भारतवर्ष में दहेज एक ऐसा असुर है, जिसकी क्रूरता से अगणित कन्याऐं अपना प्राण त्याग चुकीं, अनेकों वैधव्य का दुख भोग रही हैं, अनेकों परित्यक्ता बनकर त्रास पा रही हैं। कन्याओं के माता-पिता का तो यह असुर रक्त पान करके किसी योग्य ही नहीं रहने देता। कसाई और उसकी छुरी से बकरी जिस प्रकार डरती रहती है, उसी प्रकार दहेज कर भय कन्याओं के जीवन तथा उनके माता-पिताओं के साथ प्राणों पर बीतने वाली दिल्लगी किया करता है।
जिस साधारण आर्थिक स्थिति के व्यक्ति को कन्या का पिता बनने का दुर्भाग्य प्राप्त हो चुका है वह भुक्त-भोगी भली प्रकार जानता है कि किसी खाते-पीते घर का पढ़ा-लिखा लड़का पटाने में उसे कितनी दीनता, कितनी जलालत, कितनी गले न उतरने वाली कठोर शर्तें स्वीकार करने को विवश होना पड़ता है। इस कठिनाई ने कन्या और पुत्र के समान दर्जे की स्थिति ही बदल दी है, अब तो पुत्र का जन्म सौभाग्य का और कन्या का जन्म दुर्भाग्य का चिन्ह माना जाता है। पुत्र जन्म पर बाजे बजते हैं तो कन्या के जन्मते ही घर-घर में उदासी छा जाती है।
बालक-बालक के बीच माता-पिता की दृष्टि में भी ऐसे अन्तर उत्पन्न करने का हेतु प्रधानतया यह ‘दहेज’ का असुर ही है, जिसकी कल्पना जन्म के दिन ही कर ली जाती है और एक के साथ कुछ पाने की और दूसरे के साथ कुछ गवाने की दृष्टि उत्पन्न होने से स्नेह भाव में अन्तर आ जाता है। बच्चों के प्रति माँ-बाप की दृष्टि में ऐसी भेद बुद्धि उत्पन्न करा देना भी इस दहेज के असुर की ही माया है।
हर गृहस्थ में पुत्रों की भाँति कन्याऐं भी होती हैं, इसलिए कन्या की बारी आने पर उसे भी दहेज के बोझ से पिसना पड़ता है, इस प्रकार यह कटु अनुभव प्रायः सभी गृहस्थों को होता है, सभी दुखी और परेशान हैं और हर किसी को कन्या के अभिभावकों के रूप में दहेज की निन्दा करते देखा और सुना जा सकता है, किन्तु वही व्यक्ति जब पुत्र का पिता या वर पक्ष की स्थिति में आता है तो तुरन्त गिरगिट की तरह रंग बदल जाता है और दहेज को अपना अधिकार एवं प्रतिष्ठा का माध्यम और धन कमाने का एक स्वर्ण सुयोग मानकर उस अवसर से भरपूर लाभ उठाना चाहता है। मनुष्य का यह दोगला रूप देखकर आश्चर्य होता है कि थोड़ी सी देर में ही वह अपने अनुभव को भूल जाता है। यदि वर पक्ष के रूप में वह दहेज का समर्थक था तो अब कन्या पक्ष का बनने की स्थिति में अपना घर कुर्क कराने में क्यों झिझकता है। यदि कन्या पक्ष के रूप में दहेज को बुरा मानता है तो लड़के की शादी के अवसर पर बेचारे कन्या पक्ष वालों को अपनी जैसी कठिनाई में ग्रस्त मानकर उनके साथ सहानुभूति का बर्ताव क्यों नहीं करता। यह दुरंगी चाल दहेज के असुर को जीवित रहने में सहायक होती है और वचन तथा कार्य में भिन्नता बरतने वाले समाज-सुधारकों के लैक्चर तथा लेखों को एक कौतूहल मात्र समझे जाने की स्थिति से आगे नहीं बढ़ने देती।
हमें अपने विचार और कार्यों में एकता लानी होगी, यदि दहेज बुरा है तो लड़के के पिता के रूप में उसे समझाने को तैयार रहना होगा। यदि दहेज अच्छा है तो कन्या के पिता के रूप में भी उसे बिना शिकायत और रंज माने देना होगा। दुटप्पी चालें चलना हमारे नैतिक अधःपतन का चिन्ह है। पतित व्यक्ति चाहे वे धनी, विद्वान्, चौधरी, पंच कोई भी हों, कोई प्रभावशाली प्रेरणा देकर समाज का पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता नहीं रखते। दहेज का विरोध जहाँ-तहाँ सुनाई पड़ता है पर उसके पीछे कोई बल नहीं होता क्योंकि वे विरोध करने वाले व्यक्ति ही कहनी और कथनी में अन्तर रखकर अपनी स्थिति उपहासास्पद बना लेते हैं। उनकी आवाज के पीछे कोई बल न होने के कारण यह सुधार आन्दोलन नपुँसक ही रहता है।
अब चौधरी, पंच और जातीय कर्णधारों द्वारा आयोजित सभा सम्मेलनों के प्रस्तावों पर निर्भर रहने से काम न चलेगा। इस विडम्बना की बहुत देर से परीक्षा होती चली आ रही है। अब कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। अन्यथा इस गिरती हुई आर्थिक स्थिति के जमाने में एक ऐसा सामाजिक संकट उत्पन्न हो जायगा जिसमें “जीवित रहते हुए आत्म-हत्या” करने जैसे कष्ट से कम त्रासदायक अनुभव न किया जायगा।
इस दिशा में लड़के और लड़कियाँ पहल कर सकते हैं। चालीस-पचास वर्ष से ऊपर की आयु के माता-पिता प्रायः अपना साहस खो बैठते हैं। लड़के का पिता लोभ नहीं छोड़ना चाहता और लड़की का पिता यह नहीं सोच सकता कि किसी निर्धन घर में कन्या को दे दूँ तथा जब तक सुयोग्य लड़का न मिले तब तक सयानी कन्या को अनिश्चित काल के लिए अविवाहित रहने दूँ। इन वयोवृद्धों को लाठी की तरह सहारा देकर लड़के और लड़कियाँ उन्हें रास्ता बता सकते हैं। भावनाशील लड़कों को प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि अपनी अपेक्षा निर्धन घर की कन्या से बिना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दहेज के शादी करूंगा। अभिभावकों से उन आदर्शवादी युवकों को स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ेगा कि प्रत्यक्ष ही नहीं, अप्रत्यक्ष दहेज की बात चलाई जायगी तो वह उस विवाह को करने के लिए कदापि तैयार न होंगे।
इसी प्रकार मनस्वी कन्याएँ अपना साहस बटोर कर अपने घर वालों को बता दें कि वे दहेज माँगने वाले सामाजिक कोढ़ी अमीरों के यहाँ जाने की अपेक्षा निर्धन और घटिया स्थिति के घरों में जाने के लिए तैयार हैं पर दहेज के साथ सम्पन्न घरों में तथा कथित ‘सुशिक्षित’ लड़कों के साथ विवाह करना पसंद न करेंगी। अनुकूल स्थिति न आने पर कन्याओं को आजीवन कुमारी रहने का व्रत लेना चाहिए और अपने त्याग से एक दूषित वातावरण को तोड़ने का आदर्श उपस्थित करना चाहिए। माता-पिता को आर्थिक संकट में डालने से बचाने के लिए कई कन्याऐं आत्म हत्याएँ कर चुकीं हैं, पर उससे अच्छा मार्ग यह आत्म-त्याग का है। कन्याओं के ऐसे आत्म-त्याग भी दहेज के लोभी रक्त पिपासुओं की आँखें खोलने में कुछ कारगर हो सकते हैं।
अर्थ-लोलुप वर पक्ष वालों को दहेज की बुराई की जड़ माना जाता है। बहुत अंशों में यह ठीक भी है, पर कन्या पक्ष वालों को भी उस सम्बन्ध में सर्वथा निर्दोष नहीं माना जाता। वे आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से लड़के ढूँढ़ते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है, उन्हीं पर सैकड़ों लड़की वाले टूटते हैं, फलस्वरूप उन लड़के वालों का दिमाग खराब हो जाता है और लड़के को नीलाम की बोली पर चढ़ा देते हैं। यदि लड़की वाले अपेक्षाकृत निर्धन घर के और कम “सुशिक्षित” लड़के ढूँढ़कर सामान्य स्थिति के सम्बन्ध से काम चलाते तो अधिक अमीर और खूबसूरत लड़कों पर जो भीड़ टूटती है वह न टूटे और दहेज का प्रश्न बहुत अंशों तक हल हो जाय। दहेज न देने के साथ-साथ लड़की वालों को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि ऊँची कीमत जेवर कपड़े की न तो माँग की जाय और न उनका प्रदर्शन कराया जाय। अच्छा तो यह जो कि ‘भार्गव’ समाज में प्रचलित रिवाज की भाँति कन्या का पिता ही जो कुछ जेवर कपड़ा स्वेच्छापूर्वक दे सकता हो, वह देकर कन्या को विदा कर दे। विवाहोत्सव की भारी खर्चीली रिवाजें बन्द करके कम से कम व्यक्तियों की उपस्थिति में यह एक साधारण पारिवारिक आयोजन मात्र बना लिया जाय। दहेज का जितना धन इन प्रदर्शनों और तूमाल बाँधने की विडम्बना में खर्च हो जाता है, इसे बन्द करना भी दहेज बन्द करने के समान आवश्यक है।
अब स्थिति ऐसी आ गई है कि हमारे बच्चों को प्राण संकट में डालने वाले इस दहेज रूपी असुर का विनाश करने को किन्हीं ठोस आधारों पर कदम उठाया जाना चाहिए। यद्यपि व्यापक अर्थ लोलुपता से उत्पन्न अनेक अनैतिकताओं की भाँति यह भी एक सामाजिक अनैतिकता है, जिसके लिए केवल वर के पिता को ही दोषी मान लेना और केवल उसी के सुधरने से सब कुछ ठीक हो जाने की आशा नहीं की जा सकती। कन्या वाले भी अमीर घर इसलिए ढूँढ़ते हैं कि इनकी कन्या को उत्तराधिकार के विपुल धन की स्वामिनी तथा बहुमूल्य आभूषणों से सुशोभित बनने का अवसर मिले। उन्हें भी अपना यह दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। विवाह योग्य लड़के और लड़की यदि साहस से कार्य लें तो भी इस सत्यानाशी प्रथा को बदलने तथा गलत तरीके से सोचने वाले माँ-बापों को सही तरीके से सोचने के लिए विवश करने में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं।
समय की माँग है अब दहेज बन्द होना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि हमारी ही भाँति अनेक बुद्धिमान व्यक्ति सोच रहे हैं और दहेज के विरुद्ध तगड़ा मोर्चा लगाने की तैयारी में संलग्न हैं। आगरा-नौबस्ता निवासी पं. मुकुटबिहारीलाल शुक्ल बी. ए. एल-एल. बी. अपनी कन्या का विवाह बिना दहेज दिये बड़े आदर्श के साथ करने में सफल हो चुके हैं। बरेली के सुप्रसिद्ध कथा वाचक तथा ‘राधेश्याम रामायण’ के निर्माता पं. राधेश्यामजी सुप्रसिद्ध धनीमानियों में हैं, उनने भी अपनी सुशिक्षित विवाह योग्य नाती-नातनियों का विवाह बिना दहेज के ही करने का निश्चय किया है। जिन्हें आवश्यकता है- “पं. राधेश्याम शर्मा कथावाचक बरेली” इस पते पर उनसे अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हम चाहते हैं कि अखंड-ज्योति तथा गायत्री परिवार के मनस्वी लड़के-लड़कियाँ तथा वर-कन्याओं के अभिभावक उपरोक्त भावनाओं के अनुसार दहेज के असुर का दमन करने के लिए कुछ वास्तविक एवं ठोस आदर्श उपस्थित करने के लिए कदम उठावें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1956 पृष्ठ 36