बुधवार, 4 मई 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 42) :- एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

🔴  बुद्ध ने यही किया, महावीर ने यही किया, रमण महर्षी एवं परमयोगी श्री अरविन्द ने यही किया। प्रत्येक साधक यही करता है। हर एक शिष्य को यही करना है। इस अवस्था के ज्ञान के अक्षय कोष शिष्य के लिए खुल जाते हैं। श्री सद्गुरु उसे दक्षिणामूर्ति शिव के रूप में दर्शन देते हैं। सच में बड़ी आश्चर्य मिश्रित श्रद्धा और भक्ति के अलौकिक प्रवाह का उदय होता है उस समय। ये अपने परम पू. गुरुदेव ही दक्षिणामूर्ति शिव हैं। यह अनुभूति ऐसी है जिसे अनुभवी ही जान सकते हैं। इसे ठीक- ठीक न तो कहा जा सकता है और न ठीक तरह से सुना जा सकता है। जो जानता है उसके लिए बोलना सम्भव नहीं है। और यदि वह बोले भी तो सुनने वाले लिए ठीक तरह से समझना सम्भव नहीं है।

🔵  गुरुदेव तो सदा से अपना खजाना लुटाने के लिए तैयार खड़े हैं, लेकिन शिष्य में पाने के लिए पात्रता इसी अवस्था में आती है। गुरुदेव के अनुदानों के रूप में शिष्य अपनी साधना की फसल काटता है। शिष्य को उसकी फसल सौंपते हुए गुरुदेव उससे कहते हैं कि अब तुम इसको बो डालो। एक बीज भी बेकार न जाने पाये। तुम बुद्ध पुरुषों की परम्परा को आगे बढ़ाओ। तुम जाग्रत हो गये अब औरों को जगाओ। सबने यही कही किया है- मैंने भी और मेरे गुरुदेव ने भी। तुम्हें भी अपने गुरुओं के योग्य शिष्य के रूप में यही करना है। ज्ञान की गंगा थमने न पाये- उठो पुत्र! आगे बढ़ो! इस आज्ञा का अनुपालन ही शिष्य का धर्म है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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