शनिवार, 22 अप्रैल 2017

👉 जब बस कण्डक्टर के रूप में सहायता की

🔵 सन् 2009 की बात है। नवम्बर का महीना था। मैं अपने मायके विहरा गाँव, जो बिहार के सासाराम जिले में है, गई थी। मेरी माँ की तबीयत खराब थी। मैं माँ को देखकर वापस टाटानगर में साकची को जा रही थी। मेरे साथ मेरा छोटा लड़का था। जब मैं बस स्टैण्ड आई, कण्डक्टर से टिकट के लिए कहा तो वह बोला कि सभी सीट पहले से बुक है। मैं बहुत गिड़गिड़ाई। बहुत प्रार्थना की कि भैया हमको जाना बहुत जरूरी है। अगर यह बस मुझे नहीं मिली तो इस समय मैं छोटे बच्चे के साथ कहा जाऊँगी? थोड़ी देर में साँझ घिर जाएगी। लेकिन मेरी बात का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कहने लगा एक सप्ताह बाद आइए, तो आपको सीट मिल जायेगी।
     
🔴 मैं बहुत सोच में पड़ गई। और कोई साधन भी नहीं था जिससे मैं चली जाती। अचानक मुझे ट्रेन की बात याद आई कि क्यों न ट्रेन से चलूँ। लेकिन बाद में याद आया कि आज रविवार का दिन है। आज टाटानगर के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। मेरा गाँव स्टेशन से बहुत दूर था। दिन का 2 बज गया था। अब मेरा रास्ता हर जगह से बंद हो गया था। न मैं मायके जा सकती थी और न ससुराल।
     
🔵 धीरे- धीरे सूरज ढल रहा था। शाम हो रही थी। उसी क्रम में मेरी चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी। मिथिला का नियम है भदवा तिथि में कहीं निकला नहीं जाता है। दुर्भाग्य! आज वही तिथि पड़ी थी। अब तो मेरा मन और घबरा गया। और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। मैं फूट- फूट कर रोने लगी। मुझे रोते हुए देखकर मेरा लड़का अभिजीत भी परेशान हो रहा था। लड़का बोला घबराओ मत। एक बार मैं फिर कण्डक्टर से मिलूँ, अगर होगा तो आगे की तारीख का टिकट कटा लूँगा। जैसे ही हम लोग वहाँ पर गए, हमें एक मन्दिर दिखा। जिसमें माताजी- गुरु जी का फोटो लगा हुआ था। गुरुदेव- माताजी के चित्रों को देखकर मैं फिर रोने लगी और आर्त्तभाव से प्रार्थना करने लगी। हे गुरुदेव! अब रात होने जा रही है। बस जाने वाली है। मैं महिला जाति रात में इधर- उधर कहाँ भटकती फिरूँगी। अब तो आप का ही सहारा है।

🔴 अब गाड़ी स्टार्ट हो गई थी। मैं बस को अपलक निहारे जा रही थी। अचानक बस कण्डक्टर पर नजर पड़ी, तो सन्न रह गई। वह हू- ब-हू गुरुजी जैसा दिख रहा था। इसी बीच वह टिकटों का हिसाब करने लगा। ड्राइवर और कण्डक्टर के बीच बातें होने लगीं। कण्डक्टर कह रहा था कि दो सीट का पैसा कम है। बस मालिक बोल रहा था कि जब एक महीना से पूरी सीट फुल है तो पैसा कहाँ से कम हो जाएगा? जब बस में अन्दर जाकर देखा गया तो बीच में दो सीटें खाली थी। इतना सुनते ही वहाँ भीड़ लग गई। भगदड़ मच गई। सभी यात्रियों को जाने की जल्दी थी। कोई कहता हम एक हजार देंगे, कोई कहता हम दो हजार देंगे। सभी रुपए निकालने लगे।

🔵 इसी बीच कण्डक्टर जोरों से चिल्लाया, मैं किसी का रुपया नहीं लूँगा। अभी कुछ घंटे पहले एक माँ बेटा जो टिकट के लिए घूमकर गए हैं, मैं उन्हीं को यह सीट दूँगा। इतना सुनते ही खुशी के मारे आँसू निकल आए। मैंने श्रद्धापूर्वक गुरु देव- माताजी को प्रणाम किया। तब तक मेरा बेटा भी दौड़कर मेरे पास आया और बोला- माँ टिकट की व्यवस्था हो गई, जल्दी चलो। हम बस की ओर दौड़ पड़े। जब हम बस पर चढ़े तो सभी बस यात्री शोर करने लगे। कहने लगे पीछे जाइए, पीछे जाकर बैठिए। हम लोगों ने एक महीना पहले टिकट बुक कराया है। इसलिए आप पीछे जाकर बैठिए।

🔴 तभी कण्डक्टर आए और बोले, आप परेशान न हों। उन्होंने मुझे और मेरे बेटे को 16- 17 नम्बर की सीट पर बैठा दिया और बोले- आप लोग आराम से बैठिए। चिन्ता न करें। मैं आता- जाता रहूँगा। इस तरह जहाँ- जहाँ बस रुकती, वे हम लोगों से पूछते रहते कि कोई कठिनाई तो नहीं है? इस तरह हम सुबह 9 बजे राँची पहुँच गए। वहाँ से दूसरी बस द्वारा टाटानगर सही सलामत पहुँच गए।

🔵 इस तरह से गुरु देव ने बस में आकर मेरी सहायता की। अब सोचती हूँ तो लगता है कि मेरे प्रार्थना करने पर गुरु देव मेरी सहायता करने स्वयं चले आए! आज भी जब मैं घटना को सोचती हूँ तो गुरु देव की कृपा का सहज ही अहसास हो जाता है और हमारी आँखें श्रद्धा से नम हो जाया करती हैं।                    
  
🌹 शशिप्रभा वर्मा साकची, पूर्वी सिंहभूम (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/jab

👉 आज का सद्चिंतन 23 April 2017


👉 CHINTAN (Part 2)

(studying the past-period of self-being): its Significance & Mechanics

🔴 Whenever at some convenient time you sit in solitude, just think we are alone and have no companion or friend. Let the companion, the friend, the family member, the money, the business, the agricultural field be in their places. You only have to think if we have been doing any mistake for last days? Whether have we forgotten the path, deviated? Whether was I born for this only? Whether did I do what for I was born? Whether I was busy earning more than how much was required? Whether I was adding to number of loads unnecessarily by paying attention to family more than what genuinely required? Whether I was busy loading them with gifts they did not required, only for their happiness? Why? r which reasons? Very these are the mistakes of life, we have been committing all along.

🔵 In the same way, whether I took care of food and living style that was to be taken necessarily from health point of view. Whether the required modesty, that ought to be, was incorporated in thinking-style or not? No. We did not fulfill duties either for our bodies or brain or our family members. We stand lagged far behind from point of view of duties. Once think over issues whereat we lagged. Why? What is the advantage of doing this? The advantage is that rectification of mistakes will be possible only when they are known to us. What and why will you rectify when you do not know what and why to do? That is why review or revisit becomes essential. Just review yourself and your past.  

🔴 Not only is the crime that is called the sin. Things, actions making life disordered are also called sins. The theft and the murder are obviously the crimes but not the less is passing time in lethargy & laziness, maintaining an angry temperament, keeping your temperament worried & disordered. What these are? These too are mistakes. Just review repeatedly what mistakes associated with virtues, actions and temperament in your personal life and those associated with your crime both, you have been committing. It is very essential to revisit your past. This action leads us to assess where we are wrong and how much we had been missing and are still missing. The next step is related with rectification of such mistakes and is called Self-Refinement.

🌹 to be continue...
🌹 ~Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 April 2017


👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 88)

🌹 जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

🔴 सर्वव्यापी ईश्वर निराकार हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्श का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट् ब्रह्म या विराट विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुशुण्डि को इसी रूप को झलक के रूप में दिखाया था और प्राणियों को उनका दृश्य स्वरूप। इसी मान्यता के अनुसार यह लोक सेवा ही विराट् ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व उद्यान को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है। इसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलम्बन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है।

🔵 हम करते रहे हैं। सामान्य दिनचर्या के अनुसार रात्रि में शयन, नित्य कर्म के अतिरिक्त दैनिक उपासना भी उन्हीं बारह घण्टों में भली प्रकार सम्पन्न होती रही है। बारह घण्टे इन तीनों कर्मों के लिए पर्याप्त रहे हैं। चार घण्टा प्रातःकाल का भजन इसी अवधि में होता रहा है। शेष आठ घण्टे में नित्य कर्म और शयन। इसमें शयन की कोताही कहीं नहीं पड़ी। आलस्य-प्रमाद बरतने पर तो पूरा समय ही ऐंड-बेंड में चला जाता है, पर एक-एक मिनट पर घोड़े की तरह सवार रहा जाए, तो प्रतीत होता है कि जागरूक व्यक्तियों ने इसी में तत्परता बरतते हुए वे कार्य कर लिए होते जितने के लिए साथियों को आश्चर्य चकित रहना पड़ता है।

🔴  यह रात्रि का प्रसंग हुआ, अब दिन आता है। उसे भी मोटे रूप में बारह घण्टे का माना जा सकता है। इसमें से दो घंटे भोजन, विश्राम के लिए कट जाने पर दस घण्टे विशुद्ध बचत के रह जाते हैं। इनका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों की लोकमंगल आराधना में नियमित रूप से होता रहा है। संक्षेप में इन्हें इस प्रकार कहा जा सकता है। १-जनमानस के परिष्कार के लिए युग चेतना के अनुरूप विचारणा का निर्धारण-साहित्य सृजन २-संगठन जागृत आत्माओं को युग धर्म के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए उत्तेजना मार्गदर्शन, ३-व्यक्तिगत कठिनाइयों में से निकलने तथा सुखी भविष्य विनिर्मित करने हेतु परामर्श योगदान। हमारी सेवा साधना इन तीन विभागों में बँटी है। इनमें दूसरी और तीसरी धारा के लिए असंख्य व्यक्तियों से संपर्क साधना और पाना चलता रहा है।

🔵 इनमें से अधिकांश को प्रकाश और परिवर्तन का अवसर मिला है। इनके नामोल्लेख और घटनाक्रमों का विवरण सम्भव नहीं क्योंकि एक तो जिनकी सहायता की जाए, इनका स्मरण भी रखा जाए। यह अपनी आदत नहीं, फिर उनकी संख्या और विनिर्मित उतनी है कि जितने स्मरण है उनके वर्णन से ही एक महापुराण लिखा जा सकता है। फिर उनको आपत्ति भी हो सकती है। इन दिनों कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रचलन समाप्त हो गया। दूसरों की सहायता को महत्त्व कम दिया। अपने भाग्य या पुरुषार्थ का ही बखान किया जाए। दूसरों की सहायता के उल्लेख में हेटी लगती है। ऐसी दशा में अपनी ओर से उन घटनाओं का उल्लेख करना जिसमें लोगों के कष्ट घटें या प्रगति के अवसर मिलें, उचित न होगा। फिर एक बात भी है कि बखान करने के बाद पुण्य घट जाता है। इतने व्यवधानों के रहते उस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में मौन धारण करना ही उपयुक्त समझा जा रहा है और कुछ न कह कर ही प्रसंग समाप्त किया जा रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivan.3

👉 तुम उसे अवश्य पा लोगे

🔵 किसी पहाड़ी झील पर नजर डालो। तुषार की रूपहली चादर बिछी हुई है। हवा चलती है, पानी बरसता है। बादल गरजते हैं, बिजली चमकती है,  किन्तु झील की निश्चलता में कोई अन्तर नहीं आता। किनारों पर रंग-बिरंगे पक्षी कूँजते और किल्लोल करते हैं, किन्तु उस झील में कोई विक्षेप उत्पन्न नहीं होता। तट पर फैली वृक्षावली में एक से एक सुन्दर, सुगन्धित फूल खिलते, शाखा में से टूटकर झील पर गिरते हैं। किन्तु झील के स्थिर हृदय में उनका कोई प्रतिबिम्ब नहीं उठता। वह अपने निर्विकल्पता का धैर्य है, जिसे तुम अवश्य पा लोगे।

🔴 कुम्हार तालाब से मिट्टी खोद लाता है। उसे कूट-पीस कर महीन बनाता और छानकर साफ करके पानी डालकर उसे खूब रौंदता, पीटता है। तैयार हो जाने पर, चाक पर चढ़ाकर अपनी इच्छा के अनुसार वह उसे आदमी, पशु या पक्षी का रूप देता है, किन्तु इतना सब होने पर भी मृत्तिका कुछ नहीं बोलती। सब कुछ समभाव से सहन करती हुई कुम्भकार की इच्छा-वशवर्ती रहती है। यदि तुममें उस मृत्तिका की भाँति सहनशीलता और नम्रता है, तो तुम उसे अवश्य पा लोगे।
  
🔵 मरुस्थल में भटके प्राणी की वांछा में पानी पीने की लालसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पानी के लिए उसकी व्याकुलता इतनी बढ़ जाती है कि उसे तपती रेत के कणों में पानी का आभास होने लगता है। वह छटपटाता है, दौड़ता है, विकलाता है, उसकी चाह होती है कि किसी पानी से लबालब भरे जलाशय की नहीं, सिर्फ एक बूँद जल की। वह बूँद में ही अपने सर्वस्व को खोजता है। पनघट पर खड़े पथिक की प्यास में न तो इतनी व्याकुलता होती है और न एकान्तिकता।
  
🔴 वह पानी के अतिरिक्त वहाँ के दृश्य भी देखता और रस भी लेता है। वहाँ पास में खड़े लोगों से गप-शप का आनन्द भी लूटने लगता है। यदि तुम उसे पाना चाहते हो, तो पनघट पर खड़े प्यार से पथिक की इच्छा नहीं, मरुस्थल में भटके तृषित प्राणी की आकांक्षा लेकर चलो, एक दिन तुम उसे अवश्य पा लोगे।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 37

👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 April

🔴 काम, क्रोध, लोभ, मोह के विकारों का आवेश मनुष्य को अन्धा कर देता है। उसका विवेक ठीक काम नहीं करता, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य का उसे ध्यान नहीं रहता और वह उस प्रकार का व्यवहार कर बैठता है जिससे उसे स्वास्थ्य से हाथ धोना पड़ता है, समाज में अपयश होता है, दूसरों से सम्बन्ध खराब होते हैं और वह अविश्वास का पात्र बन जाता है।

🔵 सम्बन्धियों, धन और यश में आसक्ति वाला मनुष्य लेन-देन में पक्ष-पात करता है। चोरी, ठगी और बेईमानी करता है, दूसरों को धोखा देता है, झूठे वादे करता है और चालाकी से काम लेता है। वह भूल जाता है कि पक्षपात से समाज की व्यवस्था खराब होती है, चोरी और बेईमानी से असुरक्षा और भय की स्थिति पैदा होती है, जिसका प्रभाव स्वयं उसके ऊपर भी पड़ सकता है। झूठ और चालाकी से उसका नैतिक पतन होता है और उस अनीति से जो लाभ होता है वह स्थाई नहीं होता।

🔴 स्वर्ग और नरक कहीं और नहीं है। इन्हें मानव स्वयं इसी धरती पर बनाता है। जब मानव नीति, संयम, त्याग, सेवा, तप और सहानुभूति का जीवन जीते हैं तो समाज में स्वास्थ्य, सुख, शान्ति, बाहुल्य, सद्भावना, प्रेम, हंसी-खुशी और पारस्परिक विश्वास का कल्प-वृक्ष उगता है। यही स्वर्ग है। संकुचित स्वार्थ, असंयम, आलस्य, घृणा, द्वेष और दम्भ समाज में उत्पीड़न, भय, असन्तोष, अभाव और अविश्वास का वातावरण बना देते हैं। यही नरक है। हमारा चिन्तन, भावनाएं और कर्म ही स्वर्ग और नरक का निर्माण करती है। अपने लिए-समस्त संसार के लिए हम स्वर्ग का सृजन करें अथवा नरक का निर्माण करें यह हमारी इच्छा और चेष्टा पर पूर्णतया निर्भर हैं।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 16)

🌹 समय जरा भी नष्ट मत होने दीजिये

🔴 जरा विचार कीजिये आपको अमुक दिन अमुक गाड़ी से बम्बई जाना है। अगर आप गाड़ी के सीटी देने के एक मिनट बाद स्टेशन पहुंचे तो फिर आपको वह गाड़ी, वह दिन, वह समय कभी नहीं मिलेगा। निश्चित समय निकल जाने के बाद आप किसी दफ्तर में जायें तो निश्चित है आपका काम नहीं होगा। आपको स्मरण होगा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, जार्ज वाशिंगटन आदि को सड़क पर से गुजरते देखकर लोग अपनी घड़ियां मिलाते थे अपने काम और समय का इस तरह मेल रखें कि उसमें एक मिनट का भी अन्तर न आये। तभी आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग कर सकेंगे।

🔵 आलस्य समय का सबसे बड़ा शत्रु है। यह कई रूपों में मनुष्य पर अपना अधिकार जमा लेता है। कई बार कुछ काम किया कि विश्राम के बहाने हम अपने समय को बरबाद करने लगते हैं। वैसे बीमारी, तकलीफ आदि में विश्राम करना तो आलस्य नहीं है। थक जाने पर नींद के लिये विश्राम करना भी बुरा नहीं है। थकावट हो, नींद आये तो तुरन्त सो जायें लेकिन आंख खुलने पर उठ-पड़ें चारपाई न तोड़ें। अभी उठते हैं, अभी उठते हैं, कहते रहें तो यही आलस्य का मन्त्र है। आंखें खुलीं कि तुरन्त अपने काम में लग जायें।

🔴 रस्किन के शब्दों ‘‘जवानी का समय तो विश्राम के नाम पर नष्ट करना ही घोर मूर्खता है क्योंकि वही वह समय है जिसमें मनुष्य अपने जीवन का, अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जिस तरह लोहा ठण्डा पड़ जाने पर घन पटकने से कोई लाभ नहीं, उसी तरह अवसर निकल जाने पर मनुष्य का प्रयत्न भी व्यर्थ चला जाता है।’’ विश्राम करें, अवश्य करें। अधिक कार्य क्षमता प्राप्त करने के लिये विश्राम आवश्यक है लेकिन उसका भी समय निश्चित कर लेना चाहिए और विश्राम के लिये ही लेटना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...