गुरुवार, 16 अगस्त 2018

👉 दुष्टों से प्रेम, दुष्टता से युद्ध

🔷 बीमारी और बीमार एक ही वस्तु नहीं हैं। यदि डॉक्टर बीमारी के साथ बीमार को भी मार डाले, तो उसकी बुद्धि को क्या कहें?

🔶 आप दुष्टता और दुष्ट के बीच अंतर करना सीखिए। कोई भी प्राणी नीच, पतित या पापी नहीं है, तत्वतः वह पवित्र ही है। भर्म, अज्ञान और बीमारी के कारण वह कुछ का कुछ समझने लगता है। इस बुद्धिभ्रम का ही इलाज करना है। बीमारी को मारना है, बीमार को बचाना है।

🔷 आप तो दुष्टता से लड़ने को तैयार रहिए, फिर वह चाहे दूसरों में हो या अपने अंदर। आप पापी व्यक्तियों को निष्पाप करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद चारों उपाय कीजिए, पर उन पापियों से किसी प्रकार का निजी राग-द्वेष मत रखिए।

👉 Affection with the wicked, Struggle with the wickedness

🔷 Sick and sickness are two different things. What to say about the doctor who kills the patient along with the ailment!

🔶 Try to distinguish between the wicked and the wickedness. Not even a single creature is mean, fallen and sinner, he is sacred at the core. Misinterpretation, ignorance and illusion make him understand things wrongfully. We've to kill this ill-mindedness and save that ill person.

🔷 Be ready to battle with the wickedness, whether it is inside others or in ourselves. Do use all the possible ways to curb the wickedness and make the sinners sacred, but never rear any kind of personal jealousy or hatred for them.

👉 तोड़ो नहीं जोड़ो

🔶 मगध राज्य में एक सोनापुर नाम का गाँव था। उस गाँव के लोग शाम होते ही अपने घरों में आ जाते थे। और सुबह होने से पहले कोई कोई भी घर के बाहर कदम भी नहीं रखता था। इसका कारण डाकू अंगुलीमाल था। अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा डाकू था। वह लोगो को मारकर उनकी उँगलियाँ काट लेता था और फिर उनकी माला बना`कर उसे गले में पहनता था। इसलिए लोगो ने उसका नाम यही रख दिया। लोगो को लूट लेना और उनकी जान ले लेना उसके और उसके आदमियों का बाएं हाथ का खेल था। लोग उस से डरते थे और उसका नाम लेने से लोगो को प्राण सूख जाते थे।

🔷 एक बार भगवान् बुद्ध उधर से होकर निकले उपदेश देते हुए वो लोगो के पास पहुंचे तो उन्हें लोगो ने कहा आप यंहा से चले जाएँ क्योंकि आप यंहा सुरक्षित नहीं है यंहा एक डाकू है जो किसी के आगे नहीं झुकता तो इस पर भी भगवान् बुद्ध ने अपना इरादा नहीं बदला और वो बेफिक्री से इधर उधर घूमने लगे। डाकू को इसका पता चला तो वो झुंझलाकर उनके पास आया।

🔶 बुद्ध को आते देख अंगुलिमाल हाथों में तलवार लेकर खड़ा हो गया, पर बुद्ध उसकी गुफा के सामने से निकल गए उन्होंने पलटकर भी नहीं देखा। अंगुलिमाल उनके पीछे दौड़ा, पर दिव्य प्रभाव के कारण वो बुद्ध को  पकड़ नहीं पा रहा था।

🔷 थक हार कर उसने कहा- “रुको” बुद्ध रुक गए और मुस्कुराकर बोले- मैं तो कब का रुक गया पर तुम कब ये हिंसा रोकोगे।

🔶 अंगुलिमाल ने कहा- सन्यासी तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता। सारा मगध मुझसे डरता है। तुम्हारे पास जो भी माल है निकाल दो वरना, जान से हाथ धो बैठोगे। मैं इस राज्य का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हूँ।

🔷 बुद्ध जरा भी नहीं घबराये और बोले- मैं ये कैसे मान लूँ कि तुम ही इस राज्य के सबसे शक्तिशाली इन्सान हो। तुम्हे ये साबित करके दिखाना होगा।

🔶 अंगुलिमाल बोला बताओ- “कैसे साबित करना होगा?”।

🔷 बुद्ध ने उस से कहा क्यों भाई सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड लाओगे। उसके लिए यह काम कोन सा मुश्किल था वह भाग कर गया और चार पत्ते तोड़ लाया तो बुद्ध ने उस से कहा कि क्या अब तुम इन्हें जहाँ से तोड़ कर लाये हो क्या उसी जगह इन्हें वापिस लगा सकते हो इस पर डाकू ने कहा यह तो संभव ही नहीं है।

🔶 तो बुद्ध बोले – जब तुम इतनी छोटी सी चीज़ को वापस नहीं जोड़ सकते तो तुम सबसे शक्तिशाली कैसे हुए ?

🔷 बुद्ध ने कहा ” भैया जब जानते हो कि टूटा हुआ जुड़ता नहीं है तो फिर तोड़ने का काम ही क्यों करते हो, यदि तुम किसी चीज़ को जोड़ नहीं सकते तो कम से कम उसे तोड़ो मत, यदि किसी को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मृत्यु देने का भी तुम्हे कोई अधिकार नहीं है।

🔶 बुद्ध की ये बात सुनते ही उसकी बोध हो गया और वह ये गलत धंधा छोड़ कर बुद्ध की शरण में आ गया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 August 2018


👉 आज का सद्चिंतन 16 August 2018


👉 The Art of Sadhana

🔷 The essence of sadhana is self-discipline. The deities we worship are in fact the symbolic representatives of our own covert indwelling divine attributes. So long as these attributes are dormant, we live in a miserable state, but when the divine nature is awakened and activated, we realize that we are repositories of supernormal energies (riddhi and siddhi). The sole aim of sadhana is to activate these dormant attributes through a focused and dedicated process of self-refinement and self-transcendence.

🔶 A farmer understands the significance of sadhana. While tending his crops, he remains thoroughly involved in farming day in and day out throughout the year. In this process, he is least concerned about his health or the severity of weather. He takes care of the fields like he would of his own body. He keeps an eye over each and every plant. According to the needs of the crop, he nurtures it with manure and performs several operations such as tilling, irrigating, weeding and the harrowing of the field, and finally harvesting.

🔷 The wisdom for the preservation and maintenance of the fields, the bullocks, ploughs and the ancillary equipments comes to him intuitively from within. He does all this without feeling tired or bored, or showing any haste. He does not insist on the immediate reward for his labour because he knows that the crop takes a specific period of time to ripen and so he has to wait patiently till then. He remains free from the anxiety of filling his cellar with the produce. He also understands the futility of anticipating a plentiful yield. His sadhana of farming continues single-mindedly. He does encounter obstacles but he overcomes them with his own expertise and with the help of available resources. He refuses to relax without fulfilling the needs of the field. When the crop ripens and is harvested, he takes home the produce with a sense of gratitude to Nature.

🔶 This is sadhana of a farmer which he continues to perform from his childhood till death with unwavering faith. There is no rest, no fatigue, no boredom and no indifference. A sadhaka (devotee) should learn the art of sadhana from the farmer.

📖 Akhand Jyoti, Jan Feb 2003

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 28)

👉 प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं

🔷 साधारणतया इस विद्युत प्रवाह का एक बहुत छोटा अंश ही काम आता है। उतना, जिससे हलकी-फुलकी दिनचर्या चलती रहे। आजीविका उपार्जन, उसके परिपालन, निद्रा-जागृति तथा छिटपुट काम ही इसके द्वारा संपन्न हो पाते हैं। क्रियाशील उतना ही अंश रहता है जो काम में आता रहता है। उथली साँस लेने वालों के फेफड़ों का थोड़ा ही अंश काम में आता रहता है। फलतः शेष अंश निर्बल-दुर्बल बना, किसी प्रकार अपना अस्तित्व भर बनाए रहता है।

🔶 आरामतलब लोगों के शरीर का अधिकांश भाग निष्क्रिय पड़ा रहता है और उस दुर्बलता का लाभ उठाकर वहाँ कई प्रकार के रोगविषाणु जड़ जमा लेते हैं। वे काया को जीर्ण बनाकर गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं। यही बात मस्तिष्क के बारे में भी होती है। मनुष्य की इच्छा-आकांक्षाएँ सीमित होती हैं। वह उन्हीं को पूरी करने के लिए कल्पना-जल्पना करता रहता है। मन और बुद्धि का एक छोटा अंश ही इस प्रयोजन के लिए खपता है। जिन क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाता, वे प्रसुप्त स्थिति में चली जाती हैं और लगभग मूर्च्छित स्थिति में किसी कोने में छिपी पड़ी रहती हैं।
  
🔷 मानवी विद्युत भंडार की असीमितता, उपयोगिता और उसकी महती क्षमता का यदि विज्ञानसम्मत आकलन किया जा सके, तो प्रतीत होगा कि वह इतनी अधिक है कि जिसके सहारे अपना और दूसरों का इतना हितसाधन हो सकता है, जितना कि कभी-कभी मनुष्यकृत ऐतिहासिक चमत्कारों के विवरणों में पढ़कर हतप्रभ हो जाना पड़ता है। प्रचलित भाषा में इन्हें दैवी वरदानों के नाम से पुकारा जाता है, ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार कहा जाता है अथवा दिव्य विभूतियों के नाम से उनकी चर्चा होती रहती है। ऐसे संदर्भ भी प्राय: सही ही होते हैं, अतः मानना पड़ता है कि मनुष्य वस्तुतः असीम शक्तियों का भंडार है। इसी बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वह तप के बल पर देवताओं से उच्चस्तरीय विभूति-वरदान उपलब्ध कर सकता है, किंतु वास्तविकता इतनी ही है कि जो कुछ उभरता है, भीतर से ही उफनकर ऊपर आया हुआ होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 37

👉 अहंकार का तो उन्मूलन ही किया जाय (भाग 4)

🔷 जिस साधक में तमोगुण की प्रधानता रहती है उसे अन्य प्रकार की विपत्तियों में फँसना पड़ता है। सबसे पहले साधक के हृदय में ऐसा विचार उठता है कि - “मैं दुर्बल, पापी, घृणित, अज्ञानी, अकर्मण्य हूँ। मैं जिस किसी को देखता हूँ वह सभी मुझ से ऊँचे जान पड़ते हैं। मैं सबसे नीच हूँ। भगवान को हमारे जैसों की आवश्यकता नहीं भगवान मुझे शरण में लेकर क्या करेंगे” आदि आदि। पर कुछ साधन भजन करने से उसे कुछ शांति मिल गई तो वह सोचने लगता है- “चलो सारा झंझट मिट गया, मुझे शांति तो प्राप्त हो गई, अब इससे ज्यादा क्या करना है।” इस प्रकार विचार करके वह सब तरह के कर्मों से मुँह मोड़ कर आनन्द करना ही अपना लक्ष्य बना लेता है।

🔶 ऐसे साधक को यह समझना चाहिये कि वह भी परब्रह्म का अंश है और आदि शक्ति ही उसके हृदय में अवस्थान करके समस्त कार्यों का संचालन करती है। सर्वशक्तिमान भगवान की लीला तरह-तरह की होती है। किसी एक लीला को ही सब कुछ समझकर उदासीन होकर बैठ जाना साधक के लिये प्रशंसनीय नहीं है। उसे भगवान के इस वचन पर ध्यान देना चाहिये-

🔷 न मे पार्थोऽस्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एं च कर्मणि॥

🔶 अर्थात्- “मुझे इस संसार में कोई वस्तु या कार्य अप्राप्त नहीं है तो भी मैं सदा काम में लगा रहता हूँ।” क्योंकि साधारण लोगों को उचित मार्ग दिखलाने के लिये वैसा करना परमावश्यक है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 महायोगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति, जून 1961 पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/June/v1.10

👉 उद्देश्य पूर्ति में सहायक बनें

🔷 आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना भी धर्म है। फिर जिसने कोई कुटुंब बनाया हो उस कुलपति का उत्तरदायित्व तो और भी अधिक है। गायत्री परिवार के परिजनों की भौतिक एवं आत्मिक कठिनाइयों के समाधान में हम अपनी तुच्छ सामर्थ्य का पूरा-पूरा उपयोग करते रहे। कहने वालों का कहना है कि इससे लाखों व्यक्तियों को असाधारण लाभ पहुँचा होगा। पहुँचा होगा—पर हमें उससे कुछ अधिक संतोष नहीं हुआ।

🔶 हम चाहते थे कि वह माला जपने वाले लोग—हमारे शरीर से नहीं विचारों से प्रेम करें, स्वाध्यायशील बनें, मनन चिंतन करें, अपने भावनात्मक स्तर को ऊँचा उठावें और उत्कृष्ट मानव निर्माण करके भारतीय समाज को देव समाज के रूप में परिणत करने के हमारे उद्देश्य को पूरा करें। पर वैसा न हो सका। अधिकांश लोग चमत्कारवादी निकले। वे न तो आत्म निर्माण पर विश्वास कर सके और न लोक निर्माण में। आध्यात्मिक व्यक्तियों का जो उत्तरदायित्व होता है उसे अनुभव न कर सके।

🔷 हम हर परिजन से बार-बार, हर बार अपना प्रयोजन कहते रहे, पर उसे बहुत कम लोगों ने सुना, समझा। मंत्र का जादू देखने के लिए वे लालायित रहे, हम उनमें से काम के आदमी देखते रहे। इस खींचतान को बहुत दिन देख लिया तो हमें निराशा भी उपजी और झल्लाहट भी हुई। मनोकामना पूर्ण करने का जंजाल अपने या गायत्री माता के गले बाँधना हमारा उद्देश्य कदापि न था। उपासना की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था अपनाकर आत्मोन्नति के पथ पर क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ते चले जाना यही हमें अपने स्वजन परिजनों से आशा थी, पर वे उस कठिन दीखने वाले काम को झंझट समझकर कतराते रहे। ऐसे लोगों से हमारा क्या प्रयोजन पूरा होता?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर 1966 पृष्ठ 39-40

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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