बुधवार, 18 जनवरी 2023

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 18 jan 2023


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👉 मुक्ति के लिए प्रयत्न

कुछ लोग धनी बनने की वासना रूपी अग्नि में अपनी समस्त शक्ति, समय, बुद्धि, शरीर यहाँ तक कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं। यह तुमने भी देखा होगा। उन्हें खाने-पीने तक की भी फुरसत नहीं मिलती। प्रातःकाल पक्षी चहकते और मुक्त जीवन का आनन्द लेते हैं तब वे काम में लग जाते हैं। इसी प्रकार उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग काल के कराल गाल में प्रविष्ट हो जाते हैं। शेष को पैसा मिलता है पर वे उसका उपभोग नहीं कर पाते। कैसी विलक्षणता। धनवान् बनने के लिए प्रयत्न करना बुरा नहीं। इससे ज्ञात होता है कि हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा सकते हैं, जितना एक व्यक्ति धनोपार्जन के लिये।

मरने के बाद हमें सभी कुछ छोड़ जाना पड़ेगा, तिस पर भी देखो हम इनके लिए कितनी शक्ति व्यय कर देते हैं। अतः उन्हीं व्यक्तियों को, उस वस्तु की प्राप्ति के लिये जिसका कभी नाश नहीं होता, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है, क्या सहस्त्रगुनी अधिक शक्ति नहीं लगानी चाहिए? क्योंकि हमारे अपने शुभ कर्म, अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ- यही सब हमारे साथी हैं, जो हमारी देह नाश के बाद भी साथ जाते हैं। शेष सब कुछ तो यही पड़ा रह जाता है।

यह आत्म-बोध ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। जब उस अवस्था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव- देव-मानव बन जाता है और तब हम जन्म और मृत्यु की इस घाटी से उस ‘एक’ की ओर प्रयाण करते हैं जहाँ जन्म और मृत्यु- किसी का आस्तित्व नहीं है। तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं।

~ स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति 1968 जून पृष्ठ 1

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👉 आत्म-त्याग ही सर्वोच्च धर्म

जीवन का एक लक्ष्य है ज्ञान और द्वितीय सुख। ज्ञान और सुख के समन्वय का ही नाम मुक्ति है। आत्म-चिन्तन के द्वारा माया बन्धनों और साँसारिक अज्ञान को काट लेते हैं और विषय वस्यता से छूट जाते हैं तो हम मुक्त हो जाते हैं किन्तु ऐसी मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती, जब तक सृष्टि के शेष प्राणी बन्धन में पड़े हैं।

जब तुम किसी को क्षति पहुँचाते हो तो तुम अपने आपको क्षति पहुँचाते हो। तुम में और तुम्हारे भाई में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह छोटे-छोटे अवयवों से मिलकर शरीर बना है, उसी प्रकार छोटे-छोटे प्राणियों से मिलकर संसार बना है। कान को दुःख होता है तो आँख रोती है, उसी तरह समाज के किसी भी व्यक्ति का दुःख तुम्हारे पास पहुँचता है, इसलिये केवल अपने सुख से मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।

इस कसौटी पर जब लोगों को अपने लिये बढ़-चढ़कर अधिकार माँगते देखता हूँ तो ऐसे आदमी से मुझे बड़ी घृणा होती है। अधिकार व्यक्ति को स्वार्थी और संकीर्ण बनाते हैं। विश्व में जो कुछ अशुभ है, उसका उत्तरदायित्व प्रत्येक व्यक्ति पर है। अपने भाई से अपने को कोई पृथक् नहीं कर सकता। सब अनन्त के अंश हैं। सब एक दूसरे के रक्षक और सहयोगी हैं। वास्तव में वही सच्चा योगी है जो अपने में संपूर्ण विश्व को और सम्पूर्ण विश्व में अपने को देखता है। अपने लिये अधिकारों की माँग करना पुण्य नहीं है, पुण्य तो यह है कि हम छोटे-से-छोटे जीव के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकते हैं या नहीं। इसके लिये अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं। इस लोक में यही सबसे बड़ा पुण्य है। आत्म-त्याग ही इस संसार का सर्वोच्च धर्म है।

~ स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति 1968 अगस्त पृष्ठ 1
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