रविवार, 16 दिसंबर 2018

👉 आस्था

यात्रियों से खचाखच भरी एक बस अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। अचानक मौसम बहुत खराब हो गया।तेज आंधी और बारिश से चारों ओर अँधेरा सा छा गया। ड्राइवर को रास्ता दिखना भी बहुत मुश्किल हो रहा था। ड्राइवर ईश्वर पर बहुत आस्था रखने वाला व्यक्ति था। उसने किसी तरह सड़क किनारे एक पेड़ के पास गाड़ी रोक दी और यात्रियों से बोला कि मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि इस बस में एक पापी व्यक्ति बैठा हुआ है जिस कारण हम सब पर यह आफत आयी है। इसकी पहचान का एक सरल तरीका है।

हर आदमी बारी बारी से बस से उतरकर इस पेड़ को छूकर वापस बस में आकर बैठे। जो आदमी पापी होगा उसके छूते ही पेड़ पर बिजली गिर जाएगी और बस के बाकी यात्री सुरक्षित बच जाएँगे। सबसे पहले उसने खुद ऐसा ही किया और यात्रियों से भी ऐसा करने का दबाब बनाने लगा।

उसके ऐसा करने पर हर यात्री एक दूसरे को ऐसा करने को बोलने लगा। बाकी यात्रियों के दबाब पर एक यात्री बस से उतरा और पेड़ को छूकर जल्दी से बस में अपनी सीट पर आकर बैठ गया। इस तरह एक एक कर सभी यात्रियों ने ऐसा ही किया। अंत में केवल एक यात्री ऐसा करने से बचा रह गया। जब वह पेड़ को छूने के लिए जाने लगा तो सभी उसे ही वह पापी समझकर घृणा से उसे देखने लगे। उस व्यक्ति ने जैसे ही पेड़ को छुआ आकाश में तेज गड़गड़ाहट हुई और बस पर बिजली गिर गयी। बस धू धू कर जलने लगी और कोई भी जीवित नहीं बचा।उधर वह यात्री जिसे सभी पापी समझ रहे थे वह बिल्कुल सुरक्षित था।

*Moral of the story*

जीवन में कोई भी मुसीबत आने पर हम सभी सबसे पहले ईश्वर को कोसना शुरू कर देते हैं, उसे ही त्याग देते हैं। ये नहीं समझने की कोशिश करते कि उसी ईश्वर के कारण आज हम जिंदा हैं ठीक उसी तरह जैसे कोई भी यात्री यह समझने को तैयार नहीं था कि एक उस यात्री के कारण सबकी जान बची हुई थी। उस यात्री को जैसे ही सबने अपने से अलग किया सभी की जान चली गयी।

ईश्वर उसी को मुसीबत देता है जिसे वह इस काबिल समझता है कि वह इससे पार पा लेगा। अतः हम पर जब भी कोई मुसीबत आये,चाहे वह मुसीबत कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने हमें कम से कम जिंदा तो रखा। अगर जान चली जाती तो न तो हम ईश्वर को कोस पाते और न ही धन्यवाद दे पाते। उसने हमें जिंदा बचाये रखा केवल इसलिए कि हम उसके इस एहसान को स्वीकार करें और अपनी भूल सुधार कर उस मुसीबत से पार पाने का उपाय ढ़ूँढ़ सकें। मुसीबत के समय ईश्वर को कोसने से हमारी मुसीबत कम नहीं हो सकती उलटा।

अतः मुसीबत के समय ईश्वर को कोसने की बजाय अपनी जान बख्शने के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमें इस मुसीबत को सहने की शक्ति देने के साथ ही इससे बाहर निकालने का रास्ता दिखायें।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 Dec 2018



👉 आज का सद्चिंतन 17 Dec 2018



👉 अभागो! आँखें खोलो!!

अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।

ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।

कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति जून 1943 पृष्ठ 12

👉 Happiness lies in contentment.

On a hot summer day a traveler stopped under a shady tree and lay down on the bare ground to rest for a while. Looking up at the sky, he wished he could be lying on a comfortable bed.

He did not know that he was lying under a magical tree that made every thought come true.

Lo! In no time a bed appeared and he was lying on it. ‘This is perfect,’ the traveler thought. “Now all I need is a maiden to give me company in this lonely place.’ Poof! A beautiful young maiden immediately appeared before him. She sat next to him, fanning him for his pleasure. ‘Wow!’ the traveler exclaimed, enjoying the cool breeze. ‘The only thing that could make things any better would be to have some food and drink to enjoy with my lovely companion here.”

As soon as he thought this, a wonderful feast lay before him. The maiden served him the food and drink. Lying in bed eating grapes the maiden served him, the traveler thought, ‘This is the peak of happiness! Wouldn’t it just be awful if it all disappeared and a tiger were to attack me instead?’

As soon as had he thought this, everything disappeared, and the scene was replaced by a ferocious tiger. The man scurried up the tree, thinking to himself - ‘If only I had been content with just the shade of this tree, I wouldn’t be at the mercy of this beast!’

👉 जीवन दिशा

आज झूठ बोलने, मनोभावों को छिपाने और पेट में कुछ रखकर मुंह से कुछ कहने की प्रथा खूब प्रचलित है। कोई व्यक्ति मुख से धर्मचर्चा करते हैं, पर उनके पेट में पाप और स्वार्थ बरतता है। यह पेट में बरतने वाली स्थिति ही मुख्य है। उसी के अनुसार जीवन की गति संचालित होती है। एक मनुष्य के मन में विश्वास जमा होता है कि 'पैसे की अधिकता ही जीवन की सफलता है।' वह धन जमा करने के लिए दिन-रात जुटा रहता है।

जिसके हृदय में यह धारणा है कि ‘इंद्रिय भोगों का सुख ही प्रधान है’, वह भोगों के लिए बाप-दादों की जायदाद फूँक देता है। जिसका विश्वास है कि ‘ईश्वरप्राप्ति सर्वोत्तम लाभ है,’ वह और भोगों को तिलांजलि देकर संत का सा जीवन बिताता है। जिसे देशभक्ति की उत्कृष्टता पर विश्वास है, वह अपने प्राणों की भी बलि देश के लिए देते हुए प्रसन्नता अनुभव करता है।

जिसके हृदय में जो विश्वास जमा बैठा है, वह उसी के अनुसार सोचता है, कल्पना करता है और इस कार्य के लिए जो कठिनाईयाँ आ पड़ें उन्हें भी सहन करता है। दिखावटी बातों से, बकवास से, बाह्य विचारों से नहीं, वरन भीतरी विश्वास-बीजों से जीवन दिशा का निर्माण होता है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आत्मज्ञान और आत्मकल्याण पृष्ठ 3

👉 आत्मचिंतन के क्षण 17 Dec 2018

◼ सुख-दुःख हमारे अपने ही पैदा किए हुए, हमारी अपनी ही मनोभूमि के परिणाम हैं। हम अपनी मनोभूमि परिष्कृत करें, विचारों को उत्कृष्ट और रचनात्मक बनायें, भावनाएँ शुद्ध करें, इसी शर्त पर जीवन हमें सुख, शान्ति, प्रसन्नता, आनंद प्रदान करेगा, अन्यथा वह सदा असंतुष्ट और रूठा ही बैठा रहेगा और अपने लिए आनंद के द्वार सदैव बंद रखे रहेगा।

◼ शुभ कार्यों में लगने वालों, उन्नति और विकास की ओर बढ़ने वालों के समक्ष एक ही मार्ग है दृढ़ता के साथ अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर गतिशील रहना।  एक बार शुभ लक्ष्य और उत्कृष्ट मार्ग का चुनाव कर फिर उस ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहना कर्मवीर के लिए आवश्यक है।

◼ कुछ व्यक्ति कहते हैं कि फिजूलखर्ची समाज कराता है, हम क्या करें? समाज आर्थिक मूल्यों को ही मान्यता देता है। यदि हम बन-ठन कर समाज में दिखावा नहीं करेंगे तो समाज में हमारी कौन पूछ होगी। खरबूजा को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। हम समाज का जैसा रूप देखते हैं, वैसा ही करते हैं-ये तर्क थोथे और सारहीन हैं। फिजूलखर्ची तो एक व्यक्तिगत चीज है। इस गलती का जिम्मेदार व्यक्ति है, समाज नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण (भाग 1)

आगे बढ़ने का क्रम यह है कि एक कदम पीछे से उठा कर आगे रखा जाय और जो आगे रखा था उसे और आगे बढ़ाया जाय। इसी प्रकार चलने की क्रिया संपन्न होती है और लम्बी मंजिल पार की जाती है। आत्मिक प्रगति का मार्ग भी यही है। पिछड़ी योनियों में रहते समय जो पिछड़े संस्कार चेतना भूमि में जड़ जमाकर जहाँ-तहाँ बैठे हुए हैं उनका उन्मूलन किया जाय और दैवी प्रवृत्तियाँ, जो अभी तक समुचित परिणाम में प्राप्त नहीं हो पाई हैं, उन्हें प्रयत्न पूर्वक अपनाया और बढ़ाया जाय। किसान यही करता है। खेत को जोतता है, उसमें से पिछली फसल के पौधों की सूखी हुई जड़ों को हल चला कर उखाड़ता है।

कंकड़ पत्थर बीनता है और नई फसल उगाने में जो भी अवरोध थे, उन्हें समाप्त करता है। इसके उपरान्त उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद पानी का प्रबन्ध करता है और बीज बोने के उपरान्त नई फसल अच्छी होने की आशा करता है। आत्मिक प्रगति के मार्ग को कृषि कर्म के समतुल्य गिना जा सकता है। मनुष्य पद के लिए अनुपयुक्त पिछले कुसंस्कारों को उखाड़ कर उन्मूलन करना एक काम है और जो इस पद को सफल सार्थक बना सके ऐसे उत्कृष्ट स्तर के गुण कर्म स्वभावों को अभ्यास में लाना, यही है वह उभय-पक्षीय क्रिया-कलाप जिसमें आत्मिक प्रगति का उद्यान विकसित होते और फलते-फूलते देखा जा सकता है।

प्रगतिशीलता अपनाने का उपाय एक ही है कि अवांछनीयताओं को निरस्त करते चला जाय और जो अभीष्ट आवश्यक है उसे अपनाने के लिए पूरे उत्साह का प्रयोग किया जाय। उत्कर्ष के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए इस रीति-नीति को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं।

आत्मिक प्रगति का भवन, चार दीवारों से मिल कर बनता है। इस तख्त में चार पाये हैं। चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के भी चार आधार हैं। ब्रह्माजी के चार मुखों से निकले हुए चार वेदों में इसी ज्ञान-विज्ञान का वर्णन है। चार वर्ण-चार आश्रमों का विभाजन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया है। इन्हें (1) आत्म-चिन्तन (2) आत्म-सुधार (3) आत्म-निर्माण और (4) आत्म विकास के नाम से पुकारा जाता है। इन्हें एक एक करके नहीं वरन् समन्वित रूप से सम्पन्न किया जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 7

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/January/v1.7

👉 आशावादी आस्तिक

आशावाद आस्तिकता है। सिर्फ नास्तिक ही निराशावादी हो सकता है। आशावादी ईश्वर का डर मानता है, विनयपूर्वक अपना अन्तर नाद सुनता है, उसके अनुसार बरतता है और मानता है कि ‘ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है।’

निराशावादी कहता है ‘मैं करता हूँ।’ अगर सफलता न मिले तो अपने को बचाकर दूसरे लोगों के मत्थे दोष मढ़ता है, भ्रमवश कहता है कि “किसे पता ईश्वर है या नहीं’, और खुद अपने को भला तथा दुनिया को बुरा मानकर कहता है कि ‘मेरी किसी ने कद्र नहीं की’ ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का आत्मघात कर लेता है और मुर्दे की तरह जीवन बिताता है।

आशावादी प्रेम में मगन रहता है, किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता। भयानक जानवरों तथा ऐसे जानवरों जैसे मनुष्यों से भी वह नहीं डरता, क्योंकि उसकी आत्मा को न तो साँप काट सकता है और न पापी का खंजर ही छेद सकता है, शरीर की वह चिन्ता नहीं करता क्योंकि वह तो काया को काँच की बोतल समझता है। वह जानता है कि एक न एक दिन तो यह फूटने वाली है, इसलिए वह है, इसलिए वह उसकी रक्षा के निमित्त संसार को पीड़ित नहीं करता। वह न किसी को परेशान करता है न किसी की जान पर हाथ उठाता है, वह तो अपने हृदय में वीणा का मधुर गान निरंतर सुनता है और आनन्द सागर में डूबा रहता है।

निराशावादी स्वयं राग-द्वेष से भरपूर होता है, इसलिए वह हर एक को अपना दुश्मन मानता है और हर एक से डरता है, वह मधु-मक्खियों की तरह इधर उधर भिनभिनाता हुआ बाहरी भोगों को भोग कर रोज थकता है और रोज नया भोग खोजता है। इस तरह वह अशान्त, शुष्क और प्रेमहित होकर इस दुनिया से कूच कर देता है।

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1943 पृष्ठ 4

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/October/v1.4

👉 आत्मचिंतन के क्षण 16 Dec 2018

ऐसा कोई नियम नहीं है कि आप सफलता की आशा रखे बिना, अभिलाषा किये बिना, उसके लिए दृढ़ प्रयत्न किये बिना ही सफलता प्राप्त कर सको। प्रत्येक ऊँची सफलता के लिए पहले मजबूत, दृढ़, आत्म श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसके बिना सफलता कभी मिल नहीं सकती। भगवान् के इस नियमबद्ध और श्रेष्ठ व्यवस्थायुक्त जगत् में देवयोग के लिए कोई स्थान नहीं है।

ऐसा विचार मत करो कि उसका भाग्य उसे जहाँ-तहाँ भटका रहा है और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या बस चल सकता है। उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचण्ड शक्ति उसके भीतर मौजूद है, इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा, तब तक उसका कदापित कल्याण नहीं हो सकता।

दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। दूसरों की दुर्बलता के प्रति एकदम आगबबूला हो उठने से पहले हमें यह भी देखना उचित है कि अपने भीतर कितने दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं। बुराइयों सको दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है। अच्छे काम का प्रयोग अपने से ही आरंभ करना चाहिए। हम सुधरें-हमारा दृष्टिकोण सुधरे तो दूसरों का सुधार होना कुछ भी कठिन नहीं।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Dec 2018



👉 आज का सद्चिंतन 16 Dec 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...