-शान्ति की ओर अंगुलि निर्देश करते हुए कहा है—अन्वेषक प्रकाश को भीतर की ओर मोड़ दो।’ कालाईइल प्रभृति पाश्चात्य दार्शनिक भी यही कहते रहे हैं—‘टर्न द सर्च लाइट इन वार्डस्’।

वस्तुओं और व्यक्तियों में कोई आकर्षण नहीं है। अपनी आत्मीयता जिस किसी से भी जुड़ जाती है वही प्रिय लगने लगता है यह तथ्य कितनी स्पष्ट किन्तु कितना गुप्त है, लोग अमुक व्यक्ति या अमुक वस्तु को रुचिर मधुर मानते हैं और उसे पाने, लिपटाने के लिए आकुल-व्याकुल रहते हैं। प्राप्त होने पर वह आकुलता जैसे ही घटती है वैसे ही वह आकर्षण तिरोहित हो जाता है। किसी कारण यदि ममत्व हट या घट जाय तो वही वस्तु जो कल तक अत्यधिक प्रिय प्रतीत होती थी और जिसके बिना सब कुछ नीरस लगता था। बेकार और निकम्मी लगने लगेगी। वस्तु या व्यक्ति वही—किन्तु प्रियता में आश्चर्यजनक परिवर्तन बहुधा होता रहता है। इसका कारण एक मात्र यही है कि उधर से ममता का आकर्षण कम हो गया।

यह तथ्य यदि समझ लिया जाय तो ममता का आरोपण करके किसी भी वस्तु या व्यक्ति को कितने ही समय तक प्रिय पात्र बनाये रखा जा सकता है। यदि यह आरोपण क्षेत्र बड़ा बनाते चलें तो अपने प्रिय पात्रों की मात्रा एवं संख्या आश्चर्यजनक रीति से बढ़ती चली जायगी और जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही रुचिर मधुर बिखरा पड़ा दिखाई देगा और जीवन क्रम में आशाजनक आनन्द, उल्लास भर जायेगा। आत्मविद्या के इस रहस्य को जानकर भी लोक अनजान बने रहते हैं। आनन्द की खोज में—प्रिय पात्रों के पीछे मारे-मारे फिरते हैं। यदि इस माया मरीचिका को छोड़ दिया जाय, जिसे प्रिय पात्र बनाना हो उसी पर ममता बखेर दी जाय तो केवल वही व्यक्ति प्रियपात्र रह जायेंगे जिनकी घनिष्ठता, समीपता, मित्रता, वस्तुतः हितकर है।

बिछुड़ने, एवं खोने पर प्रायः दुख होता है। यदि समझ लिया जाय कि मिलन की तरह वियोग—जन्म की तरह मृत्यु भी अवश्यंभावी है तो उसके लिए पहले से ही तैयार रहा जा सकता है। सांस लेते समय भी यह विदित रहता है कि उसे कुछ ही क्षण पश्चात् छोड़ना पड़ेगा इसलिए श्वास-प्रश्वास की दोनों क्रियाएं समान प्रतीत होती हैं। न एक में दुख होता न दूसरी में सुख। एक का मरण दूसरे का जन्म है। मृत्यु के रुदन के साथ ही किसी घर का जन्मोत्सव बंधा हुआ है। व्यापार में एक को नफा तब होता है जब दूसरे को घाटा पड़ता है। धूप-छांह की तरह—दिन-रात की तरह—सर्दी-गर्मी की तरह यदि मिलन विछोह और हानि-लाभ कोपरस्पर एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से मानकर चला जाय तो राग-द्वेष एवं हानि लाभ के सामान्य सृष्टि क्रम में न कुछ प्रिय लगे न अप्रिय। हमारा अज्ञान ही है जो अकारण हर्षोन्मत्त एवं शोक संतप्त आवेश के ज्वार भाटे में उछलता भटकता रहता है। यदि मायाबद्ध अशुभ चिन्तन से छुटकारा मिल जाय और सृष्टि के अनवरत जन्म, वृद्धि, विनाश के अनिवार्य क्रम को समझ लिया जाय तो मनुष्य शान्त, सन्तुलित, स्थिर, सन्तुष्ट एवं सुखी रह सकता है। ऐसी देवोपम मनोभूमि पल-पल में स्वर्गीय जीवन की सुखद संवेदनाएं सम्मुख प्रस्तुत किये रह सकता है। चिन्तन में समाया हुआ माया विकार ही है जो समुद्र तट पर बैठे अज्ञानी बालक के, ज्वार से प्रसन्न और भाटा से अप्रसन्न होने की तरह हमें उद्विग्न बनाये रहता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ४८
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३०)

भक्त के लिए अनिवार्य हैं मर्यादाएँ और संयम
    
इस समझदारी की बात को सभी समझदारों ने समझा। महर्षि अंगिरा जो अग्नि की भांति तेजस्वी एवं प्रखर थे, वे कहने लगे- ‘‘इस प्रसंग में ब्राह्मण भूरिश्रवा की कथा याद आ रही है। यदि आप सब अनुमति दें तो मैं सुनाऊँ।’’ ‘‘अवश्य!’’ महर्षि विश्वामित्र ने कहा। इसी के साथ सभी जनों के अनुमोदन एवं अनुमति की स्वर तरंग वातावरण में बिखर गयी, और इसी के साथ महर्षि अंगिरा बोले- ‘‘भूरिश्रवा अंग देश का रहने वाला था। उसका बचपन, कैशोर्य ऋषियों के आश्रम में गुजरा था। सन्ध्या, गायत्री, अग्निहोत्र उसके नित्य कर्म थे। गुरुकुल में उसने वेदों को पढ़ा था। महर्षि ऋचीक उसके आचार्य थे। महर्षि ऋचीक को उस युग का श्रेष्ठतम तत्त्वज्ञानी आचार्य माना जाता था। परन्तु परम ज्ञानी होने के साथ ब्रह्मर्षि ऋचीक का अन्तःहृदय भवानी की भक्ति से भरा था। उन्होंने अपने शिष्य को भी उस भक्तिमंत्र से दीक्षित किया परन्तु साथ ही अपने प्रिय शिष्य को चेताया भी- वत्स! हमेशा तप निरत रहना। उन्होंने कहा- वत्स! यह आध्यात्मिक जीवन का परम रहस्य है, तप अपनी डगर पर चलने वाले तपस्वी की सदा रक्षा करता है। आपदाएँ आन्तरिक एवं बाहरी, अपनी बीज अवस्था में तप में जल-भुन जाती हैंै। भटकाव के कारण प्रवृत्तियों में हों या परिस्थितियों में, तपस्वी के सामने कभी टिक नहीं पाते।
    
यही वह अन्तिम उपदेश था। इस उपदेश के साथ ही भूरिश्रवा ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। उसकी धर्मपत्नी शुचिता सचमुच ही जगदम्बा का अंश थी। शील-सदाचार उसमें कूट-कूट कर भरे थे। वह अपने तपोनिरत पति के साथ प्रसन्न थी। परन्तु दैव का योग कहें या कुयोग, भूरिश्रवा कुसंग के फेरे में पड़ गए। उन्हें ऐसे मित्र मिल गए जो व्यसन में डूबे थे। इनके संग ने भूरिश्रवा को भी कुराह पर डाल दिया। उनके द्वारा की जाने वाली सन्ध्या, गायत्री एवं अग्निहोत्र सब छूटते गए। स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि अब तो उन्हें उदयकालीन सूर्य को अर्घ्यदान देना भी याद नहीं रहने लगा।
    
विदुषी पत्नी ने उन्हें महर्षि ऋचीक के कथन की याद दिलायी। उन्हें फिर से तपस्या के मार्ग पर लौट आने को कहा। कई बार हठपूर्वक, आग्रहपूर्वक उनसे सब नियम प्रारम्भ करवाए। परन्तु एक-दो सप्ताह में ही सब क्रम लड़खड़ा जाते। बात बन न सकी। उल्टे कुसंग के कुचक्र में फंसे भूरिश्रवा नगर की वारांगना  मंगला के पास जाने लगे। इस नए चक्रव्यूह में फँसकर घर का धन भी नष्ट हो गया। धन का नाश होते ही मंगला ने उन्हें अपने द्वार से तिरस्कृत करके भगा दिया। इतने दिनों में ब्राह्मण भूरिश्रवा अपनी गृहस्थी, धन, स्वास्थ्य, तेज सब कुछ गंवा चुके थे।

अब तो उनके पास अपने गुरुकुल की यादें भर शेष थीं। बस यदा-कदा अपने गुरुदेव महर्षि ऋचीक का स्मरण कर सिसक लेते। उनके इस भावपूर्ण सद्गुरु स्मरण ने तत्त्वदर्शी महर्षि ऋचीक की भावनाओं को छू लिया। वह अनायास ही एक दिन ब्राह्मण भूरिश्रवा के द्वार पर पहुँच गए। तेजहत भूरिश्रवा ने अपनी पत्नी शुचिता के साथ उनका स्वागत किया। भूरिश्रवा को अपने ऊपर लज्जा आ रही थी, कि परम तपस्वी-तेजस्वी गुरु का ऐसा भ्रष्ट शिष्य। परन्तु महर्षि तो अभी भी अपने अभागे शिष्य पर कृपालु थे।
    
उन्होंने कहा- वत्स! डरो मत, अभी भी चेत जाओ। तुम्हारे साथ जो भी हुआ वह सब तप एवं मर्यादा की अवहेलना का परिणाम है। परेशान न हो। जगदम्बा परम कृपालु हैं, वे अपनी भटकी एवं बहकी सन्तानों को भी प्यार करना जानती हैं। फिर उन्होंने भूरिश्रवा की पत्नी शुचिता की ओर देखा और उससे कहा, पुत्री मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे गर्भ में माता का अंश है। गर्भकाल पूरा होने पर तुम पुत्री को जन्म दोगी। उसका नाम भवानी रखना। उसे माता का अंश व स्वरूप समझना। फिर भूरिश्रवा की ओर देखते हुए बोले- वत्स! माँ का नाम, उनकी भक्ति ही तुम्हारा कल्याण करेगी। फिर से एक बार अपनी श्रद्धा को समेटो और इस सत्य पर आस्था जमाओ कि मर्यादाएँ एवं संयम भक्त के लिए अनिवार्य हैं।
    
इस नूतन उपदेश के साथ परम ज्ञानी ऋचीक तो विदा हो गए। परन्तु भूरिश्रवा को सम्पूर्ण रूप से चेत आ गया। उसने सद्गुरु के वचनों का अक्षरशः पालन किया। बिखरी भावनाएँ फिर सिमटीं, माँ के नाम के प्रभाव से कलुष भी धुला। भक्ति पुनः प्रगाढ़ हुई। आन्तरिक सौन्दर्य पुनः संवारा और बाहर उसकी प्रतिच्छाया निखरी। भक्ति में मर्यादाओं के समावेश ने भूरिश्रवा के जीवन को पुनः रूपान्तरित कर दिया।’’ अपनी इस कथा को समाप्त करते हुए मह्मर्षि अंगिरा ने कहा- ‘‘मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि भक्त को तो विशेष रूप से मर्यादाओं को मानना चाहिए एवं उनका पालन करना चाहिए।’’ उनके इस कथन में देवर्षि ने अपना एक वाक्य जोड़ा, ‘‘क्योंकि इससे लोक शिक्षण भी होता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ५९

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