विचार से भी परे
आत्मा चिंगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त सम्भावनाएं चिनगारी में विद्यमान हैं। अवसर मिले तो वह सहज ही अपना प्रचण्ड रूप धारण करके लघु से महान् बन सकता है। बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं। अवसर न मिले तो बीज चिरकाल तक उसी क्षुद्र स्थिति में पड़ा रह सकता है, किन्तु यदि परिस्थिति बन जाय तो वही बीज विशाल वृक्ष के रूप में विकसित हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। छोटे से शुक्राणु में एक पूर्ण मनुष्य अपने साथ अगणित वंश परम्पराएं और विशेषताएं छिपाये रहता है। अवसर न मिले तो वह उसी स्थिति में बना रह सकता है किन्तु यदि उसे गर्भ के रूप में विकसित होने की परिस्थिति मिल जाय तो एक समर्थ मनुष्य का रूप धारण करने में उसे कोई कठिनाई न होगी। अणु की संरचना सौर-मण्डल के समतुल्य है। अन्तर मात्र आकार विस्तार का है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाये जाते हैं। सोने के बड़े और छोटे कण में विस्तार भर का अन्तर है तात्विक विश्लेषण में उनके बीच कोई भेद नहीं किया जा सकता।
उपासना और साधना के छैनी हथौड़े से जीव के अनगढ़ रूप को कलात्मक देव प्रतिमा के रूप में परिणत किया जाता है। अध्यात्म शब्द का तात्पर्य ही आत्मा का दर्शन एवं विज्ञान है। इस सन्दर्भ के सारे क्रिया-कलापों का निर्माण निर्धारण मात्र एक ही प्रयोजन के लिये किया गया है कि व्यक्तित्व को—चेतना की उच्चतम—परिष्कृत—सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुंचा दिया जाय। इस लक्ष्य की उपलब्धि का नाम ही ईश्वर प्राप्ति है। आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन इन दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा में परमात्मा की झांकी अथवा परमात्मा में आत्मा की सत्ता का विस्तार। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसकी पूर्ति के लिए या तो ईश्वर को मनुष्य स्तर का बनना पड़ेगा या मनुष्य को ईश्वर तुल्य बनने का प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
अध्यात्म क्षेत्र की भ्रान्तियां भी कम नहीं है। बाल-बुद्धि के लोग आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों को काटने के लिये जो संघर्ष करना पड़ता है उस झंझट से कतराते हैं और सस्ती पगडण्डी ढूंढ़ते हैं। वे सोचते हैं पूजा-पत्री के सस्ते क्रिया-कृत्यों से ईश्वर को लुभाया, फुसलाया जा सकता है और उसे मनुष्य स्तर का बनने के लिये सहमत किया जा सकता है वे सोचते हैं हम जिस घटिया स्तर पर है उसी पर बने रहेंगे। प्रस्तुत दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में कोई हेर-फेर न करना पड़ेगा। ‘ईश्वर को अनुकूल बनाने के लिए इतना ही काफी है कि पण्डितों की बताई पूजा-पत्री का उपचार पूरा कर दिया जाय। इसके बाद ईश्वर मनुष्य का आज्ञानुवर्ती बन जाता है और उचित अनुचित जो भी मनोकामनाएं की जायं उन्हें पूरी करने के लिए तत्पर खड़ा रहता है। आमतौर से उपासना क्षेत्र में यही भ्रान्ति सिर से पैर तक छाई हुई है।’’ मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-पत्री का सिद्धान्त तथाकथित भक्तजनों के मन में गहराई तक घुसा बैठा है। वे उपासना की सार्थकता तभी मानते हैं जब उनके मनोरथ पूरे होते चलें। इसमें कमी पड़े तो वे देवता मन्त्र, पूजा, सभी को भरपेट गालियां देते देखे जाते हैं। कैसी विचित्र विडम्बना है कि छोटा सा गन्दा नाला गंगा को अपने चंगुल में जकड़े और यह हिम्मत न जुटाये कि अपने को समर्पित करके गंगाजल कहलाये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी